कहानियाँस्लाइडर कचोरी का टुकड़ा by Teena Sharma Madhvi July 17, 2020 written by Teena Sharma Madhvi July 17, 2020 धुंधली तस्वीर नानी तुम बताओ ना आख़िर नाना कचोरी का टुकड़ा ही क्यूं लेकर आते हैं..? क्या तुम्हें पूरी कचोरी खाना पसंद नहीं है..? ये सुन नानी जोर से हंस पड़ी…फिर तो इस प्रश्न ने नानी को खूब हंसाया …। ताड़ियों संग घुमते पहिए…चमचमाती घंटी की ‘ट्रिंग…ट्रिंग’…और ‘हैंडल’ पर लटकती हुई कपड़े की ‘थैली’..। जिसके भीतर तेल से सनी हुई एक ‘कागज़ की पुड़की’ बस सवार हुए चली आ रही हैं। जिसकी मंज़िल है ‘खेतों की मुंडेर’…। दूर से नज़र आ रही ये धुंधली तस्वीर धीरे—धीरे पास आई…तो कानों में आवाज़ पड़ी ”जा दौड़, मैं पीछे आया”…। फिर बूढ़े हाथों ने वो ‘पुड़की’ थमा दी…। जो छूटकर ज़मीन पर जा गिरी…। तभी चौंकते हुए ‘गीता’ की आंख खुल गई..। उसने अपने चारों ओर नज़रें घुमाई, देखा तो सामने वो तस्वीर न थी…और ना ही वो आवाज़…। पर गीता के दिल में इस आवाज़ ने बरसों बाद दस्तक ज़रुर दे दी…। उसने खुली आंखों से उस तस्वीर को साकार रुप में महसूस किया, मानों अभी—अभी की ही बात हैं…। नाना अपनी ‘साइकिल’ पर सवार हुए चले आ रहे हैं और पास आकर गीता के हाथों में वो कागज़ की ‘पुड़की’ देकर कह रहे हैं ”जा दौड़, मैं पीछे आया”….। कचोरी का टुकड़ा और गीता दौड़ पड़ी कुएं की मुंडेर की ओर..। जहां गुलाबी ‘ओढ़नी’ ओढ़े हुए नानी बैठी हुई हैं। जिसकी नज़रें भी मुंडेर पर ही टिकी हुई हैं। गीता की हांफती सांसे देख नानी बोली, अरे! अरे! ज़रा ढब तो…। यूं सरपट दौड़ी चली आ रही हैं, कहीं ‘रिपस’ जाती तो…? ओह! मेरी प्यारी नानी, मैं कैसे फिसल जाती भला, मुझे संभालने को तुम जो यहां बैठी हो..। ये लो अपनी ‘पुड़की’…और ये कहकर गीता नानी से लिपट गई…। पीछे—पीछे नाना भी चले आए…। साइकिल को मेढ़ के सहारे टिकाया और हैंडल पर लटकी कपड़े की थैली को उतारकर ले आए…और गीता के पास ही आकर बैठ गए। वे हंसते हुए बोले, अरे.. ‘पुड़की’ नहीं खोली अभी तक..। नानी धीमें से मुस्कुराई और कागज़ की ‘पुड़की’ खोल ली…। पुड़की में एक ‘कचोरी का आधा टुकड़ा’ हैं, जो लगभग दो ‘कोर’ भर जितना ही हैं…। गीता की नज़रें ‘कचोरी’ के आधे टुकड़े पर टिक गई…। उसे लगा आज तो पक्का ही पूरी कचोरी होगी…। पर उसका अनुमान आधा टुकड़ा देख एक बार फिर से ग़लत हो गया…। पर आज उससे रहा नहीं गया…। तो पूछ बैठी, नाना आप रोज़ाना ही ये पुड़की लाते हो पर इसके भीतर कचोरी का आधा ही टुकड़ा क्यूं होता हैं…? आप पूरी कचोरी क्यूं नहीं लेकर आते हैं…? गीता के प्रश्न पर ‘नाना—नानी’ हंस पड़े…। वे दोनों ही ये जानते थे कि गीता की जिज्ञासा इसलिए नहीं हैं कि उसे पूरी कचोरी खाने की इच्छा है बल्कि, उसकी जिज्ञासा ये जानने में अधिक हैं आख़िर आधा टुकड़ा ही क्यूं लाते हैं…? पूरा क्यूं नहीं…? गीता को अपने प्रश्न का उत्तर मिलता तब तक उसने कपड़े की थैली उठाई और उसमें से नमकीन निकालकर खाने लगी…। और फिर उसी प्रश्न पर लौट आई, नानी को झंकझौरते हुए बोली, नानी तुम बताओ ना आख़िर नाना कचोरी का टुकड़ा ही क्यूं लेकर आते हैं..? क्या तुम्हें पूरी कचोरी खाना पसंद नहीं है..? ये सुन नानी जोर से हंस पड़ी…फिर तो इस प्रश्न ने नानी को खूब हंसाया …। गीता कहती जाती नानी अब हंसना बंद भी करो…। बताओ ना पूरी कचोरी क्यूं नहीं खाती हो…? हंसते—हंसते नानी की आंखों से