‘सित्या’ का डर…

by Teena Sharma Madhvi

        फटी हुई मोजड़ी..फटा कुर्ता और चिन्दी हाल पगड़ी पहने हुए पत्थर की सड़कों पर लाठी मारते हुए जब वो गांव की गलियों से गुज़रता था तो अजीब सा डर लगता था। मानो वह सिर्फ डराने को ही निकला हो। 

   जब भी वह सामने आ जाता तो उसे देखकर आवाज़ बंद हो जाती..डक्की सी बंध जाती। वह जोर—जोर से हंसता रहता और अपने कांधे से फटी हुई पोटली को उतारकर उसमें कुछ डालने का इशारा करता। ये दृश्य किसी हॉरर मूवी से कम न था।  


   ये दृश्य सुधा के जीवन में आज भी गहराई के साथ जुड़ा हुआ हैं। आज भरे बाज़ार में ‘सित्या’ कहकर किसी ने आवाज़ लगाई। बरसो बाद ये नाम सुधा के कानों में पड़ा था। सुधा ने फौरन पीछे पलटकर देखा तो सित्या एक बच्चा था और उसे आवाज़ लगाने वाला उसका कोई जानकार। 

    सुधा ने राहत की सांस ली और खरीदारी करके अपने घर चली आई। लेकिन ‘सित्या’ और ​उसका ख़्याल पूरे रास्ते भर उसके साथ चला। घर आते ही उसने एक ग्लास पानी पिया और अपने अहाते में आकर बैठ गई। और सोचने  लगी अतीत के उन पलों को जिसमें सित्या का डर था। 

   सुधा को याद आता हैं अपना वो बचपन जिसमें उसकी सहेलियां दुर्गा, गायत्री और ज्योति उसके साथ गांव में लगे एक हैंडपंप से मटकी में पानी भरकर कच्ची सड़क से गुज़र रही है। 

   गांव की गलियों में कहीं कच्ची सड़क हैं तो कहीं मोटे पत्थरोें की सड़क। लेकिन मटकी सर पर लाते हुए सुधा और उसकी सहेलियां कच्ची सड़क से ही आती—जाती थी। इसी कच्ची सड़क पर कुछ पक्के मकानों के बीच घास फूस से ढका हुआ एक खाली सा बरामदा था। यहीं पर सित्या रहा करता था। 

   तीनों ओर से खुला हुआ ये बरामदा असल में सित्या की पूरी दुनिया था। जिसमें कुछ फटे पुराने और गंदे से कपड़े थे और गांव से मांगकर लाया हुआ कुछ सामान, पानी की एक मटकी और ​फटे से बिस्तर पड़े हुए थे। 

   वैसे देखा जाए तो सित्या रात को यहां अकेला नहीं सोता था। गांव गली के एक—दो कुत्ते भी उसके साथ यहीं सो जाया करते थे। गांव वाले कहते थे कि सित्या के अकेलेपन के साथी ये कुत्ते ही थे। जिनके साथ वह रातभर अपना सुख—दु:ख साझा किया करता था। दिनभर वह गांव वालों से मांगकर जो भी खानें की चीज़े लेकर आता था रात को वह इन कुत्तों के साथ बांटकर ही खाता था। 

    सित्या का अपना कोई न था वह दिनभर मारा—मारा गांव में फिरता रहता था। गांव वालों के लिए वह एक पागल ही था। इसीलिए गांव वाले ही उसे कभी खाना तो कभी कपड़े और ज़रुरी सामान भी दे दिया करते थे। 

    वैसे तो सित्या की उम्र लगभग पचास  साल के आसपास थी लेकिन उसके हाव—भाव से उसकी ये उम्र नहीं झलकती थी। शायद इसीलिए पूरा गांव ही उसे सित्या कहकर बुलाता था। वह किसी से ज़्यादा बातें नहीं करता था। लेकिन हर बात पर जोर—जोर से हंसता रहता था। 

   गांव के बच्चे कभी—कभी उसके पीछे पत्थर लेकर भागते थे तो कभी उसकी पोटली छिनने की कोशिश करते। इतना ही नहीं गांव के कुछ शरारती बच्चे तो कई बार उसकी पगड़ी तक उतारकर फेंक देते…। जब सित्या का मन अच्छा होता तो वह हंसता जाता और बच्चों को भगा देता। लेकिन कभी—कभी वह बिगड़ भी जाता था। तब जोरों से चिल्लाने लगता था। और फिर थोड़ी ही देर में अपनी पगड़ी को सीने से लगाकर फुट—फुटकर रोता। मानो कोई बड़ा घाव उसके दिल में लगा हो। 

    ऐसे ही एक दिन जेठ महीने की भरी दोपहरी थी। घर में पानी ख़त्म हो गया था। सुधा ने दुर्गा से कहा कि वो उसके साथ हैंडपंप तक पानी लेने चले, लेकिन दुर्गा ने ये कहते हुए उसे मना कर दिया कि घर में अभी बहुत काम हैं। सुधा मटकी लिए हुए अकेली ही पानी भरने के लिए चल दी। 

    तेज गर्मी के बीच सुधा के माथे से पसीना टपक रहा था। वह पसीना पोंछती जाती और आगे बढ़ती जाती। दूर—दूर तक कोई न था। सड़क एकदम सुनसान थी..बुरी तरह से सन्नाटा पसरा हुआ था। सुधा को अपनी सहेलियों के बगैर हैंडपंप तक आना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन मजबूरी में आज उसे अकेले ही आना पड़ा। जब सुधा पानी भरकर मटकी सर पर लिए हुए घर की ओर लौट रही थी तभी रास्ते में उसके सामने ‘सित्या’ आ खड़ा हुआ।  

