कहानियाँस्लाइडर वैदेही माध्यमिक विद्यालय कहानी-रितु सिंह वर्मा by teenasharma May 10, 2024 written by teenasharma May 10, 2024 वैदेही माध्यमिक विद्यालय उनकी मौत के दो साल बाद आखिरकार विद्यालय शुरू करवाने में सफलता मिल ही गयी, आज मन में बडा सुकून है जब विद्यालय के गेट पर वैदेही माध्यमिक विद्यालय लिखा जा रहा है। ——————— निश्छल हंसी और मासूम आँखें ही जेहन में रहें तो अच्छा लेकिन उन पनीली उदास डूबती अन्दर तक बेधती नजरों का क्या करूं जो दिल में कहीं गहरे धंस गईं हैं और निकाले नहीं निकलती । नहीं नहीं उनका अंत दुखद नहीं हो सकता , उनके अंत को दुखद नहीं होने दुंगा। एक घंटे की उस आखिरी मुलाकात ने पिछले बीस बरस की यादों को धुंध की तरह ढ़क दिया था मगर यादें होती ही हैं एसी कि धुंध के बीच से भी जब तब धूप की किरणों की तरह झिलमिला उठती हैं । बचपन की वो लुकाछिपी ,किस्से कहानियां खिलौने, खिलौने तो थे ही कहाँ उस मासूम के बचपन में खेत खलिहान चूल्हा-चौका ,मवेशी यही सब उसके साथी भी थे और खेल के साधन भी । तभी तो मेरी किताबें उसे नई चीज लगतीं किताबें देख कैसी चमक उठती थीं उसकी आँखें ,वह पढ़ना तो नहीं जानती थी मगर उन्हें छू कर देखती पन्ने पलट कर चित्र देखते हुए ढ़ेरों प्रश्न जगमगा उठते थे उसकी आँखों में पूछती क्या लिखा है ? पढ़ कर बता न संतोस । मैं शेखी में आ जाता कहता – गंदे हाथ मत लगाओ मैं पढ़ कर सुनाता हूँ । वो कहती – ‘मैं भी पढ़वो चाहूं पर क्या करूं गाँव में स्कूलई नायं , तू ही मुझे पढ़ा दे’। मैं कहता बुआ मैं तो कुछ दिनों में शहर लौट जाऊंगा फिर? तुमको कैसे पढ़ाऊंगा ? पहले खूब सताता फिर अपनी समझ से कुछ पढ़ा भी देता । रितु सिंह वर्मा हम साथ-साथ चलते कच्ची पगडंडियों पर दौडते खेतों तक जाते । वो बाल्टी में रस्सी बाँध कुएं से पानी खींचती और भर भर बाल्टी मेरे उपर ऊंडेलती । गर्मियों में कुएं का ठंडा पानी बेहद भाता था । वही मेरे कपड़े धोती और पास की झाडियों पर सूखने फैला देती फिर पनघट से सटी मवेशियों की नांद में पानी भरती । इतनी देर मैं इधर उधर घूमता रहता , वो कहती रहती ‘ घाम में मत घूमे रे छोरे लू खा जाएगो , कीकर की छांव में बैठ जा’ पर मैं कहां सुनता था। अपने साथ आए भूरिया पर पानी की भरी बाल्टी उंडेल देता और जब वह अपने पूरे शरीर को फडफडा कर पानी झिडकता मुझे बहुत मजा आता था। भूरिया बुआ का लाडला पिल्ला था वो जहाँ जहाँ जाती उसके पीछे-पीछे जाता । मेरे जाने के बाद वही तो उसका साथी था । आधे सूखे कपडे समेट कर बुआ मुझे दे देती जो घर पहुंचने तक पूरे सूख जाते , मैं उन्हें अपने सिर पर छतरी की तरह तान कर शान से चलता साथ में वो खुद पानी के भरे दो मटके सिर पर रख कर कहती ‘चत रे संतोस घर कूं चलें सबेरे ते कछु ना खायो भूख लगियाई होगी’। जब पूछता – दो दो मटके लेकर इतने आराम से वो कैसे चल लेती है तो हंस कर कहती- कल से एक तू लैके चलियो । मैं फिर पूछता तू नहीं नहाएगी ,वो कहती – तेरे उठबे से पहले तारन की छांव में निपटा निपटी न्हावा धोई सब कर लेत हूं ,लडकिन उजीते में नहीं नहावें हैं । मैं सोचता ही रह जाता ये सोती कब है आधी रात तक तो मुझे छत पर कहानियां सुनाती है, तो क्या तू दोबारा आई है पानी लेने ? हम्बै सांझ कूं फिर आवेगें । सांझ तक मेरे पांव दुखने लगते फिर भी