चाबी

by teenasharma
'चाबी'

‘कहानी का कोना’ में आज पढ़िए लेखक ‘डॉ.रूपा सिंह’ की लिखी कहानी
‘चाबी’..। डॉ.रुपा की कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनकी लिखी कविताएं, कहानियां और विशेषकर आलोचनाएं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। प्रतिष्ठित ‘डॉ.सीताराम दीन स्मृति आलोचना सम्मान’ समेत इन्हें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया हैं।

चाबी

ढोलक पर पड़ती थापों की आवाज दूर से ही कानों को उकसा रही थी। मंगल गीतों की आवाज ने हमें उत्साह से भर दिया। सजे धजे शामियाने, खाते-पीते मेहमान, बच्चों के कलरव, आम के पल्लव और गेंदा फूल की लड़ियों से सजा आंगन द्वार दिखने लगा था। जैसे ही हम अंदर पहुंचे, सजी धजी गोल गदराई बहन झटके से उठकर हमसे लिपटने को हुई कि सबने उसे थाम लिया- “अरे, अरे संभलकर ऐसी हालत में ऐसे झटके नहीं खाते।

अब सब्र से उठा बैठा कर बन्नो।” मैं दौड़कर अपनी बहन से लिपट गई। बहन का यह सातवां महीना चल रहा था। उसकी गोदभराई के उत्सव में शामिल होने अलवर से आगरा आये थे हम। बेबे, भाई, भरजाई, नन्हा बिल्लू और मैं। कल सब लौट जाएंगे। लेकिन बेबे ने मुझसे कहा- अभी दो तीन महीने मैं बहन के पास ठहर लूं। जीजा मेरा भरतपुर नौकरी करता है, और घर में उसकी बूढ़ी सास अकेली हैं।

'चाबी'

                   डॉ.रूपा सिंह

मैं खुशी-खुशी तैयार थी। जैसे मेरे भाई भरजाई के घर नन्हा बिल्लू आया था और मेरा सुन्न-सन्नाटा घर किलकारियाँ मार हंस पड़ा था, अब बहन के घर वैसी ही खुशियाँ उतरने वाली थीं। कितने मनमोहक होते हैं जिंद-जहान के ये व्यापार! बड़े चाव से मैं ऊन की लच्छियाँ, सलाई के कांटे, झबलों के लिये कटपीस, कैंची, सूई, धागों के साथ अपनी किताब, कॉपियाँ समेट लाई थी। सत्तर के दशक में ग्यारहवी ही मैट्रिक थी और मेरी परीक्षा में चार पाँच महीने अभी रहते थे।

आठवीं की परीक्षा के समय भरजाई की जचगी और बिल्लू का होना मुझे खूब याद है। पूरा घर नन्हेें जुराबों, स्वेटरों, तेल-जायफल की सोंधी महक और दूध की कच्ची मुस्कान से विहंसता रहता और वह घुंघराले काले बालों वाला चांद का टुकड़ा अपनी सफेद नीली आँखों से मुझे तकता रहता।

कई बार उसके हाथ-पैर हिलाकर देखती यह प्लास्टिक का गुड्डा है या सचमुच का जीता जागता जीव, तो चुनमुना के खिल उठता वह। मेरे तो जिगर का टोटा हो गया था मेरा बिल्लू। दिन रात मैं उसके आगे पीछे फुदकती। जब बेबे जायफल सिंके तेल से उसकी सू-सू करने वाली छुन्नी को हौले दबा कर मालिश करती, वह पाजी अजीब-अजीब मुँह बनाता। खूब आनंदित होता। लेकिन जब उसके नन्हें हाथ पैरो को लपेट ऊपर उठा पीठ पर धौल जमाती तो चिंघाडे़ मार कर रोता।

मेरी जान निकल जाती। बेबे छोड़ दे उसे। मर जायेगा वो। मैं फर्श पर लोट पोट हो रोती। सब हंसते। बेबे कहती, मालिश करने से बच्चों की हड्डियां मजबूत होती हैं। फिर बिल्लू बाबू नहा धोकर खुशबूदार पाउडर से गम-गम गमकते भरजाई की गोद में जब तक चुस्स-चुस्स दूध पीते हुए गहरी नींद सो न जातेे, मैं वहीं मंडराती रहती।

अब मेरी बहन के अंगने में वैसा ही चांद उतरने वाला था और मैं बहुत खुश लंबी परांदी लटकाये, गोल्डेन झुमके झुलाती, नवा फिराजी सूट, फिरोजी चूड़ियों से हाथ भरे अपनी बेबे, भाइर्, भरजाई और नन्हें बिल्लू के साथ बहन के घर उसकी गोद- भराई मेें आयी थी। हमारे पहुँचते ही पूरे घर में खुशी की चमकार मच गई- ‘नूं के पेके वाले आ गयेेण। अलवर वाले आ गयेण।’