       सित्या को अचानक सामने देखकर सुधा बुरी तरह से घबरा गई। आज तो सित्या भी बहुत गुस्से में था। गांव में आज किसी से उसका झगड़ा हो गया था। उसके माथे पर चोट के निशान थे..हल्का खून भी बह रहा था…। उसके सर पर पगड़ी अस्त—व्यस्त हो रही थी। एक पैर से मोजड़ी भी ग़ायब थी। 

   सुधा को सामने पाकर वह बुरी तरह से चिल्लानें लगा। उसे आंखें दिखाने लगा…और कहने लगा ‘मैं पागल नहीं हूं’…’मैं पागल नहीं ​हूं…’ ऐसा लग रहा था मानों वो आज पूरे गांव के बुरे बर्ताव का बदला सुधा से ही लेगा। सित्या का ये रुप देखकर सुधा बहुत बुरी तरह से डर गई और रोने लगी। अभी सुधा की उम्र इतनी नहीं थी कि वह खुद को संभाल सके। उसे इस वक़्त अपने घर वालों की याद आने लगी और वह जोरों से चिल्लानें लगी।  

 बचाओ…बचाओ…। उसकी इस बात पर सित्या और ज़्यादा भड़क गया। वह और ज़्यादा गुस्सा करने लगा। 

  सित्या उसे कुछ समझाने की कोशिश करता हैं लेकिन सुधा का बालमन सित्या की इस हरकत से बेहद डर गया। वह कुछ भी सुनने और समझने की हालत में न थी। उसकी सांसे ऊपर—नीचे होने लगी तभी उसने हिम्मत भरते हुए सर से मटकी फेंकी और सित्या को जोर से धक्का मारकर दौड़ पड़ी। और घर आकर ही सांस ली। घर वालोें को उसने पूरी व्यथा सुनाई। इस घटना से वह इतनी डर गई कि कई दिनों तक बाहर नहीं निकली। सित्या का डर हमेशा के लिए उसके ज़ेहन में बैठ गया।  

     ऐसा नहीं कि इस दिन की घटना के बाद सित्या कभी उसके सामने नहीं आया। कई बार ऐसे मौके भी आए जब सित्या उसके सामने अपनी पोटली फैलाकर खाना मांगने ​के लिए खड़ा हुआ…और उससे उस दिन के लिए माफी भी मांगी…। 

   लेकिन सुधा उसे देखते ही भाग जाती। कई बार वह आते—जाते वक़्त रास्ते में भी नज़र आया लेकिन उस दिन के बाद से सुधा कभी—भी अकेले उस रास्ते से नहीं गुज़री और ना ही उसने उसकी पोटली में खाना डाला। सित्या कहता रहता कि बेटी सुधा सुन तो ज़रा…मैं तुझे डराने या मारने नहीं आया था…। लेकिन सुधा उसकी कोई भी बात नहीं सुनती। घर वाले भी उसे समझाने की कोशिश करते फिर भी वह सित्या की ओर नहीं देखती। 

  धीरे—धीरे वक़्त बीत रहा था। सुधा का बचपन  सित्या के डर के साथ ही बड़ा होने लगा। और फिर एक दिन ‘सित्या’ भी मर गया..। गांव वालों ने ही उसका अंतिम संस्कार किया। सुधा को लगा कि अब सित्या कभी भी उसे नहीं डराएगा। उसका डर सित्या के मरने के साथ ही ख़त्म होने लगा। 

   ​ कुछ सालों बाद जब यूं ही सित्या की बात निकली तो सुधा के दादा ने बताया कि सित्या बेहद पढ़ा—लिखा और संपन्न व्यक्ति था। एक हादसे में उसने अपने पूरे परिवार को खो दिया था। अपनों को खो देने का सदमा वह बर्दाश्त नहीं कर पाया। इसके बाद उसका कोई दूर का रिश्तेदार उसे अपने साथ इस गांव में ले आया था। लेकिन उस रिश्तेदार के गुज़र जाने के बाद ही से सित्या गांव में यूं बेसुध और फटेहाल जीवन जी रहा था। भला आदमी था बेचारा…। 

   ये सुनकर सुधा की आंखें फटी की फटी रह गई। दिल पर से  काबू खो गया और वह जोरों से रोने लगी। उसके आंसू ज़मीन पर गिर रहे थे…। वह सित्या को याद करने लगी। उसे आज और इसी वक़्त ये अहसास भी हो गया कि  सित्या वाकई उस दिन सच कह रहा था। ‘मैं पागल नहीं हूं’..। वह तो अपना दर्द मुझसे बांटना चाहता था। जिसे उसने डर के रुप में ले लिया था।  

    भले ही आज ‘सित्या’ नहीं रहा लेकिन सुधा के दिल के कोने में कहीं न कहीं अब भी ‘सित्या’ ज़िंदा हैं। सुधा को आज इस बात की भी तसल्ली हैं कि वह पागल नहीं था…। वह सिर्फ हालातों का मारा था…। आज भी घास फूस का ये बरामदा यूं ही खाली पड़ा हैं…। और उसके सुख—दु:ख के साथी गांव के कुत्ते अब भी यहीं सोया करते हैं। 

          

             टीना शर्मा ‘माधवी’

 


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टीना शर्मा ‘माधवी’

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