गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती

कविता

by teenasharma
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती

गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती,
तो स्त्रियों सी जुबां पर तहजीब होती,
जुबां की बंदिशों पर समाज बन बैठता प्रहरी।
न छिड़ती स्वर लहरी, न लगती कोर्ट कचहरी,
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती…।।  ‘कहानी का कोना’ में ​पढ़िए रचनाकार वैदेही वैष्णव की लिखी कविता ‘गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती’…..।

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गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती

वो बरसों से चुप थी,
सहनशक्ति का मूर्त स्वरूप थी।
वो खामोश सी एक नदी थी,
जो सदियों से अविरल बह रही थी। 

गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती,
तो स्त्रियों सी जुबां पर तहजीब होती,
जुबां की बंदिशों पर समाज बन बैठता प्रहरी।
न छिड़ती स्वर लहरी, न लगती कोर्ट कचहरी,
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती…।।

बोलने के हक पर जुबां फिर दिन-रात रोती,
फिर न चलने पाती, शायद पंगु ही हो जाती।
या कर दी जाती घायल, फिर हमेशा ही लड़खड़ाती,
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती…।।

 गर लफ्जों की दहलीज होती

वैदेही वैष्णव

मुहावरे होते, ना कोई कहावत होती,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खोखली ही रहती।
जुबां गर खामोश हो जाती, फिर मौन की धारणा सार्थक हो जाती,
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती…।।

सुलगते अरमानों पर फिर शान्ति छा जाती,
न होता झूठ का बोलबाला, न होता गड़बड़ झाला।
न करता कोई वाद, न होते फिर विवाद,
गर लफ़्ज़ों की दहलीज होती…।।

क्या कहूं कि लफ़्ज़ों की दहलीज की कहानी,
दुनियां में मौजूद है लफ़्ज़ों की कई निशानी।
कभी शूल तो कभी लफ़्ज़ मरहम बन जाते हैं,
शायद इसलिए ही लफ़्ज़ों की दहलीज नहीं होती।।

 

वैदेही वैष्णव

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