कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग— 6

by Teena Sharma Madhvi

कबिलाई एक जीप को घेरेे खड़े हैं…और हवा में खंजर…चाकू…दांती..कुदाली लहरा रहे हैं…। भीखू सरदार और उसका भाई नौ बरस से जिस दिन के इंतज़ार में थे वो इस वक़्त उनकी आंखों के सामने था…। 

जिस सोहन को वे हर जगह ढूंढ रहे थे, वो आज उनके सामने खड़ा था…। दोनों के लिए इस पर यक़ीन कर पाना मुश्किल था लेकिन ये सच था…। दोनों ने एक—दूसरे की ओर देखा और तेजी से भीड़ की ओर बढ़े। जीप के पास सोहन हाथ जोड़े हुए खड़ा था और उसके माथे से पसीना टपक रहा था। जीप के भीतर उसकी बूढ़ी मां बैठी हुई थी…जो बुरी तरह से कांप रही थी…। 

तभी भीखू सरदार चिल्ला उठा…क्या हो रहा हैं ये सब…। अपने सरदार को देख सभी कबिलाई खुशी से झूम उठे और चारों तरफ ‘हो हुक्का…हो हुक्का…हो हुक्का’…का शोर गूंज उठा। 

सरदार ने हाथ हिलाते हुए सभी को शांत होने को कहा…। तभी पास ही खड़ा भीखू सरदार का भाई मूंछों पर ताव देते हुए बोला…’ओ..हो…सोहन बाबू…! बरसो बाद…मिलें हो…कहो— कैसे हो’…। 

तभी कबिलाई बोल उठे, अरे! ये क्या बताएगा अब…। अब तो हम बताएंगे इसे…। तभी सरदार फिर चिल्ला उठा…शांत हो जाओ सभी…इसे टिबड्डे पर ले आओ….फैसला वहीं होगा…। 

ये कहते हुए सरदार और उसका भाई टिबड्डे की ओर चल पड़े। उनके पीछे—पीछे कबिलाई भी सोहन और उसकी मां को पकड़कर टिबड्डे पर ले आए। सोहन ने अपनी बूढ़ी मां को पकड़ने की कोशिश की लेकिन कबिलाईयों ने उसे आगे की ओर धकेल दिया…। 

सोहन की मां का दिल जोरों से धड़क रहा था…उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे…अपने बेटे की ये दशा उससे देखी नहीं गई…वह बार—बार कबिलाईयों से कहती रही …ज़रा धीरे से पकड़ों मेरे बच्चे को…उसके साथ यूं बुरा व्यवहार न करो…। 

लेकिन कबिलाई उसकी एक ना सुनते और उसके बोलने के साथ ही साथ वे सोहन को और बुरी तरह से पीटते हुए आगे की ओर धकेलते…। सोहन गिरता फिर उठता…वे फिर उसे लातो से धक्का मारते…वो फिर संभलता…।

टिबड्डे पर खड़ा भीखू सरदार उसकी इस हालत को देख रहा था…पास ही खड़ा उसका भाई जोरों से हंसते हुए बोला…लो सरदार, ये धोखेबाज़ आज पूरे नौ बरस बाद हमारी बस्ती में खड़ा हैं…। सुना दो जल्दी से फैसला ताकि कलेजे को जल्द से जल्द सुकून मिल सके…। 

उसकी बात सुनकर भीखू सरदार ने उसके कांधे पर हाथ रखते हुए कहा, निश्चित ही फैसला होगा…लेकिन इतनी जल्दी भी क्या हैं…। ​इसे ढूंढ निकालने में हमें पूरे नौ बरस लग गए…आख़िर इससे ये पूछना तो बनता ही हैं, इन नौ बरसों में इसने क्या किया…। 