और, बहन जैसे ही झटके से गले मिलने उठी कि उसे वही रोक दिया गया- “ना, ना बन्नो! सब्र कर! ऐसे झटकों से अभी न उठ बैठ। बेबे और भाई साथ लाये फल, मिठाइयाँ, मेवों के टोकड़े उतरवाने में लगे। इघर स्त्रियोें ने स्वागत में गीत गाने शुरू कर दिये-
“अलवर वाले पेके जीवेण, जीवेण पियू ते भ्ररां
खट्टन वाला पियू जीवे, भागां वाला भ्ररां”

बेबे ने हालांकि खूब हाथ, पैर जोड़े कि हम रोटी-पानी खा पी के चले हैं। अलवर से आगरा है ही कितनी दूर? फिर बेटी के घर पानी पीना- ना, ना! लेकिन बहन की सास ने बात मानी ना ही उनके सिदकों वाले तंदरूस्त जोरावर पुत्तर ने। रज्ज-रज्ज कर स्वागत किया। ना-ना करते भी खूब खिला पिला दिया।

खा-पीकर बेबे और सलोनी भरजाई आंगन में  बिछी दरी पर गाती स्त्रियों के पास आ बैठीं। मैं बहन के दुपट्टे को उगलियों से मरोड़ देती उसके पास सट कर बैठी। सलोनी भरजाई ने अपना लाल घुंघटा तनिक सरकाया, वहां बैठी स्त्रियों को आँखों से अदब दिया। सरकते पल्लू को कानों के पीछे सख्ती से ऐसे ओट दिया कि कान में पहने झुमके तमतमा आये।

झट से ढोलकी दबा ली जांघों तले और पुरानी दिल्ली के मशहूर घंटाघर की हलवाइयों की इस बेटी ने जो रौनक मचाई जैसे प्रतियोगिता की आग लहकाती हो-
“आओ सामने आओ सामने, कोलो दी रुस के न लंघ माहिया……”
ग् ग् ग्
“अज्ज मथुरा दे विच अवतार हो गया वे श्याम निक्का जीयां………..”
न केवल चेहरे से, न जिस्म से, न हरकतों से बल्कि गले से भी रसमलाई और जबान से शकरपारे की मिठास घोलती भरजाई ने जब वहां अपने गीतों की छेड़ी बहारें, एक के बाद एक शुरू हुए उनकी पछाड़े। लोग देखते रह गये। एक गीत पूरा हो नहीं कि दूसरा शुरू हो जाये-
“खेल तू कित्ते न्यारे-न्यारेे तां तैनू काला कैहंदे ने
काली कोठड़ी विच जमिया, काली कंबली विच तू फड़िया
काले जमुना दे विच तरिया, तां तैनू काला कैंहदे ने….।”

मैं बहन के आंचल में दबी छुपी उनके हाथों में मेंहदी की खुश्बू और चेहरे के ताजे खिले गुलाबों के साथ, साथ बैठी स्त्रियों को भी निरख रही थी। हंसी ठहाके, ठिठोली और बधाइयों के शोर में मैंने देखा तमाम स्त्रियों के बीच 18-19 वर्ष का एक युवक भी वहां बैठा है।

दिखने में खूब गोरा, पतला जबड़ा चेेहरा, तरूणाई की चमक ताजी घनी दाढ़ी मूंछों के बीच ललछौंही मुस्कुराहट, काली चमकीली पलकों वाली बरौनी और उससे झांकते कंचों जैसी आँखों की नुकीली ताब। लंबे चौड़े आंगन में स्त्रियों के बेशर्मी वाले टहोके, रतजगे के दुलार, मनुहार, सताना, फसाना- सब ध्यान से सुनता कभी वह किलकारी मारकर हंसता तो कभी दोनों हाथ हवा में लहराकर चुटकियां बजाता।

बहन की सास, जिन्हें सब प्यार से ‘चाईजी’ कहते महल्ले की अपनी गूढ़ी सहेली ‘ भग्गी मासी’ के साथ बड़े पीतल के थाल में शगुन केे लड्डू और शकरपारों से भरे लिफाफे बांटती जा रही थीं।

सारा समां मानो नवजात की मीठी कल्पनाओं से मह-मह मह महा रहा था। मेरी सलोनी भरजाई पर तो सब मोेहित हो रहे थे लेकिन अब स्त्रियां प्रतियोगी भाव से भरकर एक दूसरे को कोहनियों से टहोका लगाने लगीं- ‘मायके वालों ने तो महफिल लूट ली।’

स्त्रियों में कुछ खुसर-पुसर चली और जिसे बर्दाश्त न हुआ, वह एक गठे हुये बदन की अधेड़ स्त्री थी। उसके गोरे रंग में चुटकी भर हल्दई पीला मिला था। गहरी लिप्सटिक और उन्नाबी सलवार कुरते पर बेपरवाही से गले में डली जालीदार चुन्नी थी। अपनी आधी देह को कुलांचो वाला झटका देकर एक बारगी ढोलकी को ऐसा अपनी तरफ खींचा कि लंबे घने केशपाश खुलकर बिखर गये।

उन्हें फिर से जूड़े में लपेटते उनके होंठों और आंखों में तिर्यक मुस्कान आ गई। जब्बर जांघों के बीच ढोलकी को खींच कर दबाते जो उसने थाप देनी शुरू की, माहौल चम्मचों की खड़कार की नयी रौनक से खिसखिला उठा-

“ओ लाढ़ा नी वेखो लाढ़ा
चढ़ बैल ते आया, चढ़ बैल ते आया,
नारद मुनि विचोला बनके डाढ़ा जुलुम कमाया
जय हो!
भूतियां दे नाल साडा रिश्ता आन कराया
जय हो!
गो लाढ़ा, नी वेखो लाढ़ा………चढ़ बैल ते आया…….”

