सूजी हुई आंखें...कपकपाते हाथ...और छाती में धड़क रहा बेबस कलेजा..., बैठा हैं सड़क पर उन खिलौनों के बीच जो मासूम कांधे पर सवार होकर आज मेले में बिकने को आए थे...। लेकिन जो हाथ इन्हें बेच रहे हैं उनमें अब वो जान नहीं बची जो महज़ कुछ घंटों पहले तक थी। इन हाथों में मजबूर हालातों की उस 'अर्थी का बोझ' ही शेष रह गया हैं जो सिर्फ सहारा बनकर मेले में आई थी...।
यूं तो कमला अपने पति 'लच्छू' के संग हर बरस मेले में खिलौने बेचने जाती हैं। अबके जरा लच्छू ने बिस्तर क्या पकड़ा मेले में जाने को लेकर कमला बेहद चिंतित हो उठी हैं। चैत्र माह की सप्तमी को पाली के सोजत में जमकर मेला भरता हैं। इस मेले से कमला भी हर बार अच्छी खासी कमाई करके लौटती हैं...। हर साल लाखों लोग दूर दराज़ के कोनों से ये मेला देखने आते हैं...। यूं तो मेला आठ दिन तक भरता है लेकिन सप्तमी को ये परवान पर होता हैं।
'थड़ी—ठेले', 'खोमचे' (अस्थायी काम वाले), फेरी वाले और सड़क पर बैठकर माल बेचने वाले फुटकर व्यवसायियों के लिए यह 'उम्मीदों वाला मेला' हैं। इसी उम्मीद के साथ कमला भी इस मेले में सालों से अपने पति के साथ खिलौने बेचती आ रही है।
इस बार लच्छू की बीमारी आड़े आ गई...। इसी बात से वह बेहद उदास और दु:खी है...। वह इसी उलझन में हैं, 'आख़िर इस बार मेले में खिलौने बेचने जाए तो जाए कैसे'...?
और जो मेले में न गई तब घर का ख़र्च कैसे चलेगा, पति का इलाज भी तो करवाना है...। कभी वह बीमार पति को देखती तो कभी अपनी मासूम बच्चियों को...। उसे आज कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
सुबह का चूल्हा जलाने में भी देरी हो गई थी उसे...। उधर भूख के मारे छोटी बेटी भी गला फाड़े रोए जा रही थी...। कमला उसे अपने आंचल में लिए दूध पिलाती हैं, लेकिन छाती से दूध न उतरता...। सुबह से उसने एक अन्न का दाना तक न खाया था, तब छाती में दूध कैसे भरता।
कमला समझ गई, उसने छींके में पड़ी एक ककड़ी उठाई और उसे खाने लगी, तभी लार टपकाती हुई बड़ी बेटी बीनू भी उससे सटकर बैठ गई...।
उसकी सूरत को कमला भांप गई... बीनू को भी भूख लगी हैं। उसने तुरंत अपनी छोटी बेटी को गोदी से उतारकर बीनू के पास बैठा दिया और उसके हाथ में झुंझुना देकर खाने की तैयारी में जुट गई, तब तक बीनू ककड़ी चबाती रही।
बीनू की उम्र वैसे तो सात साल ही थी लेकिन मां की परिस्थिति को भांप लेने की एक 'परिपक्व समझ और दिल' था उसके पास। उसने एक बार भी मां से ये न कहा कि, 'मुझे जोरों की भूख लगी हैं...।' वह झुंझुना बचाती जाती और अपनी छोटी बहन का मन बहलाए रखती...।
इधर, कमला चूल्हे में लकड़ियां डालती और फूंकती जाती...। जैसे—जैसे लकड़ियां आग पकड़ती वैसे—वैसे कमला के मुंह से गुस्से में 'तपे' हुए शब्द बाहर निकलते।
वह लच्छू से कहती-
“ गरीब रो जीवणो भी कोई जीवणो हुवै कांई...