कुंए के ठंडे पानी से नहाने के लालच में उसके साथ चला आता और भूरिया दुम हिलाता हमारे पीछे पीछे । भरी दोपहर जब घर के सब बडे अपने अपने कामों में व्यस्त होते हम दोनों बैठक के उपर वाले छप्पर में सबसे छिप कर किस्से कहानियां कर रहे होते — एकथा ढ़ोलकिया एक उसकी ढ़ोलकिन—- तब भूरिया भी वहीं हमारे पास पडा ऊंघ रहा होता । बुआ के पास बैठ न गर्मी सताती न भिनभिनाती मक्खियां परेशान करतीं । बुआ हंसती भी तो मुंह दबा कर जैसे खुल कर हंसी तो न जाने कोई पहाड टूट पडेगा ।उसकी एक कहानी खत्म होती और वो कहती – अब तेरी बट लाला इ से इमली के आगे लिखना सिखा । मेरी हर फरमाइश के बदले वो मुझसे एक नया अक्षर सीखती।इसी तरह वो धीरे धीरे पढ़ना लिखना सीख गई । गजब तो उस दिन हुआ जब पोस्टमैन चिट्ठी लेकर आया बैठक से बाबा ने पूछा लाली कौन की चिट्ठी आई है ? उसने नाम पता पढ़ा फिर चिट्ठी खोल कर पढ़ कर बताया – भैया की है 28 तारीख को संतोस को लेवे आरे हैं । बाबा बोले लाली तूने चिट्ठी बांच ली ? तू पढ़ सके है? उनकी आवाज में आश्चर्य घुला था । मैं जो अब तक वहीं पास की चारपाई पर सोया पड़ा था उसकी आवाज से उठ बैठा ,बुआ ने इशारे से मुझे चुप रहने को कहा लेकिन अपना बडप्पन दिखाने से मैं कहां चूकने वाला था तुरन्त बोला – मैंने सिखाया है बुआ को पढ़ना । बुआ को लगा अब डाँट पडेगी और मैंने देखा बाबा धीरे से आँखें पोंछ रहे थे बोले ‘ये तूने अच्छा किया जो इसे कुछ पढ़ना लिखना सिखाया’ । तब तक दादी भी उसे आवाजें लगाती वहां आ गई थी- छोरी कब ते पुकार रही हूं कब लख्खण सीखेगी ,पंन्द्रह बरस की हो गई बालकन के संग बालक बनी रहे है ,पराए घर जाकर नाम लिखावेगी ,कछु घर के कामकाज में ध्यान दिया कर ,चल जाकर भैंसन का बांट चढ़ा चूल्हा पर । बाबा बोले – इत्तेक मत ड़ांटा कर चली गई ससुराल तो फिर याद करेगी , देख आज तेरी छोरी ने बिगैर स्कूल गये चिट्ठी बांच ली । दादी चिट्ठी को उलट पलट कर देख रही थी कि ये कैसे हो गया कब ये छोरी पढ़वो सीख गई । उसके बाद मुझे लगा बाबा दादी का लाड कुछ और बढ़ गया था मुझ पर ।उस रात दादी ने अपने हाथों से पेडे बना कर खिलाए । अगली बार जब हम सब गांव आए तो मां बुआ के लिए नये कपडों के साथ मेरी पुरानी किताबें भी लायी । किताबें देख बुआ की आंखों में जो चमक उठी उसने मां को पापा से कहने पर मजबूर कर दिया कि इसे अपने साथ शहर ले चलते हैं कुछ पढ़ लिख लेगी । पापा का कहना था दादी जाने नहीं देगी बंटी अर्थात मेरे चाचा भी वहीं हमारे साथ है यहां कौन सारा काम करेगा फिर पंन्द्रह सोलह की उमर में किस स्कूल में दाखिला मिलेगा । बात उठी भी और खत्म भी हो गई । उसी दिन बुआ की सहेलियां मां को सुना सुनाकर हंसा रही थीं कि बुआ नोहरे में भैसों को छड़ी दिखाकर पढ़ाती है और उनसे बातें करती है बडा शौक है इसे मास्टरनी बनने का । हर गर्मी की छुट्टी में गांव आने का यह सिलसिला जब तक जारी रहा बुआ मुझसे कुछ नया सीखती रही मुझसे सात साल बडी बुआ मेरे साथ बच्ची ही बन कर रहती वो मेरे लिए सब कुछ थी । हफ्ते दस दिन की छुट्टी होते ही मैं गांव जाने को तडप उठता ,वहां का खुलापन ,खेत की मिट्टी की सौंधी महक ,दादी के हाथ के बने पेडे ,घी में चूरीरोटी बूरा का स्वाद पनघट का स्नान और इस सबसे बढ़ कर बुआ का अपनत्व भरा साथ मुझे गांव की ओर खींचते थे । एक बार पापा और मैं गांव आए ,पापा दादी को शहर ले जाना चाहते थे क्योंकि मेरा भाई आने वाला था ,मां को दादी की जरूरत थी । लेकिन दादी ने शहर जाने से मना कर दिया क्योंकि उन दिनों बाबा की तबियत अच्छी नहीं थी फिर फसल पकने का समय भी आ रहा था । दादी ने हमारे साथ बुआ को भेज दिया ,ये पहला मौका था जब बुआ हमारे साथ शहर में रहने वाली थी । मैं बहुत खुश था । बुआ को भी इतना खुश मैंने पहले कभी नहीं देखा था ,वो छ: महीने हमारे घर रही ,इस बीच मेरा भाई पैदा हुआ।जितनी खुशी मुझे मेरे भाई के आने की थी उतनी ही बुआ के साथ की भी। शहर में रहने से बुआ के रहन सहन के तौर तरीकों में अब बदलाव आ गया वो अब घाघरा -कमीज की जगह सलवार- कुर्ता पहनने लगी । मां के साथ उसने नये नये व्यंजन बनाना भी सीखा ।हिन्दी अब वो अच्छी तरह पढ़ और लिख लेती थी ,अंग्रेजी के कुछ शब्द भी अब उसकी जुबान पर चढ़ गये थे । बाजार से सौदा खरीदना ,हिसाब लगाना भी उसे बखूबी सीख लिया था । उसका तांबई रंग ,तीखे नाक नक्श ,लम्बे बाल और मजबूत कद काठी सबको आकर्षित करते थे । करीब छ: महीने बाद वो गांव गई तो बडी अनिच्छा से गई । अपने मन का हर भेद वो मुझे कह देती थी । उसका मानना था अगर वो शहर में पैदा हुई होती तो जरूर स्कूल जाती और फिर मां की तरह स्कूल में टीचर बन कर बच्चों को पढ़ाती । उसके बाद दो साल बुआ से मिलना ना हो सका क्योंकि गर्मियों की छुट्टी में मुझे कोचिंग क्लास जाना होता था । फिर आया बुआ की शादी का बुलावा । हम सभी गांव में इकट्ठे हूए ,खाते पीते बडे घर में उनकी शादी हो रही थी । फूफा अपने माता पिता की इकलौती संतान थे ,दो सौ बीघा जमीन थी ,मगर बुआ खुश नहीं लग रही थी और ऐसा केवल मैं महसूस कर रहा था । पढ़ने की इच्छा आज भी बुआ ने अपने मन के किसी कोने में दबा कर रखी थी और अब यह कभी संभव नहीं होगा इसका दुख उसने मुझसे साझा किया । उन्हें मां की तरह कलफ लगी साडी पहन कर स्कूल के बच्चों को पढ़ाने की बड़ी चाहत थी ! उनकी शादी के कुछ दिन पहले पनघट पर हम साथ थे । कपडे धोते हुए बडे दार्शनिक अंदाज मे वो कहने लगी ‘सपने तो साबून के बबूले की नायीं फूट गये लाला ,हम गंवार तो इंसान बनबे ते रहे जे जात्रा तो अब अधूरी ही रहेगी । लडकिन के दो जन्म होत है एक सादी ते पहले एक सादी के पीछे ,पहले वारो तो अब पूरो हुयो दूसरे से भी ज्यादा उम्मीद ना ही राखें तो ठीक’ । एसा क्यों कहती हो बुआ ,मैंने सुना है तुम्हारा ससुराल बडा अच्छा है ,पैसा और इज्जत दोनों हैं वहां आप सुखी रहोगी । ‘ये इज्जतदार परिवार अपनी नाक ऊंची रखबे की खातिर अपने घर की बहू बेटियों के सपनों को रौंदकर उपर चढ़ें हैं , तम नाय समझोगे लाला परेशान मत होवो’ । पहली बार मुझे हमारे बीच उमर का फासला महसूस हुआ। मैं बुआ की निराशा को समझने में सफल न हो सका । उनकी शादी के बाद अपनी पढ़ाई और फिर कैरियर कीजुगत में लग गया । इस बीच चाचा की शादी ,दादी के स्वर्गवास पर उनसे मिलना हुआ ,कोई विशेष बातचीत नहीं हो सकी परन्तु हां उनकी निसंतानता अवश्य परिवार में चर्चा का विषय बनी हुई थी । मेरे लिए इस विषय में अधिक तवज्जो देने का कोई कारण नहीं था या फिर में नासमझ था ।