दुल्हन के रिश्तेदार और विशेषकर सलोनी भरजाई पर कटाक्ष करके सब हंसी से लोटपोट हुई जा रही थीं। मैंने भरजाई की तरफ देखा, जिनका मुंह तनिक छोटा हो आया था कि अचानक हंगामा मच गया। देखते देखते वह गोरा चिट्टा युवक पीछे की ओर पलट गया था। दोनों पैर अकड़ गये थे। अपने हाथों को फैलाकर ‘क्वेक-क्वेक’ की अजीब ध्वनि निकालने लगा।

अफरा-तफरी मच गई। उसे जल्दी से सीधा किया गया। हाथ पैर ही नहीं, मानों आंखे भी अकड़ी हुईं। वैसी ही अपलक सलोनी भरजाई के चेहरे से चिपकी हुई। मन तो किया, नोंच फेकूं इन आंखों को। गोल्डी-गोल्डी! उठ-उठ ! पुकार मच गई। कुछ औरतें उसके हाथ पैरों को सीधा करने में जुटीं। बहन की सास और मेरी परजाई ने हौले से बहन को समेटा और अंदर ले आयीं।

मैं अवाक् बैठी उस स्त्री को देखती रही। उसके लंबे बाल फिर जूड़े से ढलक कर सर्प की कुंडली की तरह कंधों तक आ गये थे। उसकी जालीदार चुन्नी का कोना गोल्डी की मुट्ठी में दबा जा रहा था। उनका गला उससे कसा एक तरफ को खिंच रहा था। उनकी आंखों से दर्द पानी बनकर बह रहा था। कसती जाती चुन्नी को उसकी मजबूत मुट्ठी से छुड़ाते उनका शांत स्वर किसी को पुकार रहा था- मदन! मदन को बुलाओ।

मदन ही संभालेगा इसे। मानो सारी है। स्थितियां उनकी खूब-खूब पहचानी हुई हैं और सारी जटिलताओं का जवाब ईजाद कर रखा देखते-देखते लोगों की पुकार पर सोलह-सत्तह वर्षीय हाफ-पैंट, काली टी-शर्ट पहना, सांवला, घुंघराले बालों वाला लड़का वहां आ पहुँचा। उसका मासूम चेहरा शर्मिन्दगी के भाव से भरा था।

उस बेचारे ने ‘गोल्डी’ को झिझोड़ा और बोला- ‘गोल्डी’, चल-चल। उठ जा। उसके हाथों का स्पर्श पाकर ‘गोल्डी’ जरा स्वस्थ हो आया। उसके मुंह से सनी थूक भरी लार को स्त्री ने अपनी चुन्नी से पोंछ डाला और मदन से कहा- ‘ले जा इसे। घर ले जा। नहीं माने तो चाबी लगा देना।”

‘अब इसका भी ब्याह रचा डाल कमलेश, नहीं तो औक्खा पड़ जायेगा तेरे को किसी दिन।’ गोल्डी की नीयत भांप, भग्गी मासी ने सलाह का टहोका मारा। आंखों को उसी चुन्नी से साफ करते उस स्त्री ने जवाब दिया- ”कौन करे उसके साथ फेरे! कौन साथ निभाये? मैं होती नहीं सारे-सारे दिन मासी, कोई नूं बनके आये और सारा माल पत्ता बटोर निकल जाये, स्यापा फिर अलग पुलिस चौकियां दा………।’ बोलती कराहती उसने अपनी ढोलकी पकड़ी और अपने रागों पर ऐसे केन्द्रित हो गई मानो कोेई बात न हुई है और न ही हो सकेगी अब कोई बात।

आगरा की जिस गली में बहन का घर था, वह शहर के मशहूर पंसारी बाजार के ठीक पीछे था। विभाजन के बाद आये शरणार्थियों ने अपने दम-खम पर गुब्बारे बेचकर, कचौड़ियां, जलेबियां बनाकर, छोटे-छोटे ताजमहल रेहड़ियों पर लादे परिवहन और पर्यटन के लिये मशहूर आगरा में रियायती दरोें पर सरकार से जमीन प्राप्त कर अपने महल्ले बसाये।

इन सबके घर प्रायः एक जैसी डिजाइन के बने हुये थे। लंबे चौंड़े आंगन वाले घर, लंबे बरांडे और फिर लाइन से तीन कमरे। आंगन के एक सिरे पर होता महमहाता चौका-रसोई जो गरीबी के बावजूद लिपा पुता, बर्तन-भांडो के सुंदर रैक, सुथरे तेल, घी, मिर्च मसालों के डिब्बों से सजा होता।

