कहानियाँ कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—8 by Teena Sharma Madhvi November 9, 2021 written by Teena Sharma Madhvi November 9, 2021 …’मेरे बेटे की जान तो ले ली तुमने अब इसकी लाश पर से मेरा हक मत छीनो…। इसे लेकर मुझे जाने दो’…। सरदार ने फोरन अपने भाई को सोहन की गाड़ी की ओर दौड़ने और उसमें पड़े सच को खोज लाने को कहा…। भीखू सरदार का भाई बिना देरी किए गाड़ी की ओर दौड़ पड़ा…। उसने गाड़ी में तलाश शुरु की तब उसे एक ‘डायरी’ मिली, जिसके पहले पृष्ठ पर लिखा था ‘शंकरी’…। ये पढ़कर सरदार का भाई कुछ चौंका फिर बिना रुके हुए वो डायरी लेकर सीधे भीखू सरदार के पास पहुंचा और उसके हाथ में डायरी देते हुए बोला, शायद सोहन की ‘मां’ इसी सच के बारे में बोल रही हैं…। सरदार ने डायरी खोली और पहला पृष्ठ देख वो भी चौंका जिस पर ‘शंकरी’ लिखा था। उसने सोहन की मां से पूछा क्या ये है सच…? मां ने गर्दन हिलाई और फुट—फुटकर रोने लगी…। सरदार ने अपने भाई को डायरी दी और उसे पढ़ने को कहा। टिबड्डे पर मौजूद सभी कबिलाई डायरी में क्या लिखा हुआ है ये जानना चाहते थे…। पूरा माहौल शांत हो गया…जो जहां था वहीं बैठ गया…। सरदार के भाई ने डायरी पढ़ना शुरु की। ‘आज भयानक तूफानी रात है…मेरी गाड़ी डूंगरपुर के एक ऐसे जंगल मोड़ पर खराब हुई जहां पर दूर—दूर तलक कोई न था…। मैं मदद मिलने की उम्मीद में इधर—उधर देखता रहा लेकिन कोई मददगार न मिला। जब थक हारकर और डर कर गाड़ी में चुपचाप बैठ गया तब मुझे दूर से नज़दीक आती हुई रोशनी नज़र आई। ये रोशनी एक मोटर साइकिल की थी जिस पर दो लोग सवार थे…। इन दोनों ने इस तूफानी रात में मेरी मदद की और मुझे अपने साथ कबिलाई बस्ती में ले आए…। यहां आने पर मैं भीतर से बेहद डरा हुआ था लेकिन भीखू सरदार के व्यवहार ने दिल को तसल्ली दी। यहां आने के बाद ही मुझे पता चला कि वे लोग कबिलाई हैं, जिनके अपने रीति—रिवाज़ और शहरी जीवन से हटकर जीने के तौर—तरीक़े हैं। फिर भी एक अजनबी शहरी की मदद की। किसी की मदद करना इनकी जीवन शैली का एक अहम हिस्सा हैं…फिर चाहे वो कोई भी हो, और इस बात ने मेरे मन को बेहद प्रभावित किया। जो लोग शहरी लोगों के तौर—तरीकों को पसंद नहीं करते हैं वे उनकी मदद के लिए तैयार हैं…इससे उन्हें कोई गुरेज़ न था। भीखू सरदार डायरी में लिखी इस बात से बेहद भावुक हो उठा। उसकी आंखें नम हो गई…। डायरी में आगे लिखा था, शंकरी मेरे जीवन में अचानक से आई…जिसे सहजता से स्वीकारना मैंने लिए आसान न था। लेकिन वादा कैसे निभाया जाए ये कबिलाईयों की दूसरी सबसे खूबसूरत बात थी। जिसे शंकरी ने पूरा कर दिखाया…। उसने मुझे बस्ती से दूर अपने घर भेजने तक के सफ़र में बड़ी जोख़िम उठाई लेकिन मेरी ‘मां’ तक मुझे आख़िरकार भेज ही दिया…। ये नौ बरस कैसे बीते ये मैं ही जानता हूं…। जब भी जोरों की बारिश होती है…बादल अपने परवान पर गरजते हैं….