रमौली ख़ुद से ख़ुद की बातों में दिनरात उलझी हुई हैं। एक घुटन सी हैं उसके चारों और..। जहां पर उसका सिर्फ बनावटी चेहरा हैं। सारे रिश्तें नातों के बीच भी वह ख़ुद को अधुरा पाती हैं। उसकी वजह था 'शिवा'...।
बात उन दिनों की हैं जब गांव में नए डाक बाबू आए थे। बलरामपुर गांव में एक ही डाकघर था। वो भी गांव की चौक के बीचों—बीच। इस गांव की सीमा चार गांवों से लगती थी और उन सभी चारों गांवों की सीमा शहर से जुड़ी हुई थी। लेकिन केंद्र बिंदु में बसे बलरामपुर से ही लोगों की डाक पहुंचाई जाती थी।
नए डाक बाबू को बंद कमरों में बैठकर डाक की छंटनी करने में घुटन होती थी। इसीलिए वे डाकघर के बाहर खुली हवा में ओटले पर बैठकर ही चिट्ठियों की छंटनी किया करते थे। इस दौरान धीरे—धीरे वे पूरे गांव वालों को अच्छे से जानने और समझने लगे थे। डाकघर के सामने से गुज़रने वाला हर आदमी उन्हें नमस्कार करता हुआ जाता।
रमौली भी डाक बाबू से बेहद घुलमिल गई थी। रमौली के पिता गांव में अपनी व्यवहारकुशलता के लिए जाने जाते थे। गांव वालों के बीच उनकी बड़ी इज्ज़त और दबदबा था। डाक बाबू को भी इनका बहुत सहारा था। अकसर इन्हीं के घर से डाक बाबू के लिए छाछ—लस्सी और कभी—कभार खाना भी आता था।
ख़ुद रमौली डाक बाबू के लिए सारी चीज़े लेकर आती थी। महज़ तीन—चार महीनों में ही डाकबाबू और रमौली के बीच एक बेटी और पिता की तरह रिश्ता बन गया था।
एक दिन डाक बाबू की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी वे बड़ी ही तकलीफ़ के साथ ओटले पर बैठकर डाक छंटनी कर रहे थे। तभी रमौली आई। डाकबाबू की तबीयत ख़राब देखकर उसने डाक छंटनी करने में उनकी मदद की। डाक छंटनी करते वक़्त उसके हाथ से एक चिट्ठी फट गई। डाकबाबू ये देखकर घबरा गए। दोनों सोचने लगे कि अब क्या करें?
फटी हुई चिट्ठी पोस्ट की तो डाकघर की बदनामी होगी। लोगों का अपने संदेश पहुंचाने के प्रति भरोसा कम होगा। और चिट्ठी नहीं पहुंचाई तो भी बहुत ग़लत होगा। हो सकता हैं चिट्ठी में ऐसा संदेश हो जो तुरंत पहुंचना ज़रुरी हो।
दोनों काफी देर तक विचार करते रहे कि आख़िर क्या करें? तभी रमौली ने कहा कि डाकबाबू हम चिट्ठी पढ़ लेते हैं अगर बहुत ज़रुरी नहीं हैं तो भेजने वाले को दोबारा ये चिट्ठी लिखने को बोल देंगे। डाकबाबू पहले तो राज़ी नहीं हुए लेकिन फिर रमौली के बार—बार आग्रह करने पर वे मान गए।
रमौली ने फटी हुई चिट्ठी को जोड़कर पढ़ना शुरु किया। इसमें लिखा था कि—
मां—पिताजी प्रणाम। मैं ठीक हूं मेरी पढ़ाई अच्छी चल रही हैं। शहर में आप दोनों के बिना दिल नहीं लगता हैं। जब भी छुट्टी मिलेगी मैं गांव आऊंगा...।
आपका बेटा।
चिट्ठी पढ़ने के बाद रमौली और डाकबाबू के चेहरे पर मुस्कान आ गई। दोनों ने राहत की सांस ली और ईश्वर को धन्यवाद दिया। यदि ये चिट्ठी तुरंत पहुंचाना होती तब वे क्या करते?