आंगन के दूसरे सिरे पर होता प्रवेश-द्वार, जो बाहर गली में आने-जाने वालों के लिए खुलता। दरवाजे तो भले कभी बंद होते कभी खुलते लेकिन मन इतना खुल्ला-डुल्ला होता कि सांझे चूल्हे की तरह सबके दुख-सुख सबके मन में साथ पलते-पकते। कच्चे मन की तरह लकड़ी के पट्टों को जोड़कर बने दरवाजे होते, लरजती धड़कनों की तरह उसमें लगी लोहे की सांकल होती। कोने में बाथरूम होते।

बाहर आंगन में पानी के नल होते, जहां एक दो बाल्टियां मग पड़े होते। पतली एक मोरी होती और दूसरेे कोने में छत पर चढ़ने वाली सीढ़ियां होतीं। प्रायः सभी घर एक-मंजिल थे। प्रायः सभी के आंगन के गोल घेरे में तुलसी चौरे थे। बहन के घर तो अमरूद का एक पेड़ भी था जिसकी कटाई-छंटाई अभी जीजा ने कराई थी कि जनवरी-फरवरी के सियाले वाले दिनों में भी सूरज दमकता-सा आंगन में आता जाता रहे।

सियाले वाले ही इन दिनों में आगरा में पतंगबाजी का खूब दौर होता। मकर संक्रांति में लोग दिन-दिन भर पतंग उड़ाते और इधर इन गलियों में लोहड़ी बलती। रल-मिलकर सब लकड़ियाँ जलाते। अग्नि के फेरे लगा कर मक्का, गुड़, तिल, नये अनाज अर्पित करते, सुख-शांति की कामना करते और दूसरे दिन सुबह काका-पूणी खेलते। जिन घरों में नया ब्याह या बच्चा-जन्मता, लड़कियाँं कपास के टुकड़ों की उन पर वर्षा करतीं, गीत गातीं और खूब तिल-सामग्री, नगद और मान-सम्मान पातीं-

काका पूणी तेरी मां लटूणी, पियू टूणा
काकरे दी मां, दो चार फुल्लरे चुनवा…..चुन चुन झोलियां भरवा
काकरे दी मां जीवे, जीवे पियू ते भ्ररां
खट्टन आला पियू जीवे, भागां आला भ्रां….

इस बार भग्गी मासी की बहन रेवती के अर्द्वविक्षिप्त लड़के की शादी हुई थी। हम सब उनके घर नई ब्याही की काका-पूणी कर आये। यह दिन गप्पो वाला होता। सारे दिन गलियों में मंझियां बिछी होती, छतों पर लड़कों की पतंग-बाजी होती। उधर सभा बैठके, जहां सभी जलावतनी, अपने छूट गये वतन को याद करते। किसी की आंखों में आंसू होते तो कोई वहां बैठे-बैठे अपने बच्चोें की शादियां तय कर देता।

कोई अपने छूट गये अपनों को याद करता, कोई अपनों को ज़िंदा रखने लिए हाड़तोड़ मेहनत, के बाद भी भूखा सो जाता। यह सच है भरे-पूरे अपने घर, लहलहाते खेत, महमदाते वतन, सोने चांदी की झंकारों से दीप्त अपनी बहू बेटियों को खोकर आये इन लोगों ने अपने आँगन को फिर से बसाने के लिए बहुत मेहनत की थी। चाई जी ने बताया था, बगल के घर की कमलेश आँटी और मोहनसिंह भाई जी के संघर्ष का इतिहास भी कि, कैसे झोंपड़ी से शुरू हुआ मेहनत का सफर ढाबे से होता हुआ आज आगरा चौक के मशहूर ‘हनी केबिन’ में बदल चुका है।

हालांकि यह बताते हुए उनकी आँखं कई बार चिन्तनीय मुद्रा में सिकुड़ जाती थी, फिर अपने सिर को झटक कर वह भली स्त्री तब केवल इतना कहतीं कि अपनी मिट्टी से दूर होकर कईयों की मिट्टी कितनी पलीद हुई- इसका कोई हिसाब भी नहीं।

बाद में मैंने जाना कि यह वही कमलेश आंटी हैं। ‘गोल्डी’ की मां और वह उनका एकमात्र जीवित पुत्र है। कई बच्चे हुए। लोग बताते घर में दूघ की बूंद तक न होती बेचारी के। औरत दिन-रात मेहनत में हलकान होती। रेहड़ियों पर चाय बेचती और नासपीटा मोहनसिंह सारे पैसे छीनकर भाग जाता। दारू पी आता। बेचारी को कूटता, पीटता, सो अलग। फिर ईश्वर ने अरज सुनी होगी, ढाबा उसका अब आगरा का मशहूर होटल ‘हनी केबिन’ मेें परिवर्तित हुआ।

कमलेश आंटी ने शराबी मोहनसिंह के हाथों से ’हनी केबिन’ के सारे अधिकार अपने हाथों ले ली। कड़ी मेहनत का काम था यह। तभी तो पूरे मोहल्ले में केवल उनका घर ही नये डिजाइन का था और दोमंजिला भी। इस घर में कमलेश आंटी, मोहनसिंह भाई जी, गोल्डी, और मदन के अलावा तीस वर्षाीय रामदुलारे नामक नौकर भी रहता।