आंसू निकल पड़े। उसने अपनी लुगड़ी से आसूं पोंछें और कहने लगी, तेरे ‘नानो बा’ कचोरी का आधा टुकड़ा बाज़ार में ही खा लेते हैं और जो बच जाता हैं वो मुझे लाकर दे देते हैं…। बस इत्ती सी ही बात हैं…। गीता नानी के इस उत्तर से संतुष्ट न हुई। भला ये क्या बात हुई। वो पूरी कचोरी बाज़ार में ही क्यूं नहीं खा लेते…? और फिर तुम्हारें लिए दूसरी कचोरी क्यूं नहीं ले आते…? यूं आधा टुकड़ा बचाकर लाने की क्या ज़रुरत है…? नानी बोली, ये तो तू अपने नाना से ही पूछ…। गीता अपने नाना से पूछने लगी। नाना आज तो मुझे ये जानना ही है, आप रोज़ाना कचोरी का आधा टुकड़ा ही क्यूं लाते हो…? ‘नाना’ पहले तो मुस्कुराए फिर गीता के सिर पर हाथ रखते हुए बोले, मेरी बच्ची सच तो ये है कि मुझे कचोरी खाना बेहद पसंद हैं लेकिन मेरे दांत कमज़ोर हो गए है ना…। तब पूरी कचोरी मुझसे ठीक से चब नहीं पाती हैं…। इसीलिए जो आधा टुकड़ा बच जाता हैं उसे तेरी नानी के लिए बचा लाता हूं..। ‘नाना’ के इस गोलमोल उत्तर ने इस वक्त तो गीता की जिज्ञासा को शांत कर दिया पर सालों बाद मिलें इसके असल उत्तर पर आज भी गीता की आंखें नम हो जाती हैं…। उस दिन नाना की तबीयत अचानक से बिगड़ गई थी…। उन्हें अस्पताल ले जाया गया। कुछ दिन वे अस्पताल में रहे जहां पर नानी ने उनकी खूब सेवा की..। जब नाना कुछ ठीक होने लगे तो उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई। कुछ दिन आराम करने के बाद ‘नाना’ फिर अपनी साइकिल पर सवार होकर बाज़ार की ओर निकल पड़े। नानी ने उन्हें ख़ूब रोका पर वे नहीं मानें। नानी के चेहरे पर उनकी तबीयत को लेकर चिंता साफ़ दिख रही थी। उसकी नज़रें दरवाज़े पर ही टिकी रही, जब तक की नाना घर लौट नहीं आए…। जब नाना बाज़ार से लौटे तो अचानक से लड़खड़ाते हुए ज़मीन पर गिर पड़े…। उन्हें संभालने के लिए नानी दौड़ी और उन्हें उठाने की कोशिश की, पर नाना उठ नहीं पाए…। नानी ने उनके सिर को अपनी गोद में रखा और बुढ़ी हथेलियां उनके माथे पर फेरने लगी…। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे…वो प्रार्थनाएं करने लगी…। पर नाना कुछ न बोले….बस वे एकटक नानी को देखते रहे…और उसी की गोद में दम तोड़ दिया…। पीछे रह गई नानी और वो ‘कचोरी का आधा टुकड़ा’…। जो ‘नाना’ की मुट्टी में अब भी ‘पुड़की’ में बंधा हुआ था…। नानी समझ गई, जाते—जाते भी नाना उसके लिए ‘प्यार का टुकड़ा’ छोड़ गए हैं…। वो नाना से लिपटकर खूब रोई…। इसी क्षण ‘गीता’ को अपने प्रश्न का सही उत्तर भी मिल गया…। वो समझ गई ये सिर्फ ‘कचोरी का टुकड़ा‘ ही नहीं था बल्कि ‘नाना’ का प्यार था, जिसे वे नानी के लिए हर रोज़ ‘पुड़की’ में बांधकर ले आते थे…। कुछ और कहानियां – ‘पिता’ को बलिदान का तोहफा…. ‘मां’ की भावनाओं का ‘टोटल इन्वेस्टमेंट‘ लॉकडाउन में जीवन की ‘कोलाहल’ लॉकडाउन में रिश्तों की ‘एंट्री’ प्रिय पाठको, आपको ये कहानी कैसी लगी। इस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य लिखकर भेजें। आपकी प्रतिक्रिया बेहद अमूल्य हैं, जो हमें आप तक बेहतर रचनाएं पहुंचाने हेतु प्रेरित करती हैं…। धन्यवाद टीना शर्मा ‘माधवी’ kachorinanananiकचोरीकचोरी का टुकड़ा 5 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post संक्रमण काल की ‘वॉरियर’ next post ‘अर्थी’ का बोझ ही शेष…. 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