अब इस चिट्ठी को भेजने वाले के पते पर रमौली ने एक चिट्ठी लिख भेजी। जिसमें पूरा वृतांत सिलसिलेवार समझाया।
दस दिन बाद इसी पते से दो चिट्ठियां आई। एक अपने माता—पिता के लिए थी और दूसरी रमौली और डाकबाबू के लिए थी। जिसमें उसने दोनों की ईमानदारी और सही निर्णय के लिए धन्यवाद प्रकट किया था।
चिट्ठी भेजने वाले की बात रमौली के दिल को छू गई। चिट्ठी में जिस सरलता और विनम्रता के साथ शब्द लिखे थे वे बहुत आकर्षक थे। इसके बाद रमौली ने उसके जवाब में फिर एक चिट्ठी और लिख भेजी। अबकी बार उसका नाम भी पूछा।
सप्ताह भर बाद रमौली की चिट्ठी के जवाब में फिर चिट्ठी आई। अबकी बार चिट्ठी में नाम भी आया, 'शिवा'...। इस बार शिवा ने भी नाम भेजने को कहा।
रमौली डाकबाबू से पूछती हैं कि क्या वह अपना नाम भेज दें? डाकबाबू कहते हैं कि बेटी अनजाने के साथ ज़्यादा बातचीत ठीक नहीं हैं। अब चिट्ठी व्यवहार को यही बंद करो। रमौली के लिए डाकबाबू एक अच्छे दोस्त की तरह थे। उनके साथ वह सभी तरह की बातें साझा करती थी।
वह डाकबाबू को अपने दिल की बात बताती हैं। वह कहती है कि न जाने क्यूं इस चिट्ठी के साथ एक लगाव सा हो गया हैं। इस चिट्ठी का बेसब्री से इंतजार रहने लगा हैं।
डाकबाबू रमौली की बात सुनकर उसके दबे हुए अहसास को भांप रहे थे। वे उस वक़्त उसे ज़्यादा कुछ नहीं बोलते हैं। और उसे अपना नाम लिखकर भेजने को कह देते हैं। रमौली चिट्ठी में अपना नाम गुड्डी लिखकर भेज देती हैं। चिट्ठी लिखने का ये सिलसिला यूं ही चलता रहा। और फिर धीरे—धीरे प्यार में बदल गया।
शिवा और गुड्डी एक—दूसरे को हर सप्ताह चिट्ठी लिखने लगे। चिट्ठी में लिखे एक—एक शब्द में दोनों के जज़्बात उमड़ रहे थे।
दोनों ने न कभी किसी को देखा था और ना ही तस्वीर भेजी थी। फिर भी एक—दूसरे के प्रति अटूट समर्पण था।
इनकी चिट्ठियों में अनगिनत सवाल थे और भावनाओं से भरे जवाब...। न जानें कितने ही वादे और कसमें थी जिसे वे मिलकर पूरा करना चाहते थे। शिवा के प्रेम को महसूस करने के बाद रमौली उसे अपना असली नाम बताने के बारे में कई बार सोचती हैं लेकिन ये सोचकर रह जाती हैं कहीं शिवा उसे झूठी या ग़लत ना समझ लें।
दोनों के बीच गुपचुप चल रहे प्यार की ख़बर सिर्फ डाकबाबू को ही थी। उन्हें रमौली की चिंता सताए जा रही थी। कहीं रमौली के पिता या परिवार को इसकी भनक लग गई तो क्या होगा? और जब उन्हें पता चलेगा कि मुझे इसकी जानकारी थी तो उनके मन पर क्या गुज़रेगी..?