चूंकि बहन और इस घर के बीच एक पांच इंच ऊँची दीवार थी, दोनों घरों की आवाजें आराम से एक दूसरे के घरों में चहलकदमी करती हुयी। दोनो घरों के रोज का कार्यक्रम लगभग निश्चित था। बगल वाले घर में सुबह के गये मोहनसिंह रात को वापस लौटते। शाम पांच बजे कमलेश आंटी काम पर निकलतीं और फिर दूसरे दिन अलस्सुबह आ पातीं।

आते ही सो जातीं। मदन की कोई आवाज नहीं मिलती। वह कब स्कूल जाता शाम चार बजे लौट आता, कब क्या खाता, पीता, बोलता। कुछ सुनने को नहीं मिलता। उसके बदले गोल्डी और रामदुलारे की पाठशाला खूब जोर शोर से चलती।

इस पांच इंच ऊँची दीवार के दूसरी तरफ बहन सुबह उठकर नाशता पानी बना, खा पी कर कमरे मेें आ लेटतीं या क्रोशिया, सलाइयों से नन्हें जुराब बुनतीं। चाई जी सुखमनी साहेब के गुटके से जा लगतीं और मैैं दाल, चावल बर्तनों में डाल आंगन के नलके पर उन्हें धोने बैठती। धूप गुनने का मन होता तो वहीं सब्जी भी काट लेती। यह करीब दस, साढ़ दस बजे सुबह का समय होता।

बगल के घर के आंगन से बर्तन धोेने, कपड़े कूटते रामदुलारे गोल्डी को पाठ पढ़ाता। आखिर उसे ही माँ के कमाये धन-दौलत का हिसाब रखना था। उनकी पाठषाला चलती- दो में दो मिलायेगा तो कितना होगा? 18-19 साल का ‘गोल्डी’ मुंह फाड़ के हंसता। तनिक ठहर कर दुलरूआ ‘गोल्डी’ ऐठ भरा जवाब देता-तार होगा।

फिर रामदुलारे पूछता- मान ले गोल्डी, तेरे पास चार आम हैं। एक आम मदन खा गया तो कितने आम बचे? गोल्डी पहले तो हंसता, जैसे जाने कितने मजे का प्रश्न हो यह। फिर काल्पनिक आम-रस से टभकता रोज अलग-अलग उत्तर देता। कभी पांच तो कभी चार..
कई बार मैं दाल चावल वहीं धोना छोड़ पास की सीढ़ियों से छत पर चढ़ आती तमाशा देखने। ईटों की झिर्रियों से झांकती।

सचमुच वह सामने चौकी पर पैर पसारे, लकीरों वाला पाजामा और टी-शर्ट पहने, हाथों को हवा में लहराते, मुंह सेे उत्तरों की फिचकारियां निकालता। पाठ में शामिल होने वाली सामग्रियां बदलती रहती लेकिन इन दोनों की यह गणितीय पाठशाला बदस्तूर चला करतीं।

कभी कभी तो जाने किस मूड मंे होता गोल्डी। पहलेे तो हो-हो करके हंसता। मदन ? मदन मेरा आम खायेगा? हम खायेगा उसका आम? फिर दोनों हंसते। रामदुलारे घुड़कता- बदमाशी मत कर, बता सीधे-सीधे और फिर दो समवेत हंसी के ठहाके। हंसते-हंसते नहीं थकता रामदुलारे। फिर पूछता- एक टोकड़ी में आठ सेब, चार सेब गिर गये तो कितने बचे? ‘गोल्डी’ केवल हंसता। खूब-खूब हंसता। सेब नहीं केला। केला पूछो।

वह हाथ मानों लहराता हवा में। आवाज में खुनक बढ़ जाती। रामदुलारे की आवाज भी पिनक से भरी होती- तेरे पास चार केले हों। एक केला तूने टॉमी को खिला दिया तो तेरे पास कितने केले बचे? गोल्डी फिर हंसता। कहता- मेरे पास एक केला, टॉमी के पास एक केला…. फिर वह भयानक हंसी हंसता। लोट-पोट हो जाता। बांये हाथ से मुंह से गिरते लार को पोंछता। हंसी नहीं रूकती, फुत्कारता तेज आवाज में, मरपदना के पास एक केला…… सब केले मेरे…….।

मरपदना? फिर वही? मदन बोल ! रामदुलारे गलती सुधारता। अचानक ‘गोल्डी’ देर-सवेर चीखने लगता- मरपदना ओ मरपदना। कित्थे मर गया ओये मरपदना……..। फिर शायद उसके हाथ पैर टेढ़े हो जाते। क्योंकि रामदुलारे की आवाज आती- गोल्डी, गोल्डी, सीधा हो जा। हाथ सीधा रख, देख मदन आ गया….. और तब अंदर से कमलेश आंटी की आवाज आती- चुप करा दुलारे इसे। फिर उनके जगने का समय होगा वे उठतीं तो माने घर की चहल पहल उठती। कई मिलने वाले चले आते। घड़ी-घड़ी चाय बनती।

