कोनाबाल साहित्य फेसबुक दोस्त बाल कहानी by teenasharma December 7, 2022 written by teenasharma December 7, 2022 फेसबुक दोस्त मेरे भी फेसबुक दोस्त बन जाएंगे और मैं भी ज़िंदा बनके रह सकूंगा…। ये सुनते ही मम्मी ने मिक्कू को गले से लगा लिया और फूट—फूटकर रोने लगी…। मिक्कू के पापा भी नि:शब्द हो गए थे…। ———————————– मिक्कू हमेशा खिड़की के बाहर झांके खड़ा रहता। हर आने—जाने वाले को वो घंटों ही ताकता रहता…। ज़रा देर हटता भी तो वो सिर्फ़ मिनटों की ही दूरी होती…। या तो जब कि, उसे टॉयलेट जाना हो या फिर कुछ खाई—पी करनी हो…। कभी—कभार तो वो ये दोनों भी नहीं करता…। शाम को मम्मी—पापा दफ़्तर से लौटते तो ही मिक्कू खिड़की से हटता…। मम्मी—पापा के घर आ जाने के बाद तो वो खिड़की की ओर देखता तक नहीं…। उसे उसी खिड़की से कोफ्त हो उठती…लेकिन दिनभर यही खिड़की उसका सबसे प्यारा ठिकाना होती…। एक दिन उसने अपने पापा से कहा कि, मुझे एक मोबाइल क्यूं नहीं दिला देते…जिससे मेरा टाइम पास हो सके…। ये सुन पापा हंस पड़े। फेसबुक दोस्त अरे! भई तुम्हें टाइम पास करने की क्या ज़रुरत हैं…। स्कूल से आने के बाद तुम कुछ देर सो सकते हो…फिर कुछ देर टीवी देख सकते हो और जो समय बचे उसमें पढ़ाई करो भाई…। और हंसते हुए बाथरुम में घुस गए..। मिक्कू को पापा की बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। वो मम्मी के पास गया और उसने वही बात दोहराई ”मुझे एक मोबाइल क्यूं नहीं दिला देते…जिससे मेरा टाइम पास हो सके…।” बर्तन साफ करते हुए मम्मी भी हंस पड़ी…। अरे! बेटा तू अभी बहुत छोटा हैं…। मोबाइल चलाने से तेरी आंखें ख़राब हो जाएगी…। तुझे तो सिर्फ़ पढ़ाई पर ही ध्यान देना चाहिए…। अपना सिलेबस देखा है तुने…? तौबा रे! वो ही पढ़ले तू तो बहुत हैं…। ये कहते हुए मम्मी भी दफ़्तर के लिए तैयार होने लगी…। मिक्कू बेहद निराश हो गया…। वो सोचने लगा। मैं कैसे समझाउं इन्हें कि, ये सब काम तो मैं कर ही रहा हूं…। पर…? पर इन सबके बीच भी मुझे दिनभर अकेलापन डराता हैं। खिड़की के बाहर झांककर बैठा रहूं तभी तक मुझे ठीक लगता हैं…। अब कैसे समझाउं मैं ‘मम्मी—पापा’ को…? कुछ दिन बाद मिक्कू ने वही बात फिर से छेड़ी…”मुझे एक मोबाइल क्यूं नहीं दिला देते…जिससे मेरा टाइम पास हो सके…।” अबके मम्मी—पापा कुछ खाली से थे…। तब दोनों ही का ध्यान मिक्कू की इस बात पर पड़ा…। अरे! मिक्कू बेटा तुमने कुछ दिन पहले भी यही बात कही थी। आख़िर बात क्या है…? क्यूं तुम मोबाइल की ज़िद कर रहे हो…? क्या तुम भी बाकी बच्चों की तरह गेम्स…शॉर्ट्स…रील…या यूट्यूब पर ख़ुद को उलझाएं रखना चाहते हो…? पापा की ये बात सुन मिक्कू ने बेहद ही मासूमियत से कहा, मैं दोस्त बनाना चाहता हूं पापा…। जो मुझसे बात करें…मेरे सवालों का जवाब दे…मेरी एक्टिविटी की तारीफ़ करें…उसे लाइक करें…उस पर कॉमेंट करें… जिससे मुझे मेरे होने का अहसास होता रहे…। क्यूंकि आप दोनों के पास तो टाइम नहीं हैं…। आपका दफ़्तर जाना भी ज़रुरी हैं…पर मेरा क्या…? स्कूल से आने के बाद सूरज ढलने तक मैं अकेला कैसे रहता हूं ये आप लोग नहीं समझ सकते…। मुझसे बातें करने वाला कोई नहीं…। घर के सामानों से कुछ पूछता हूं तो वे कोई जवाब नहीं देते…। न टीवी कुछ बोलती हैं ना ही फ्रीज़ और ना ही ये ऐसी और सोफ़ा कोई जवाब देता हैं…। ले दे के एक खिड़की ही है बेचारी जो दिनभर अपनी गोद