डाकबाबू रमौली को बहुत समझाते हैं। लेकिन रमौली अब कहां मानने वाली थी। उसके दिलों—दिमाग में तो अब सिर्फ शिवा ही था। वो तो उसके साथ शादी करके पूरी उम्र बीताने के सपने संजोय बैठी थी।
एक दिन रमौली के लिए पडोसी गांव से रिश्ता आता हैं। रमौली के पिता और मां गांव जाकर रिश्ता पक्का कर आते हैं। रमौली जो अब तक शिवा के प्रेम में डूबी हुई थी अब वो बुरी तरह से सदमे में थी। वो डाकबाबू से कहती है कि वे कुछ भी करके उसके पिताजी को शिवा के लिए समझाएं। लेकिन ये संभव नहीं था। रमौली के पिता जो रिश्ता तय कर आए थे अब उनकी बात ख़राब करने का मतलब गांव में उनकी इज्ज़त को ख़राब करना था।
डाकबाबू रमौली को अपनी बेबसी का वास्ता देते हैं और साथ ही पिता की इज़्ज़त की लाज रखने को कहते हैं। इस वक्त डाकबाबू को एक पल के लिए ये भी विचार आता है कि शादी के बाद रमौली इस चिट्ठी के साथ शुरु हुए प्रेम को भूल जाएगी। इसीलिए वे उसे शादी कर लेने को कहते हैं।
एक डाकबाबू ही तो थे जो इस प्यार के बारे में सब कुछ जानते थे। जब वे ही उसे शादी करने को कहते हैं तो रमौली का दिल बुरी तरह से टूट जाता हैं। उसकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं। लेकिन वो हालातों के आगे इस वक़्त मजबूर हैं। उसने कभी नहीं सोचा था कि शिवा की चिट्ठियों से पांच महीनों में मिला प्यार यूं ही झट से टूट जाएगा। इसकी कल्पना तक नहीं की थी उसने। आज उसकी पूरी दुनिया ही उजड़ गई थी। पिता का मान रखने की ख़ातिर वह नियती के इस फैसले के आगे झूक गई।
कुछ ही दिनों में रमौली की शादी हो गई और वो अपने ससुराल चली गई लेकिन वो शिवा की यादें, उसका प्यार, चिट्ठियों का अहसास और उससे न मिल पाने का दर्द अपने साथ ले गई। इधर, रमौली की शादी के कुछ ही दिनों बाद डाकबाबू की पोस्टिंग भी दूसरे गांव में हो गई थी।
रमौली की शादी हुए लगभग पांच साल हो गए लेकिन इन बीते सालों में वह दिल से कभी भी पति को स्वीकार नहीं कर पाई थी। पति ने भी उस पर कभी हक नहीं जताया था।
देखने वालों की नज़र से रमौली और उसके पति की एक आदर्श गृहस्थी थी। वे दोनों सारे रिश्तें नाते भी बखूबी निभा रहे थे। दोनों एक—दूसरे के हर फैसले में साथ थे लेकिन इनके दिलों के बीच मीलोें के फ़ासले थे। दोनों को कभी भी एक—दूसरे की मौजूदगी या कमी का अहसास नहीं होता था। दोनों ने एक—दूसरे से कभी कोई शिकायत भी नहीं की थी। इस लिहाज़ से सब कुछ ठीक ही चल रहा था।
आज रमौली की बहन की शादी हैं। वो पति के साथ अपने गांव बलरामपुर आई हैं। शादी में डाकबाबू भी आए हैं। वे रमौली से मिलते हैं। उसके हाल पूछते हैं। रमौली उन्हें जवाब में कहती हैं, पांच साल पहले जोे आंसू आपके सामने गिरे थे वो अब आंखों में नहीं आते हैं...। दिल के भीतर इकट्ठा हो गए हैं...न जानें कब समुद्र की तरह बह निकलें...।
डाकबाबू रमौली की बात सुनकर चौंक गए। उन्हें मन ही मन पछतावा होने लगा। शादी के बाद रमौली शिवा को भूल जाएगी ऐसा वे सोच रहे थे लेकिन आज भी रमौली के भीतर शिवा का प्यार ज़िंदा हैं। ये देखने के बाद उन्हें घबराहट होने लगी और वे शादी समारोह बीच में ही छोड़कर वहां से निकल गए।
अगले दिन रमौली उनसे मिलने के लिए डाकघर पहुंची। डाकबाबू उसे देखकर परेशान हो गए। रमौली उनसे पूछती हैं कि आप शादी बीच में ही छोड़कर क्यूं चले गए थे..? डाकबाबू उसे टालते हुए कहते हैं कि उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। रमौली उन्हें छाछ पकड़ाती है और ये कहकर चल देती हैं अपना ध्यान रखना।