वे गुनगुनाती-‘ दो पत्तर अनारां दे, दुख साड्डा समझनगे………, दो पत्तर अनारां दे………..।” वे नहातीं। बहन के घर तक उनके चंदन साबुन की खूषबू लहराती। चौके में मसाले भूने जाते। कड़छी पतीले संग खनकदार आवाज में बतियाती। मालकिन चाय……….। आधे-आधे घंटें में चाय पीने की शौकीन उस स्त्री को देख मैं सोचती, अपनी मर्जी का स्वावलंबी जीवन क्या जो होता है और क्या जो उसके इतने ठाठ होते हैं।

छोटे शहरों में रात अमूमन जल्दी हो जाया करती है। रात के दस बजते-बजते गली के तमाम घरों में अंधेरा छा जाता। गली के मुहाने पर लगे लैम्प पोस्ट का धुंधला बल्ब कभी जलता, कभी बुझता रहता।

सियाले की नीरव रातों में मैं लालटेन जलाकर और दुलाई अच्छे से ढंक ओढ़, बरामदे की मेज-कुर्सी पर पढ़ने का यत्न करती। लेकिन कभी-कभी पड़ोस की कुछ आवाजें खलल देनेे वाली होतीं। एक तो मोहनसिंह भाईजी के होटल से वापस घर लौटने पर होती। र्दुगंध का एक भभका उठता-औक्क-औक्क जैसी कै करने की आवाज।

स्वयं को संभालने वाले भतीजे को दिये मां-बहन की गालियों के टुकड़े हवा में तिरते आते……. फिर दूसरी आवाज अंदर के कमरों से निकलती- गों-गों जैसी हल्की कांपती आवाज, जिसमें सुकून और कराह-दोनों होते। सित्कारियां होतीं। यह आवाज, मानो दर्द की कोई पगडंडी पार करती हुई रूहों की बेचैनी समेटे होती, जो बहुत हल्की होने पर भी बेतरह बेचैन करती। फिर मेरा पढ़ने से मन एकदम उचट जाता।

समझ भी नहीं पाती थी कुछ। वतन से बिछुड़े हुए कई कराह उस गली में कैद थे और ठीक-ठीक न पहचान होने से “कभी मुझे इस आवाज में कभी एक करूण रूलाई और कभी एक फूहड़ हंसी भी सुनाई देती। मेरा शरीर पसीने ेसे नहा जाता। फिर तो सारी रात भले ही किताबों के पृष्ठ फड़फड़ाते हों, कलम की निब खुली रह जाये, कॉपियाँ पुकारती रहें, धक-धक कलेजे से किसी तरह लालटेन बुझाती मैं दौड़ जाती अंदर और बहन के बिस्तर में दुबक जाती।

आगरा की गलियां अलवर की गलियोें जैसी न थीं। यहां रोज शाम को गली पर मंझियां आ जुड़ती थी और रात को गली पर सांझा तदूर अभी भी बलता। स्त्रियां एक दूसरे के दरवाजों पर एकत्र होतीं और अपने दुख-सुख, रोजनामचे करती। फरियाद भी होती, पंचायती भी। ये मोहल्ले अपने -आप में एक पूरी दुनिया थे जो उजड़ने के बाद बसने लगे थे और इस बसावट में सब चोटिल थे। सबके जीवन मूल्य छिन्न-भिन्न हुए थे, और सब पूरी जद्दोजहद के साथ फिर से अपनी पुरानी जिजीविषा लिये नये जीवन-निर्माण में जुटे थे।

मोहल्ले में नई खबर थी- वीरांवाली आंटी के बाल रंगने के प्रयोग को लेकर। उन्होंने कल ही कहीं काम पकड़ा और ढंग से आने की चेतावनी पर असमय सफेद हो आये बालों को रंगने का यत्न किया। लेकिन यह बहुत कष्टदायी रहा। उनका सिर सूजकर डबल हो गया था।

चेहरा लाल भभूका। हम सब उनका हाल पूछ कर वापस आये थे और अभी शांती आंटी के दरवाजे तक ही पहुँचे के जहां अन्य जनानियों ने बातों में हमें घेर लिया। मैंने देखा कमलेश आंटी को घर से निकलकर काम पर जाते हुए। मैं तो उनके चलने के अंदाज पर भी मोहित थी। उन्होंने गहरे हरे रंग का सूट पहन रखा था।