तब—तब शंकरी की याद तेज़ होने लगती…। मेरे लिए आसान न था मां की पसंद वाली लड़की से शादी करना…फिर भी मैं राज़ी हो गया। ऐन वक़्त पर मंडप से उठ गया और शादी करने से इंकार कर दिया…। सच कहूं तो इसी वक़्त मुझे अपने आप पर ये यकीन हो चला कि मैं सच में शंकरी से प्यार करता हूं…उसे दिल से चाहता हूं…। तभी तो उसकी बातें…उसका वो हल्का—हल्का सा स्पर्श…भूला नहीं पाया। नौ बरस में कई बार हिम्मत जुटाई कि कबिलाई बस्ती लौटकर ‘शंकरी’ को अपने साथ ले आऊं…लेकिन शंकरी का कठोर फैसला हर बार याद आ जाता और फिर मेरे कद़म रुक जाते। ‘वनदेवी’ की टेकरी पर उसने आख़िरी बार मुझसे यही कहा था— ‘जाओ सोहन बाबू और पीछे पलटकर मत देखना’…। जब मैंने उससे कहा कि, ‘ईश्वर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे, इस पर वो बोल उठी…नहीं…नहीं…ईश्वर से प्रार्थना करना कि वो दुबारा हमें कभी न मिलाए’….। और बस मेरे कदम उसकी और न जा सके…। मगर मां ने मुझे हिम्मत दी और मुझे कबिलाई बस्ती में शंकरी के पास लौटने को कहा। ‘मां’ बोली कि मैं भी तेरे साथ चलूंगी…। मैं देखती हूं कैसे कबिलाई हमारी बहू शंकरी को हमारे साथ नहीं भेजते…। मैं उन्हें मना लूंगी सोहन…। तू मुझे भी अपने साथ ले चल बेटा….। ‘मां’ के हौंसले से ही मुझमें कबिलाई बस्ती जाने और शंकरी को अपने साथ ले आने की हिम्मत आई हैं। मैं और मां कल सुबह कबिलाई बस्ती के लिए रवाना होंगे…। ‘मैं आ रहा हूं शंकरी…तुमसे मिलने…तुम्हें अपने साथ लाने के लिए …मुझे माफ कर देना…मुझे लौटने में नौ बरस का वक़्त लग गया…अबके तुमसे मिला तो कभी दूर नहीं जाऊंगा…। देखना तुम्हारे पिता भीखू सरदार और पूरी कबिलाई बस्ती हमें माफ कर देगी…और कबिलाई रीति—रिवाज भी हमारे मिलन में रोढ़ा नहीं बनेंगे…। हमारा प्यार मिसाल बनेगा…लोग कहेंगे प्यार हो तो ‘शंकरी—सोहन’ के जैसा….। जैसे ही डायरी का आख़िरी पन्ना ख़त्म हुआ…भीखू सरदार और उसका भाई फुट—फुटकर रो पड़े…। कबिलाईयों की आंखें भी भर आई। टिबड्डे के बीचों—बीच पड़ी शंकरी—सोहन की लाश को देखकर कबिलाई छाती—माथा कुटकर जोर—जोर से रोने लगे। सरदार जिसने अपना फैसला सुनाने में जल्दबाज़ी की उसे अब पछतावा था…वो बार—बार एक ही बात दोहराता काश! सोहन बाबू का पक्ष भी सुन पाता…’हे! वनदेवी ये क्या भूल हो गई मुझसे’…। अपनी ही बेटी के साथ न्याय न कर सका…। जीते जी कैसे माफ़ कर सकूंगा ख़ुद को…। सोहन की ‘मां’ अपने बेटे के सर को गोद में लिए बस रोती रही….। बादल गरजनें लगे…काली घटाएं उमड़—घुमड़कर बरसनें लगी…। शंकरी का मन बार—बार कह रहा था सोहन यहीं कहीं हैं…वो सच थी…। ‘शंकरी—सोहन’ कबिलाई प्रेम—कथा में आज भी अमर हैं…। समाप्त….. कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—7 कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—6 कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—5 कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—4 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—7 next post ‘पारंपरिक खेल’ क्यों नहीं…? 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