नै बगतसर रोटी मिले,
और नै कनै पइसा हुवै...।
हाड़तोड़ मेणत—मजूरी में आखी जिंदगानी बीत ज्यावै...। ”
ऐसे में ऊपर वाले को इत्ता भी तरस नहीं कि, गरीब आदमी को कम से कम हारी बीमारी से तो मुक्ति दे...।
इत्ते में छोंक लगाते हुए उसकी आंख में तेल का छींटा पड़ गया...। कहने को तो मामूली सा छींटा ही पड़ा था, लेकिन उसकी जलन इतनी तेज थी कि, कमला का पूरा 'जी' ही जल गया था मानो...।
वह भगोनी में पक रही कढी में जोरों की कड़छी घुमाने लगी...। जितनी तेजी से उसका हाथ कड़छी पर घुम रहा था उतनी ही तेजी से उसका मुंह भी चल रहा था...।
'आ गरीबी कोई बेमारी सूं कमती कोनी
जको ऐक बेमारी ओर लागगी...।'
कमाई रो बगत है...।
ओर थूं माचो (खाट) पकड़ लियो...।
भला मैं भी, जो मेले में न जा सकी तो, पेट किससे भरेंगे...।
दानें—दानें को तरसना पड़ेगा...।
क्या ऐसे हाल में तुम्हें और बच्चियों को देख सकूंगी....?
कमला की तकलीफ को लच्छू समझ रहा था। लेकिन टीबी की बीमारी ने जैसे उसे पूरी तरह से पंगू ही बना दिया था..। वह बेबस और लाचार पड़ा था। ऐसे में घर की पूरी जिम्मेदारी अब कमला पर ही थी।
वह रोटी सेंकती जाती और जोरों से चिल्लाती अब के 'बैसाख—जेठ' कैसे गुजरेंगे...? मेरा तो इस ख़याल से भी दिल बैठा जा रहा हैं...।
लच्छू जो अब तक ढिली पड़ी निवार की खाट पर पड़े—पड़े कमला को सुन रहा था वह खांसते—खांसते, पूरी हिम्मत जुटाते हुए उठकर बैठने लगा...।
तभी कमला उसकी मदद के लिए तेजी से दौड़ी और उसे आराम से बैठाया...।
लच्छू ने पास ही रखे गमछे से अपना मुंह पोंछा और कमला की ओर देखकर बोला।
“ थूं सोच—फिकर मती कर
गरीब रो पेट भराई भी...।
पक्को पक्कावट हुवै ई है...।
भूखों कोई नी सोवै...।
की...न...कीं...जोगाड़ बैठ ई ज्यासी...।
पछै म्है कुंण सो आखी उमर माचो झाल्यां राखस्यूं। ”
सप्तमी का मेला भरने में अभी दो दिन और पड़े हैं। तब तक कुछ न कुछ तो रास्ता निकल ही जाएगा।
“भगवान माथे की भरोसो राख...।”
इतना कहकर वह चुप बैठ गया...तभी कमला बोली—
“तुम और तुम्हारी बातें इस बखत मेरे जी को न बहला सकेगी, मेरा मन एक ऐसी नांव में सवार हो चला हैं, जो मंझधार में अटकी पड़ी हैं....'बस'...।”
ये सुनते ही लच्छू बोल पड़ा- अब बस भी कर बीनू की मां...। 'ला मुझे भी खाना परोस दे ...l’
भूख के मारे आंतड़ियां पेट से चिपक गई हैं...। तेरे माथे की 'तेश' (सलवटें) से भी ज़्यादा मेरी 'जठारग्नि' भभक रही हैं...। एक निवाला पेट में जो न गया तो मेरा दम अभी के अभी ही निकल जाएगा…ला खाना दें....।
लच्छू के बोल सीधे कमला के दिल के भीतर जा घुसे...। वह थोड़ी नरम पड़ी और पेट पकड़े हुए बैठे लच्छू के लिए फोरन खाने की थाली ले आई। लच्छू थाली में कढी—रोटी और कांदे का टुकड़ा देख उस पर टूट पड़ा। उससे इतना भी सबर न हुआ कि वो अपनी बेटी बीनू को खाने के लिए पूछता...।
लच्छू को बड़े—बड़े कोर तोड़ता हुआ देख कमला की आंखें भर आई। वह बहुत ही लाचारगी के साथ लच्छू की ओर देखते हुए बोली— 'इसी बात की तो चिंता सता रही हैं मुझे'...। ये एक निवाला जो टेम पर न मिला तो क्या हम सबकी जठराग्नि शांत हो सकेगी ...?