मैंचिंग हरा पर्स लिये रामदुलारे उनके पीछे-पीछे आगे सड़क तक छोड़ने साथ जाता था, जहां उनका स्थायी रिक्शे वाला अजमल रिक्शा लिये उनके इंतजार में होता। एक बार मुड़कर सबको राम-राम करती हुई वे ठसके से निकल गईं। जालीदार हरे दुपट्टे को देखते ही मुझे उनका उम दिन का रूआंसा चेहरा याद आ गया- एक मां की व्यथा, जवान बेटे की र्दुदशा और उसे देख कांपता, कष्ट पाता उनका जिगरा! मेरे इतना कहते ही सब इधर-उधर गर्दन घुमा, होठों को दबा-दबा आँखों से मुस्कुराने लगीं। मुंह से निकला, कितनी अच्छी हैं न? कितना सहती हैं बेचारी? मेरे इतना कहते ही मैंने सुना, सब मुंह दबाकर फिस्स-फिस्स हंस पड़े। शांती आंटी ने मुझेे गौर से देखा और कहा- ”हाय-हाय, तू तो बच्ची है, तेरे को क्या पता। इवें-इवें तो कुकर्म कीत्ता हुण शोेहदी बनी फिरदी है। पहले बच्चों के लिए दूध नहीं था अब जिंदा खिलौने खरीदती फिरती है। पापिन ! सारे पंजाबियां दा नाम मिट्टी विच मिला दित्ता…। कुंडली मारे बैठी है नागिन…।”

भैणजी सूट वेख्या? नवा आया हैे। नेपालों आया है। आगरे दे बाजार दा नहीं है। चाई जी ने मेरा हाथ पकड़ा और चलने को हुईं कि फिर एक तिक्त स्वर आया-कोई इसे बोलने वाला नहीं अब। झोंपड़ थी इसकी । पूछो न चाईजी से। चाई जी ने भी अब क्या मंुह खोलना ‘गली दा तंदूर सब देे हिस्से, बड़े लोकां दे बड़े-बड़े किस्से। हम चुपचाप घर आ गये।

कल शाम से ही बहन को रह-रह दर्द उठ रहे थे। चाईजी ने कमलेश आंटी के घर जाकर जीजा को फोन पर हाल कह सुनाया। वे बेचारे भागते-से रात तक पहुँच गये थे। सबेरे ही बहन को अस्पताल में एडमिट कर दिया गया।

समय पर रोटी पानी अस्पताल भी भेजना है सो मैं बरामदे की बिछी चटाई पर सब्जी काटने बैठी। यह दोपहर ढ़ले का समय था। शाम के चार-पाँच बज रहे होंगे।

चाईजी हाथ में जपुजी साहब का गुटका लिये, गोड्डे पसारे आंगन मे पाठ कर रही थीं। अमरूद के पेड़ से अटकी किरणों ने आंगन तो छोड़ दिया था लेकिन उनके सिर पर पड़े सफेद दुपट्टे के गोटों से आंखमिचौली खेल रही थी।

छतों पर छोटे और बड़े बच्चों का हुजूम पतंगबाजी के लिये जमा था। एक मंजिल वाले घर के लड़के भी मंझा और लटाई लेकर दो मंजिले पर चढ़ आये थे। पूरे मोहल्ले में कमलेश आंटी का ही सिर्फ दो-मंजिला मकान था और यह बहन के घर से बिल्कुल सटा हुआ भी था।

चारों ओर वह काटा.. वह गया.. ले काटा… काट के दिखा……. औऽऽ तेर्री ऽऽऽ…. जैसी आवाजों का शोर गूंज रहा था। मैं बहन के घर आने वाली नन्ही किलकारियोें और सपनों में खोई थी। सब्जियां काटकर छिलकों को एक बर्तन में जमा किया और उन्हें कूड़ेदान में फेंकने उठी ही थी कि, मेरी आंखों ने जो दृश्य देखा वे अगर बोलने में सक्षम होतीं तो चीख पड़तीं।

जबान रखने वाले मुंह की तो बोलती ही बंद थी। मैंने देखा, एक उड़नतश्तरी ऊपर से तैरती हुई आयी है और अमरूद के पेड़ से थोड़ा अटकती, रूकती चाईजी की गोद में आ गिरी है।

हट्टी, कट्टी, हृुष्ट, पुष्ट चाई जी के हाथों से गुटका छिटक कर दूर जा गिरा और वे भयभीत हो बुरी तरह चीख रही थीं। मेरी आंखे भी झपझपा गईं। एकदम बंद हो आई आंखों को जब खोला तो देखा, चाई जी चित्त पड़ी हैं और उन पर एक नंग, धडंग लड़का बेहोश पड़ा है।

अमरूद के पास लगे तुलसी चौरे से जिसका पैर टकराया है और बलबलाते खून की धार फूट पड़ी है। मैंने कटी हुई सब्जी का कटोरा वहीं पटका और दौड़ पड़ी आंगन में।

चाईजी बेचारी सदमें में अभी तक डरी सहमी, चिल्लाई जा रही थीं- बचाओ, बचाओ, लोकां बचाओ दुष्मणां आ गयेण भागो बचाओ……..। मैं थर-थर कांप रही थी। किसी तरह उस लड़के कोे सीधा किया। आंगन के दरवाजे पर जो गली में खुलता था, उस पर तेज थापें पड़ने लगी- दरवाजा खोलो।

दरवाजा खोलो। की होया? की होया? चाईजी भी किसी तरह उठीं। कुंडा जोरों से खड़काया जा रहा था- दरवाजा खोलो ! शोर मचने लगा- मदन गिर गया है…. उत्तों कोठ्यां अतों….. दरवाजा खोलो………।