में बैठाए रखती हैं मुझे…। जहां से मैं ज़िंदा लोगों को देख पाता हूं…। जो चलते—फिरते हैं….। एक—दूसरे से खड़े होकर बातें करते हैं…। हंसते हैं…कुछ अपनी सुनाते हैं तो कुछ औरों की सुनते हैं…। फिर हंसी ठट्ठा करते हैं…। कभी चिंकू बॉलिंग करता हैं तो कभी पिंकू…कभी दोनों कांधे पर हाथ रखकर एक—दूजे पर लटक जाते हैं तो कभी धूल—मिट्टी में लौट जाते हैं…। ये सब ज़िंदा हैं…लेकिन मैं…? मैं इस दस बाय बारह के छोटे से कमरे में ख़ुद को मरा हुआ पाता हूं…। स्कूल से आने के बाद दिनभर घर पर अकेला ही होता हूं। स्कूल बस रोज़ाना अपने समय पर छोड़ जाती हैं…। कुछ देर वहीं सड़क पर खड़ा रहकर बस को देखता रहता हूं जब तक कि वो मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती। धीरे—धीरे सीढ़ियां चढ़कर आता हूं और फ्लैट का लॉक खोलता हूं…। फिर जैसा कि आपने निर्देश दिया हुआ है दरवाज़ा अच्छे से लॉक कर लेना…सो मैं वही करता हूं…। फिर बैग को सोफ़े पर फेंक ख़ुद भी कुछ देर वहीं औंधें मुंह पड़ जाता हूं …। कभी छत को देखता हूं तो कभी दीवारों को…। फिर अचानक से उठकर यूनिफॉर्म बदलता हूं…। उसकी घड़ी करके उसे एकदम प्रेसबंद अलमारी में रख देता हूं…। फिर वहीं आपके निर्देशानुसार ”खाना ढंका हुआ है उसे खा लेना….।” मैं वहीं करता हूं….। इसके बाद पढ़ाई…टीवी…सोना…सब कुछ रोज़ाना की तरह करता हूं…। फिर भी अकेला हूं…। लगता हैं मैं मर गया हूं….। थोड़ी बहुत जान उस वक़्त आती है जब आप दोनों दफ़्तर से घर लौट आते हो…। लेकिन वो जान भी थोड़ी ही देर में मर जाती हैं…। आप दोनों अपने ही काम में खो जाते हैं…और फिर दोनों के हाथ में ‘मोबाइल’….और अपनी धुन होती हैं…। तब भी मैं कहीं नहीं होता…। आप दोनों के रहते हुए भी मैं एक बार फिर मरा हुआ पाता हूं….। ये कहते—कहते मिक्कू की आंखों से आंसू बहने लगे…। उसने आंसू पोंछते हुए मम्मी—पापा से कहा,मैंने सुना है कि फेसबुक पर दोस्त बनते हैं और वे अच्छी—अच्छी बातें करते हैं…। उनके साथ समय का पता ही नहीं चलता…। इसीलिए तो कह रहा हूं, मुझे भी एक मोबाइल दिला दो…। http://kahanikakona.com/wp-content/uploads/2022/12/WhatsApp-Video-2022-12-07-at-17.16.45.mp4 मेरे भी फेसबुक दोस्त बन जाएंगे और मैं भी ज़िंदा बनके रह सकूंगा…। ये सुनते ही मम्मी ने मिक्कू को गले से लगा लिया और फूट—फूटकर रोने लगी…। मिक्कू के पापा भी नि:शब्द हो गए थे…। मम्मी—पापा दोनों को ये अहसास हुआ कि, उनकी अनुपस्थिति में मिक्कू का क्या हाल होता हैं…। वे सोचने लगे, आख़िर मिक्कू को ‘फेसबुक दोस्तों’ की ज़रुरत क्यूं पड़ी…। टीना शर्मा ‘माधवी’ पत्रकार/ब्लॉगर/कहानीकार kahanikakona@gmail.com ————————— यदि आप भी बाल कहानियां व कविताएं लिखते हैं तो शीघ्र ही लिख भेजिए। आपकी रचनाएं आमंत्रित हैं। कहानी-बुधिया ‘गुड़िया के बाल’ balkahanifacebook friendfacebookdostबाल कहानीबाल साहित्य 4 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail teenasharma previous post स्ट्रीट आर्टिस्ट हूं भिखारी नहीं next post ग़ज़ल निरुपमा चतुर्वेदी Related Posts बाहुबली January 28, 2023 स्ट्रीट आर्टिस्ट हूं भिखारी नहीं November 14, 2022 कॉमन मैन— ‘हुकमचंद’ गाइड July 12, 2022 ‘गुड़िया के बाल’ June 16, 2022 कहानी का कोना June 12, 2022 ‘फटी’ हुई ‘जेब’…. 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