‘नाटक’ को चाहिए ‘दर्शक’….

by Teena Sharma Madhvi

विश्व ‘हिन्दी रंगमंच’ दिवस

‘रामलीला’,’रासलीला’, नौटंकी , स्वांग , नकल , खयाल , यात्रा , यक्षगान और तमाशा के रुप में वर्षो की यात्रा करते हुए ‘हिन्दी रंगमंच’ आज 2021 में आते—आते ‘सोशल मीडिया’ के मंच पर पहुंच गया हैं। बरसों से रंगमंच के इन अलग—अलग रुपों में जीता आया हैं एक ‘कलाकार’… जिसे ज़िंदा रखें हुए हैं ‘दर्शक’…। जो तालियां बजाकर कलाकार में सांस भरते हैं…।



   ऐसे में ये सवाल ज़ेहन में उठना ​लाज़िमी हैं, क्या आज ऑनलाइन ‘रंगमंच’ की स्वीकार्यता संभव हैं…? क्या इसके ज़रिए भी दर्शक और कलाकार के बीच इसकी सौंधी—सौंधी महक को महसूस किया जा सकता हैं…? जब सारा कुछ ऑनलाइन होने लगा हैं, फिर रंगमंच क्यूं नहीं..? 

   ये सवाल शायद आप और हम तो सोच सकते हैं…लेकिन एक कलाकार इस सोच को सहजता से स्वीकार नहीं करता। मंच पर जब तालियों की गड़गड़ाहट होती हैं और जिसकी गूंज से पूरा हॉल खिल उठता हैं वो अहसास, वो महक ऑनलाइन रंगमंच में कहां…?  

     कलाकार मानता है कि ‘डिजिटल थिएटर’ की शुरुआत कुछ विषम ​परिस्थितियों में हुई है और कुछ समय के लिए इसे कर लेना भी ठीक हैं लेकिन इसे सुचारु रुप से करना संभव नहीं। ऐसा होने से ना तो कलाकार ही अपने नाटक अभिनय के साथ न्याय कर पाएंगे और ना ही इन्हें देखने वाले दर्शक होंगे। 

    अभी ऑनलाइन थिएटर में जो लाइक, कमेंट, शेयर और व्यूज़ काउंट होते हैं वो सौ प्रतिशत दर्शक संख्या नहीं होती। एक व्यक्ति कुछ सैंकंड या कुछ मिनट की सर्फिंग करके आगे बढ़ जाता हैं। इससे दर्शकीय गंभीरता पता नहीं चल पाती। लेकिन ‘रुबरु’ होकर नाटक देखने में जो प्रतिक्रिया मिलती हैं असल में वही प्रतिक्रिया एक नाटक और एक अभिनेता के लिए अंतिम परिणाम होती हैं। असल रंगमंच है भी यही…।   

    यदि हम रंगमंच के इतिहास पर नज़र डालें तब पाएंगे कि ये विधा तो बहुत पुरानी हैं। ऐसा कहा जाता हैं कि नाट्यकला का विकास भारत में ही हुआ हैं। 

   प्राचीन धर्म ग्रंथ ऋग्वेद के सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा व उर्वशी के कुछ संवाद हैं जिसमें नाट्य विकास  के चिह्न देखे गए हैं। कहते हैं इन्हीं संवादों से प्रेरित होकर लोगों ने नाटकों की रचना की हैं। 

    एक अन्य धारणा भी हैैं जिसके तहत छत्तीसगढ़ स्थित रामगढ़ के पहाड़ों पर महाकवि कालीदास जी द्वारा निर्मित एक प्राचीनतम नाट्यशाला मौजूद है। कालिदास ने यहीं पर मेघदूत नाटक की रचना की थी। 

   वर्ष 1967 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास की मानें तो आधुनिक रंगमंच पर हिन्दी का पहला नाटक शीतला प्रसाद त्रिपाठी द्वारा लिखित ‘जानकी मंगल’ था। उसका मंचन बनारस के रॉयल थिएटर में 3 अप्रैल 1868 को किया गया था। 

    तब इंग्लैंड के एलिन इंडियन मेल में 8 मई 1868 के अंक में उस नाटक के मंचन की जानकारी भी प्रकाशित की गई थी। इस आधार पर पहली बार शरद नागर ने ही हिन्दी रंगमंच दिवस की घोषणा 3 अप्रैल को की थी। तभी से हर साल ये दिवस मनाया जा रहा हैं। इस नाटक में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी भूमिका निभाई थी।

   तब से लेकर आज तक इस दिवस पर सिर्फ नाटकों का ही मंचन नहीं होता आया हैं बल्कि विभिन्न संगीतमय एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं। इसके लिए विशेष तैयारियां की जाती हैं। जिसके लिए कलाकार घंटों रिहर्सल में डूबा रहता हैं…निर्देशक नाटक प्रस्तुति को बेहतर बनाने में जी जान से लगता हैं।  


    ऐसे में आज रंगमंच के बदलते स्वरुप को सहजता से कैसे स्वीकार किया जाए। जिसमें दर्शक नहीं…सीधा संवाद नहीं…तालियों की गड़गड़ाहट नहीं…। सिर्फ लाइक…शेयर…कमेंट..सब्सक्राइब और व्यूज़ के बटन ही शेष हैं…। 

    तकनीकी रुप से भले ही डिजिटल थिएटर संभव हो…जिसे आयोजकों ने कर भी दिखाया हैं। लेकिन बुनियादी स्वरुप पर ऐसे ऑनलाइन प्रोडक्शन होने से रंगमंच की मूल आत्मा मर रही हैं…जहां ‘मंच—अभिनेता और दर्शक’ नहीं वो रंगमंच नहीं हो सकता…।  

  ‘हिन्दी रंगमंच’ को अपनी ज़मीं…अपने दर्शक और अपनेपन की खुशबू चाहिए…। 

‘ऑनलाइन प्रोडक्शन’ थिएटर की ‘हत्या’…

‘टू मिनट नूडल्स’ नहीं हैं ‘नाटक’…

‘रंगमंच’ की जान ‘गिव एंड टेक’…

‘नाटक’ को चाहिए ‘बाज़ार’…

जी ‘हुजूरी’ का रंगमंच…

 

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टीना शर्मा ‘माधवी’

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