कहानियाँ ‘अर्थी’ का बोझ ही शेष…. by Teena Sharma Madhvi July 26, 2020 written by Teena Sharma Madhvi July 26, 2020 सूजी हुई आंखें…कपकपाते हाथ…और छाती में धड़क रहा बेबस कलेजा…बैठा हैं सड़क पर उन खिलौनों के बीच जो मासूम कांधे पर सवार होकर आज मेले में बिकने आए थे। लेकिन जो हाथ इन्हें बेच रहे हैं उनमें अब वो जान नहीं बची जो महज़ कुछ घंटों पहले तक थी। इन हाथों में मजबूर हालातों की उस अर्थी का बोझ ही शेष रह गया हैं जो सिर्फ सहारा बनकर मेले में आई थी…। पड़ोस के गांव में आज मेला भरा है। कमला इस बात से बेहद खुश है। वो सोचती हैं मेले में खिलौने बेचकर कुछ पैसा कमा लेगी जो बीमार पति के इलाज और घर चलाने के काम आ जाएगा। इसीलिए वो अपने ही गांव के एक व्यापारी से करीब तीस हजार रुपए के खिलौने उधार ले आती हैं। ये व्यापारी उसे कहता हैं कि कमला वैसे तो हर बार तू खिलौने ले जाती हैं और समय पर पैसा भी चुका देती हैं। इस बार तूने ज़्यादा उधारी की हैं, मेले से आते ही पैसा चुका देना। कमला हंसकर कहती हैं……होओ सेठ। आज तक शिकायत का मौका नहीं दिया है…..इस बार भी नहीं दूंगी। ऐसा कहते हुए वो घर पर आती है और अपनी दोनों बेटियों के साथ मेले में जाने की तैयारी करती है। वह अपने बीमार पति को खाना खिलाकर और दवा देकर मेला ख़त्म होते ही आने का बोलकर, बेटियों के साथ मेले की ओर निकल पड़ती है। मेले में पहुंचने पर वो एक अच्छी सी जगह देखकर सड़क के किनारे अपने सभी खिलौने बहुत सुंदर तरीके से सजाकर बैठ जाती है। कमला की बड़ी बेटी बीनू अभी सिर्फ सात साल की हैं लेकिन वो मां के साथ हर रोज़ खिलौने बेचने में बहुत मदद करती है। सड़क पर घूम—घूमकर लोगों को अपनी तुतलाती बोली में खिलौना खरीदने को कहती है। उसकी मासूमियत और मुस्कान देखकर लोग उससे खिलौना खरीदते भी है। उसके हाथ से हर खिलौना बिक जाता है। आज भी मेेले में खिलौने बेचने की शुरुआत बीनू के हाथों से ही हुई। मेले की भीड़ देखकर कमला खुश होती है। वह सोचती हैं दो दिन के मेले में वह अच्छी कमाई कर लेगी। दोपहर ढ़लते—ढ़लते उसके आधे खिलौने बिक गए। कमला बीनू को कहती हैं मेरी लाडली आज तूने मेरी बहुत मदद की हैं वरना इतने खिलौने बेचना मुझ अकेली से संभव न था। अब तू अपनी छोटी बहन को संभाल में खिलौने बेचने खड़ी होती हूं। बीनू अपनी डेढ़ साल की बहन को संभालने लगी। वह उसके साथ खेलती हैं। कभी उसे कांधे पर लेकर खड़ी होती हैं तो कभी उसे गोद में बैठाकर झुंझुना बजाती है। कमला दोनों को देखकर मुस्कुराती है। थोड़ी देर बाद कमला अपनी दोनों बेटियों के साथ बैठकर खाना खाती है। तभी बीनू कमला से कहती हैं मां मुझे भी झूला झूलना है। मेरा भी मन हैं…क्या मैं झूला झूल लूं…। कमला कहती हैं नहीं, अकेले नहीं…। लेकिन बीनू ज़िद करती हैं और रो पड़ती हैं। कमला उसे यूं रोता देख नरम पड़ जाती है और सामने ही खड़े झूले वाले को कहती हैं भैया इसे भी एक चक्कर झूला दे…। बीनू खुश होकर झूले की ओर दौड़ पड़ती है। वह झूले में बैठती हैं और झूलने लगती है। कमला की नज़रें उसी पर है। बीनू हाथ हिला—हिलाकर मां…मां…देखो…कहती जाती है। और इधर कमला भी उसे देखती और हंसती जाती। बीनू अपनी बहन को भी आवाज़ें लगाती है..छोटी…छोटी…देख मुझे…। मेले की भीड़…सड़कों पर सजे खिलौने और झूला झूलती बीनू की खुशी कमला को बेहद सुकून दे रही थी। वो मन ही मन इस पल की खुशी के उन्माद में झूम रही थी। तभी झूले पर से बीनू का संतुलन बिगड़ गया और वह धड़ाम से आकर ज़मीन पर गिर गई। कमला सबकुछ छोड़ बीनू की ओर भागती है और उसे गोदी में उठाती है। देखते ही देखते बीनू के आसपास भीड़ ज़मा हो गई। कमला अचेत पड़ी बीनू को अपनी बाहों में समेटते हुए कहती है बीनू आंखे खोल…देख मैं..