ये सुनते ही ​कबिलाई खुशी से झूम उठे और ‘हो हुक्का…हो हुक्का…हो हुक्का’…का शोर मचाने लगे..। सरदार उनकी इस खुशी में शामिल था। वो समझ सकता था ‘आज सोहन को अपने सामने पाकर पूरी बस्ती क्या महसूस कर रही हैं’…। सबसे पहले उसने सोहन की बूढ़ी मां को मुड्डे पर बिठवाया और फिर सोहन को उसकी आंखों के सामने बीचो—बीच लाकर खड़ा करवाया…। 

अभी तक इस पूरी घटना से अनजान अपने तंबू में बैठी शंकरी को भी अब इसकी भनक पड़ गई…उसकी सहेली कांजी नंगे पैर उसके पास दौड़ी चली आई…उसने शंकरी को बताया कि ‘सोहन बाबू पकड़े गए हैं’…। ये सुनते ही शंकरी की आंखें फटी की फटी रह गई…। 

उसके दिल की धड़कनें सामान्य से तेज़ दौड़ने लगी…हाथ कंपन करने लगे…पैर लड़खड़ाने  लगे…और वह धड़ से ज़मीन पर गिर पड़ी तभी कांजी ने उसे संभाला…। 

शंकरी ने कांजी से कहा, मुझे टिबड्डे तक ले चल…। कांजी ने उसे पकड़ा और उसे संभलने के लिए कहा…। 

शंकरी अपना होश खो बैठी थी…उसे सोहन के पकड़े जाने का अंजाम समझ आ रहा था…। टिबड्डे पर पहुंचते ही उसकी नज़र ‘सोहन’ पर पड़ी…। उसका कलेज़ा भर आया…। बेहाल, बेबस और असहाय खड़े सोहन की नज़रें भी बरसों बाद शंकरी को देख रही थी…। उसकी आंखों में ख़ुद से शर्मिंदगी का भाव अब भी तैर रहा था, जिसे शंकरी ने ठीक वैसे ही महसूस कर लिया जैसे आज से नौ बरस पहले वनदेवी की टेकरी पर किया था…। 

   उस दिन भी सोहन बार—बार कह रहा था…’शंकरी तुम्हें यूं छोड़कर जाने का दिल नहीं हैं…मेरा यूं चले जाना तुम्हारे साथ धोखा करने वाली बात होगी’…। और शंकरी कहती, इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं जब तुम कबिलाईयों की बस्ती से दूर जा सको…। तुम्हें इसी वक़्त निकलना होगा सोहन बाबू…जाओ…फोरन निकल जाओ…पीछे पलटकर मत देखना….। 

     नौ बरस बाद आज दोनों एक—दूसरे के सामने यूं बेबस हाल में खड़े हैं, तब पुरानी बातें हूबहू ताज़ा हो उठी..जैसे अभी—अभी की ही बात हैं…। शंकरी और सोहन बाबू एक—दूसरे को बस एकटक देख रहे थे और दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे। 

तभी भीखू सरदार बोल उठा— अरे वाह शंकरी…आओ…आओ…मेरी बच्ची…। मैं तुझे बुलवाने ही वाला था…। देख तेरा गुनहगार आज बरसों बाद तेरे सामने खड़ा हैं…खुशी मना…।   

 जिसने तेरी आंखों में समुद्र से गहरे आंसू भर दिए, वो तेरे सामने हैं…। तेरी तड़प…तेरा इंतज़ार…और पूरे नौ बरस अकेले बिताए जीवन के पलों का हिसाब रखने का वक़्त आ गया हैं आज…। 

   बोल मेरी बेटी…क्या सज़ा दूं इसे…जिससे तेरे अपमान का बदला पूरा हो सके…। बता ऐसी सज़ा जो तेरे चेहरे की गुम हुई मुस्कान लौटा सके…। बता दें ऐसी सज़ा जिसे देखकर रुह कांप उठे सबकी और कबिलाईयों की बस्ती में आकर उसकी इज्ज़त से खेलने का अंजाम जान सके ये शहरी लोग…। 