मेरी हीतरह शायद पापा बाबा चाचा के लिए कोई खास कारण नहीं था उनकी परेशानियों का तभी तो पिछली बार शादी के आठ बरस बाद जब छ: महीने तक फूफा उन्हें लेने नहीं आए तो भी बाबा ने उन्हें चाचा के साथ वापस ससुराल भेज दिया । सचमुच उनके सपनों का किसीको ख्याल न था न ससुराल वालों को न पीहर वालों को । साल भर बाद खबर आई बुआ मरणासन्न अवस्था में अस्पताल में पड़ी है आ कर मिल लो । चौंक गया था मैं व्यथित हो गया था ,जब मां ने फोन पर बताया ,मरणासन्न होने की उमर तो न थी उनकी फिर क्या हुआ ? नई नई नौकरी से छुट्टी मिलना आसान न था ,चाह कर भी मिलने न आ पाया ,पापा गये थे और बुआ की हालत देख उन्हें साथ ले आए थे , जयपुर एस एम एस हास्पिटल में भर्ती रही थी पूरे एक महीना । ससुराल से कोई नहीं आया साथ, मां बता रही थी ससुराल वालों को संतान की चाहत थी लेकिन पढ़े लिखे न होने से वहीं गांव में झाड फूंक करवाते रहे , तरह तरह के टोने टोटके झेले उन्होंने फिर मानसिक संत्रास और शारीरिक पीडा अलग, मगर उन्होंने हमसे कुछ कहना उचित नहीं समझा शायद नाराज थी, बाबा ने उनकी इच्छा पूछे बिना ससुराल वापस जो भेज दिया था ,अब बचने की कोई उम्मीद नहीं थी । मां ने मुझे तत्काल आने को कहा । मेरे लिए अब लखनऊ में रुकना दुश्वार था । बॉस की परमिशन लिए बिना मात्र सूचना पहुंचा कर रात को ही जयपुर वाली बस में बैठ गया और अगले दिन सुबह अस्पताल उनके पास पहुंच गया । उन्हें देख कर जी बैठा जा रहा था । हट्टी कट्टी बुआ हड्डियों का ढ़ाचा मात्र रह गईं थीं । आंखों में आंसू लिए जब उनका हाथ अपने हाथ में लिया तो आँख खोल कर गहरी उदास डूबती दृष्टि मुझ पर डाल कर मुस्कुराई और सर पर हाथ फेरते हुए बोली ‘ लाला आ गये तुम ,सादी करियो तो एसी छोरी से जो पढ़ाती हो और उसका साथ दीजो हर हाल में । लडकिन को स्कूल अपने गांव में खुलवा सको तो अच्छो हो तम तो अब बडे अफसर बन गये हो’ । बस यही उनकी और मेरी आखरी बातचीत थी । उसके बाद उनकी आखिरी इच्छा के अनुसार गांव में स्कूल खोलने की परमिशन लेने से लेकर अपने हिस्से की जमीन पर पंचायत से मिले फण्ड से स्कूल के कमरों बरामदों शौचालय का निर्माण अब मेरे जीवन का पहला मकसद बन गया । उनकी मौत के दो साल बाद आखिरकार विद्यालय शुरू करवाने में सफलता मिल ही गयी, आज मन में बडा सुकून है जब विद्यालय के गेट पर “ वैदेही माध्यमिक विद्यालय” लिखा जा रहा है । अवश्य ही उन उदास पनीली आँखों में आशा की मुस्कुराहट जाग उठती जब वो देखतीं कि स्कूल की नवनियुक्त अध्यापिका गीता किस तरह आँखों ही आँखों में मुस्कुराते हुए मेरे प्रति आभार व्यक्त कर रही है। ऐसी ही कुछ अन्य कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें— अपनत्व बकाया आठ सौ रुपए लघुकथा—सौंदर्य सन्दूक hindi kahanihindi kahaniyakahaniवैदेही माध्यमिक विद्यालय 0 comment 2 FacebookTwitterPinterestEmail teenasharma previous post Basant Panchami बसंत पंचमी next post जगन्नाथ मंदिर में ‘चंदन यात्रा’ उत्सव Related Posts छत्तीसगढ़ का भांचा राम August 29, 2024 बंजर ही रहा दिल August 24, 2024 जन्माष्टमी पर बन रहे द्वापर जैसे चार संयोग August 24, 2024 देश की आज़ादी में संतों की भूमिका August 15, 2024 विनेश फोगाट ओलंपिक में अयोग्य घोषित August 7, 2024 बांडी नदी को ओढ़ाई साड़ी August 3, 2024 मनु भाकर ने जीता कांस्य पदक July 28, 2024 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