तेरी मां..। ऐ मेरी बीनू उठ ना…। तभी वहां मौजूद लोगों में कोई कहता कि अरे इसे अस्पताल ले जाओ…तो कोई कहता अरे पानी पिलाओ इसे…। बीनू को ऐसे देख कमला का जी गले तक भर आया। आंखों में आंसू लिए वह चारों तरफ लोगों को देखती जाती और फिर अपनी बच्ची को छाती से लगाए फूट—फूटकर रोती। कभी उसके माथे को चूमती तो कभी जोर—जोर से चीखती …। लेकिन बीनू कोई हरकत नहीं करती…। तभी मेले में गुब्बारे बेचने वाला उसकी मदद करता है। और अपने रिक्शे में कमला, बीनू और उसकी छोटी बेटी को लेकर अस्पताल पहुंचता है। पीछे से कमला के खिलौने की रखवाली का ज़िम्मा गुब्बारे बेचने वाले की पत्नी संभालती है। अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टर बीनू का चेकअप करते हैं और फिर कमला को कहते हैं कि आपकी बेटी अब जिंदा नहीं रही। ये सुनकर कमला की पूरी दुनिया ही मानो उजड़ सी जाती है। स्ट्रेचर पर पड़ी बीनू की लाश को झंझोड़ते हुए कमला जोर—जोर से चीखती है…चिल्लाती है…नहीं मेरी बीनू मुझे छोड़कर नहीं जा सकती…मेरा सहारा है तू…उठ जा रे बीनू…तेरे पिता हमारी राह तक रहे हैं…उन्हें क्या जवाब दूंगी मैं…। मेरी बच्ची उठ जा…। गुब्बारे वाला उसे बहुत ढांढस बंधाता हैं लेकिन एक मां जिसकी मासूम बच्ची ने हंसते—खेलते हुए पल भर में ही दम तोड़ दिया हो वो कैसे खुद की भावनाओं पर नियंत्रण रखती। कमला ने अपनी बीनू को छाती से कसकर लगा लिया। उसकी छोटी बेटी भी रो रही हैं जिसे कमला चुप करती जाती हैं। डॉक्टर बार—बार कमला को समझाते हैं..। कमला अपनी छोटी बेटी की तरफ देखती हैं और फिर उसे अपने पति का भी ख़्याल आता हैं जिसे पिछले कई समय से लकवा हैं। कमला हिम्मत जुटाती है और खुद को संभालती है। शाम ख़त्म होने को थी। पूरी रातभर वह अपनी मरी हुई बेटी को कहां रखती। इसलिए वह बीनू को अस्पताल की मोर्चरी में ही रखने का फैसला लेती है। और फिर पत्थर दिल बनकर वह छोटी बेटी के साथ फिर से मेले में आ जाती है। और अपने खिलौनों के पास आकर बैठ जाती है और फिर से खिलौने बेचने लगती है। सूजी हुई आंखें…कपकपाते हाथ…और छाती में धड़क रहा बेबस कलेजा…कौन देख पाता…। इस मजबूर मां की बेबसी पर आज शायद आसमान भी रो पड़े…। एक कोमल हृदय की मां कैसे अपने कलेजे के टुकड़े के मर जाने के बाद भी पत्थर दिल के साथ लोगों को खिलौने बेच रही थी। जबकि उसका खुद का सबसे प्यारा खिलौना आज टूट गया है…। एक ही पल में कमला भीड़ के बीच अकेली रह गई है। इस वक़्त उस पर जो गुज़र रही थी वो या तो खुद जान रही थी या फिर उसका ईश्वर…। कमला पूरी रात भूखे-प्यासे रो—रोकर गुज़ारती है। उसे बेटी के मरने का बेहद दु:ख था। प्रकृति की इस क्रूर नीति ने उसे बुरी तरह से तोड़ दिया था। लेकिन सामने डेढ़ साल की दूसरी बेटी की परवरिश और लकवे से पीड़ित पति के इलाज की ज़िम्मेदारी थी। फिर उधारी चुकाने की चिंता भी उसे सताए जा रही थी। जैसे—तैसे रात बीतती हैं और सुबह होती है। कमला गुब्बारे वाले के साथ अपनी छोटी बेटी को लिए अस्पताल पहुंचती हैं। और अपनी बीनू के शव को मोर्चरी से लेती है। फिर उसे कांधे पर उठाकर शमशान घाट पहुंचती है। यूं तो जन्म से लेकर आज तक कमला को बीनू को गोदी में लेने का भार कभी महसूस नहीं हुआ था। लेकिन आज अपने इस जिगर के टुकड़े को यूं उठाकर ले जाना उसकी जिंदगी का सबसे भारी बोझ महसूस हो रहा था। दिल पर लगे इस बोझ को वो सारी उम्र भूला नहीं सकेगी। वो अकेली ही आज फूट—फूटकर रोते हुए अपनी बेटी की चिता को अग्नि दे रही है। इस वक़्त उसे ढांढस बंधाने के लिए ना तो उसका पति पास हैं और ना ही अपना कोई। अग्नि देने के बाद कमला अपनी डेढ़ साल की मासूम बच्ची के साथ निढाल होकर बैठ जाती है। बेटी की चिता की राख ठंडी भी नहीं होती है और कर्ज़ चुकाने की मजबूरी कमला को फिर से मेले में ले आती है। उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं लेकिन छाती पर पत्थर रखकर वह तब तक खिलौने बेचती रही जब तक कि मेला ख़त्म नहीं हो गया…। 