   भीखू सरदार की बातें सुनते ही शंकरी उसके पैरों में गिर गई…और गिड़गिड़ाने लगी…। पिताजी, मेरे साथ जो हुआ उसकी वजह सोहन बाबू नहीं हैं…। छोड़ दो सोहन बाबू को…उसे जाने दो….। 

   ये सुनते ही सरदार आश्चर्य से भर उठा। और तमतमाकर बोला, ये क्या कह रही है तू…? बरसों पहले जिस आदमी ने तुझे छोड़कर तेरे साथ धोखा किया…तू उसी को छोड़ देने को कह रही हैं….। ये कैसे संभव हैं…हम कबिलाईयों का ‘उसुल’ है…वे छल करने वाले को कभी नहीं छोड़ते…। 

    तभी शंकरी सरदार के सामने हाथ जोड़ते हुए बोली, कबिलाईयों के यही ‘उसुल’ तो मेरी इस हालत के लिए ज़िम्मेदार हैं…। 

उस रात सोहन बाबू की गाड़ी ख़राब हुई थी…आपने इनकी मदद की और अपनी बस्ती में ले आए…। अगले दिन बारिश रुकने के साथ ही ये अपने शहर अपने घर अपनी मां के पास लौटने वाले थे…यहां तक तो हम कबिलाईयों के रीति—रिवाज़, परंपरा, उसुल सब ठीक थे..। 

     फिर उस रात जब आपके भाई ने मुझे सोहन बाबू के तंबू से आते हुए देखा तो आपके रीति—रिवाज़, परंपरा और उसुल ग़लत हो गए पिताजी…ग़लत हो गए…।

ये सुनते ही भीखू सरदार भड़क उठा, साफ़—साफ बोल शंकरी…यूं घुमा फिराकर बातें मत कर…। मेरे सीने में आग धधक रही हैं…। सोहन को जलाकर राख नहीं कर देता तब तक मेरे इस कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी..। तभी शंकरी सरदार के सामने उठ खड़ी हुई, और फिर सवाल करने लगी। मैं पूछती हूं सरदार आख़िर किसने बनाया हैं ये रिवाज़ कि, कबिलाई लड़की किसी मर्द के साथ अकेले में दिखती हैं तो इसका मतलब दोनों की शादी ही होगी…?

     उस रात मैं सोहन बाबू की मदद करने के लिए ही उनके तंबू में गई थी…। मैंने उन्हें मोबाइल फोन दिया था, ताकि वे दूर बैठी अपनी मां तक ये संदेशा पहुंचा सके कि वे सकुशल हैं…। उस रात वे बहुत परेशान थे…घबरा रहे थे हमारे साथ इस कबिलाई बस्ती में…। मुझे लगा अपनी मां से बात कर लेने के बाद ये परदेसी चैन से रात गुज़ार लेगा और सुबह उठते ही यहां से चला जाएगा…। 

   लेकिन आप लोगों ने मुझे तंबू से बाहर निकलते हुए देख लिया…मैं उस वक़्त आपको सच नहीं बता सकी…क्या मैं आपको सच कहती तो आप लोग मेरी बात को सहजता से मान लेते…..?

   कतई नहीं…। क्यूंकि कबिलाई ​रीति—रिवाज़ों और उसुलों में बंधे हैं आप सब…। कबिलाईयों के इन्हीं रिवाज़ों और उसुलों के कारण मुझे उस वक़्त झूठ बोलने को मजबूर होना पड़ा…। 

उस रात मैं ये झूठ ना कहती कि मुझे सोहन बाबू पसंद हैं इसीलिए मैं उनसे मिलने उनके तंबू में आई थी तो क्या कबिलाई ‘सोहन बाबू’ को छोड़ देते….? 

क्या उसी वक़्त हम दोनों को मार नहीं दिया जाता…?

शंकरी की बात सुनते ही कबिलाईयों ने अपने—अपने  खंजर…दराती…कुदाली और चाकू निकाल लिए…चारों तरफ एक ही शोर मचने लगा…। ‘ओहो…ओहो…ओहो…ओहो’…..।

क्रमश:

कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—5

कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—4

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