मैं दरवाजा खोलने जा रही थी कि लड़के को जो अब सीधा पड़ा था और आंखे खोल समझने की कोशिश कर रहा था कि उसे हुआ क्या है, क्या वह जिंदा भी है? कि मेरी नजर जहां पड़ी धक्क से रह गयी। हवा में शायद उसका पैंट खुलकर या ढीला होकर उतर गया था और उस जगह आधे इंच का पतला, मरे हुए काले झींगुर-सी कोई चीज थी। चारोें तरफ सूजन, काली पड़ गई खरोंचे, लाल-नीले दाग…..।

चाई जी उठ बैठीं। तनिक सी देर में वे समझ गई कि मदन पतंग के चक्कर में गिरता हुआ उनकी गोद में आ समाया है ! जपुजी साहेब ने उसका अंग-भंग न होने दिया। लेकिन अंग का यह कैसा ढंग? दरवाजे पर थाप तेज होती जा रही थी। हल्ला मच गया था- ’मदन गिर गया है, मदन गिर गया है, चाईजी के अंगने में ऊपर तीन मंजिले से। मेरी आंखों का पीछा करती चाईजी की आंखे भी उस जगह तक जा पहुंची और इस प्रकार वह बुजुर्ग महिला सुनी गई आशंकाओं के जिंदा स्वरूप को देखकर सिहर गईं। भड़-भड़ भड-भड़, दरवाजा मानो टूट कर गिर पड़ेगा।

दौड़ती हुई मैैं दरवाजा खोल आई। आंधी की तरह औरतों का झुंड अंदर आया। चाईजी, मदन को हिला हुला कर पूछ रही थीं- ए के कित्ता? क्या हुआ है यह? क्या करता है इसके साथ, मांयाह्वा……. बोलता क्यूं नहीं फिट्टाथीवें………, केड़ी अग्ग लग्गी हुई है, दस्स…….

मदन को अभी भी मानो होश नहीं। सुंदरी आंटी ने एक हाथ से बहते खून को रोकना चाहा दूसरे से पैर में फंसी पैंट को ऊपर चढ़ाया कि हाथ जाने कहां कैसे लगा, मदन में प्राण लौटे। उसने सीत्कार भरी। दोनों टांगे फैला दी। कंठ से गों-गों करती आवाज…….. भर चाबी, भर दे, कितनी चाबी भरेगा…….. सुंदरी आंटी ने तुरंत हाथ पीछे कर लिये। मदन की आंखें फिर मुंद गई।

यह देख सुन वहाँ मौजूद स्त्रियाँं सकते में आ गईं। उन्होनें अपने खुले मुंह में अपनी चुन्नियों के कोर दबा लिए। मदन की घुटी हुई घिघियाई आवाज, मानो किसी दर्द की पगडंडी से आती हो। कुहरती-सिहरती आवाज- बस कर ‘गोल्डी’ !!! बस कर !!! मैंने रस्सी से लटकती चुुन्नी उतारी और उसकी टांगों पर डाल दी।

सामने हायः हाय, बिन मां पियू दा बच्चा ! रब्ब मेहर करे। भग्गी मासी के करूण स्वर से सब मानों होष में आये। भगदड़ मच गई। बन्ती मासी दौड़ी, गरम घी ले आईं। उसके हाथ पैरों में मलना शुरू किया। निम्मो दी ने उसके घावों कोे संभाला, मुन्नी आंटी दौड़ी गरम दूध में हल्दी घोल ले आईं।

सज-धज कर तैयार होटल निकलती कमलेश आंटी को वहीं दबोच लिया गया। दूसरे के फटे में कभी दखल न देने वाली चाईजी ने फिर इतनी गरमागरम गालियां सुनाई कि उन्होंने पूरे समाज के आगे अपनी लापारवाही और गैर जिम्ममेदारिया के लिए उनके पैरों पर गिरकर माफी मांगी। फूट-फूट कर रो रही थीं वें।

आंखों से बहते आंसू सूरमे से मिल ऐसे काले लावे लग रहे थे जिनमें अपने इकलौते बच्चे को किसी तरह बचा लेने की जिद्द का इतिहास छिपा था। सिसकती हुई कमलेश आंटी को भग्गी मासी बांह पकड़ वहां से ले गयीं। श्यामू भैया अजमल की मदद से मदन को डॉक्टर के पास ले गये। दो, चार दिन आराम करने और दवाइयां लेने के बाद मदन फिर स्कूल जाने लायक हो गया।

आम बच्चोें की तरह अब वह हंसता, मुस्कुराता। घर में अब उसके भी बोलने की आवाजें आतीं। एक फर्क और आया। वह स्कूल जाने से पहले बिलानागा चाईजी का मत्था टेकने बहन के घर जरूर आता। नन्ही गुड्डों को चुमकारे देता और चाईजी को पैरी पोना करता कि उनके गोद ने उसे बचाया है।

अब मैं पढ़ती तो कभी बर्तन खड़कते, कभी दुर्गंध आती, गोल्डी वैसे ही चीखता चिल्लाता लेकिन दीवारों में सुराख कर देने वाली, पीड़ा भरी वह गों-गों की कुहरती सिहरती आवाज आनी बंद हो गयी थी।

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