10 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post कचोरी का टुकड़ा next post ज़िंदगी का फ़लसफ़ा Related Posts छत्तीसगढ़ का भांचा राम August 29, 2024 विनेश फोगाट ओलंपिक में अयोग्य घोषित August 7, 2024 वैदेही माध्यमिक विद्यालय May 10, 2024 राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा January 29, 2024 राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा January 22, 2024 राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा January 21, 2024 समर्पण October 28, 2023 विंड चाइम्स September 18, 2023 रक्षाबंधन: दिल के रिश्ते ही हैं सच्चे रिश्ते August 30, 2023 गाथा: श्री घुश्मेश्वर महादेव August 13, 2023 10 comments Teena Sharma madhavi July 26, 2020 - 2:05 pm Heart touching story. Kumar Pawan Reply Vaidehi-वैदेही July 26, 2020 - 3:39 pm पहली बार किसी कहानी को पढ़कर आंखों में आँसु आ गए । बहुत ही मार्मिक कहानी । Reply Unknown July 29, 2020 - 4:51 am Superb story Reply Usha July 29, 2020 - 5:02 am इतनी दर्द भरी कहानी पूरी पढ़ने के लिए हिम्मत रखनी पड़ी आंसू आ गए इतनी शक्ति औरत के पास ही होती है इतनाबड़ा दर्द सहन करते हुए अपने फर्ज को निभाते हुए अपने परिवार का जीवन यापन करने की ताकत उसे ऊपर वाला देता है Reply Usha July 29, 2020 - 9:52 am तुम्हारी कहानी पढ़कर एक प्रतिक्रिया मेरे पास कुछ इस तरह आई लेख अत्यन्त मार्मिक लिखा गया है। इस प्रकार के वाक्ये आज की दुनिया में अपने आसपास खुले नेत्रों से हम अक्सर देखा करते हैं। कई इसका अन्तरआत्मा से मंथन करते हैं, कई इसे सहजता से लेते हैं। यह सत्य है स्त्री में आत्मशक्ति पुरूषों से कहीं ज्यादा होती है। स्त्री पुरूष की अनुपस्थिति में अकेले परिवार को अपने आत्मबल से खींच ले जाती है किन्तु पुरूष असहाय हो जाता है। कई उदाहरण हम देखते हैं। ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं, अभी लांकडाउन में एक बच्ची पिता को घरेलू सामान सहित हजारों किलोमीटर से साईकिल पर बैठाकर अपने गांव आती है, कई महिलायें सिर पर भारी गठरी, गोद में बच्चे को लिये पैर में टूटी चप्पल पहने भूखी प्यासी, अत्याधिक तापमान से सुलगते पथ पर चलते चलते अपने गांव की ओर जाती है। पूरा शरीर थक के चूर, असहनीय शारिरीक पीढ़ा, अंग अंग में दर्द । शरीर साथ नहीं दे रहा किन्तु मस्तिष्क अग्रसर के लिये कह रहा है, दिल परिवार के प्रति भावना का अहसास करा रहा है। क्या है यह……? आत्मबल, कर्तव्यपरायण, भावना, उदारता,निष्ठा जो पुरूषों से कहीं अधिक स्त्रियों में व्याप्त होती है। गौर से इंसानियत भावना से सोचे तो रूह कांपने लगती है, नहीं तो सामान्य। कहने का तात्पर्य यह है कि लेख में महिला ने अपने परिवार के प्रति भावना को कष्टों के पहाड़ के सम्मुख डगमगाने नहीं दिया अपितु पूरे दमखम से परिस्थितियों का सामना करती रही, चाहे अंदर से कितनी भी टूटती रही। इन्हीं भावनाओं के कारण स्त्रियां सदैव आदरसूचक व नमनीय रही है और रहेगी। Reply Teena Sharma 'Madhvi' July 30, 2020 - 5:05 pm Thank-you 🙏 Reply Teena Sharma 'Madhvi' July 30, 2020 - 5:05 pm Thank-you so much 🙏 Reply Teena Sharma 'Madhvi' July 30, 2020 - 5:06 pm Thank-you very much 🙏 Reply Teena Sharma 'Madhvi' July 30, 2020 - 5:07 pm Thank-you 🙏 Reply Teena Sharma 'Madhvi' July 30, 2020 - 5:07 pm Thank-you so much 🙏 Reply Leave a Comment Cancel Reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.