डाकबाबू को समझ नहीं आया कि वे उसे क्या कहे। उसे रोके या जानें दें...। डाकबाबू अजीब सी कशमकश में थे लेकिन रमौली की हालत देखकर वे अपनी चुप्पी तोड़ते हैं और उसे आवाज़ लगाते हैं..अरे, रमौली सुन तो बेटी। तेरा कुछ सामान रखा हैं संभालकर। ये सुनकर रमौली चौंक गई। वो कुछ पूछती उससे पहले ही डाकबाबू ने उसके हाथ में दो चिट्ठियां लाकर थमा दी।
चिट्ठियां पाकर रमौली का चेहरा एक पल के लिए खिल उठा। लेकिन दूसरे ही पल में वो उदास होकर डाकबाबू से कहती हैं कि अब इन चिट्ठियों को पढ़कर क्या हासिल हैं। डाकबाबू कहते हैं कि तुम्हारी शादी के बाद ये दोनों चिट्ठियां आई थी जिसे मैंने संभालकर रखा था। मेरी पोस्टिंग दूसरे गांव में हो गई थी। और फिर तुम से कब मिलना होगा ये भी पता नहीं था। तभी से ये संभाले हुए हूं। तुम्हारी खुशहाल गृहस्थी के बाद ये चिट्ठियां तुम्हें देना तो नहीं चाहता था लेकिन तुम्हारे दिल में शिवा के लिए अटूट प्रेम अब भी हैं ये देखने के बाद ही तुम्हें ये चिट्ठियां देने का फैसला ले पाया हूं।
रमौली ज़मीन पर बैठ जाती हैं। उसे समझ नहीं आता कि अब वो इन चिट्ठियों का क्या करें। डाकबाबू उसके सर पर हाथ रखते हैं। और उसे कहते हैं कि अब तुम्हीं फैसला करो क्या सही हैं और क्या ग़लत...?
रमौली डाकबाबू के पैर छूती हैं और बिना कुछ बोले चिट्ठियां साथ लेकर चली जाती हैं। आज डाकबाबू की आंखों में भी आंसू थे।
बहन की विदाई के बाद रमौली भी पति के साथ अपने घर चली आई। लेकिन एक—दो दिन बाद उसकी तबीयत बिगड़ने लगी और धीरे—धीरे उसने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया था। गांव के सभी डॉक्टरों और नीम हकीमों को दिखाया लेकिन उसकी तबीयत में सुधार नहीं आया।
सभी की सलाह लेने के बाद उसे शहर ले जाने की तैयारी की गई। इलाज के लिए जब रमौली के पति को पैसों की ज़रुरत पड़ी तब उसने रमौली से उसकी अलमारी की चाबी मांगी और पैसा निकालने के लिए अलमारी खोली।
लॉकर में पैसों से ज़्यादा तो चिट्ठियां पड़ी हुई थी। रमौली का पति ये सब देखकर अवाक् था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करें। उसने ख़ुद को संभाला और सारी चिट्ठियां समेटकर रमौली के पास आया। बुखार में बेसुध पड़ी रमौली पति के हाथ में शिवा की चिट्ठियां देखकर बुरी तरह से घबरा गई।
वो कुछ कहती उससे पहले ही उसके पति ने उससे पूछा कि ये चिट्ठियां तुम्हारें पास कैसे आई..? रमौली ने कोई झूठ नहीं बोला। वैसे भी उसे अब लगने लगा था कि शिवा के बिना अब वो जी नहीं पाएगी।
उसने सिलेवार सारी कहानी बयां कर दी। पूरी बात सुनने के बाद पति ने उसे गले से लगाया और खूब रोया। उसने बताया कि वो ही उसका 'शिवा' हैं। रमौली यह सुनकर हैरान रह गई। पति ने बताया कि शिवा नाम तो उसने यूं ही उसे बता दिया था। और पिछले पांच सालों से वो रमौली के गांव में ही गुड्डी को ढूंढ रहा हैं। लेकिन गुड्डी के बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता। वह रमौली को बताता है कि डाकघर में भी गुड्डी के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं थी। डाकबाबू से भी मिलने की कोशिश की लेकिन पता लगा कि दूसरे गांव में पोस्टिंग के बाद वे भी रिटायर होकर परिवार के साथ अपने बेटे के पास रहने शहर चले गए।
तभी से वो गुड्डी की याद को अपने सिने में दबाकर जी रहा हैं। रमौली की आंखों से आंसू बह रहे थे। जुबां पर कोई बात न थी। मानों दिल के भीतर समुद्री तूफान आया हो। दोनों एक—दूसरे से गले मिलकर खूब रोए....।
ये आंसू दोनों की जुदाई के दर्द और मिलन की खुशी को बयां कर रहे थे...। रमौली और शिवा के सच्चे प्यार का अंत शायद यही था...।
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