ये सुन लच्छू का हाथ निवाला लिए हुए मुंह पर आते हुए रुक गया।
और वह अपनी बच्ची बीनू को देखने लगा। कमला ने बीनू को भी खाने की थाली पकड़ाई...। बीनू ने झुंझुना फेंक मां के हाथ से छट से थाली ली और खाना खाने लगी।
कमला को उस पर बेहद तरस आया..। उसने बीनू के सिर पर हाथ फेरा और बोली, मेरी बच्ची आज तूने बहुत सबर रखा...। तेरा बहुत सहारा हैं री...। बीनू ने अपनी मासूम मुस्कान के साथ मां को देखा, ये देखते ही कमला का दिल भर आया। उसने बीनू को अपने गले से लगा दिया... और बोली 'खूब लंबी उम्र हो तेरी'...।
धीरे—धीरे उसका मन शांत होने लगा।
कमला मन ही मन सोचने लगी , क्यूं न दोनों बच्चियों को मेले में अपने साथ लेकर चली जाए और पीछे से लच्छू के खाने व दवा की व्यवस्था कर जाए...। उसने तुरंत लच्छू को अपने मन की बात बताई।
सुनो, मुझे एक रास्ता सूझ रहा है,
तुम हामी भरो तो काम हो..।
अब कह दे भला क्या सूझा हैं तूझे...? खांसते हुए लच्छू बोला।
मैं सोच रही हूं दोनों छोरियों को मेले में अपने साथ ले जाऊं।
बीनू, छोटी को संभाल लेगी और खिलौने बेचने में मेरा हाथ भी बंटा देगी।
लच्छू कुछ देर चुप रहा फिर कमला की बात से राज़ी हो गया।
वो इतना ही बोला मेला ख़त्म होते ही चली आना...। मेरी चिंता मत पालना, ज़रुरत पड़ेगी तो पड़ोस से हरि या लखिया को बुला लूंगा...।
लच्छू की बात सुनकर कमला की जान में जान आई। उसकी परेशानी का समाधान मिल गया था, वो हंसकर लच्छू से बोली, हां...हां...मेला ख़त्म होते ही चली आऊंगी...। बस तुम अपना ख़याल रखना।
‘दोनों बच्चियां मेरे साथ मेरी आंखों के सामने होगी तो मुझे भी इनकी चिंता न सताएगी...।’
ऐसा कहकर वो चूल्हें की बाकी लकड़ियां बुझाने लगी...। अकसर खाना बनने के तुरंत बाद कमला अधजली लकड़ियों को राख में दबाकर रख देती है...ताकि दुबारा चूल्हा जलाने में वे बची हुई लकड़ियां काम आ सके।
अगले दिन वो अपने ही गांव के एक व्यापारी से करीब तीस हजार रुपए के खिलौने उधार ले आई।
व्यापारी ने उसे कहा, 'कमला वैसे तो हर बार तू खिलौने ले जाती हैं और समय पर पैसा भी चुका देती हैं। इस बार तूने ज़्यादा उधारी की हैं, मेले से आते ही पैसा चुका देना।'
कमला ने पूरे आत्म विश्वास से उसे बोला, 'होओ सेठ'। आज तक शिकायत का मौका नहीं दिया है...इस बार भी नहीं दूंगी। ऐसा कहते हुए वो घर पर आई और अपनी दोनों बेटियों के साथ मेले में जाने की तैयारी करने लगी।
लच्छू का मन भीतर से बेहद दु:खी है। वो समझ रहा है दोनों छोटी बच्चियों के साथ खिलौने बेचने में कमला को बेहद मुश्किल होगी लेकिन गरीबी ने कमला को हालातों के आगे विवश कर दिया है...।
लच्छू गहरी सोच में था, 'बेचारी कमला भी न गई मेले तो, आने वाले दो महीने जो फांके पड़ेंगे उसका क्या...?' भीतर ही भीतर लच्छू ख़ुद की बीमारी को कोसने लगा...। मगर अपना रोता हुआ दिल किसे दिखाए वो...।
खाट की ढिली पड़ी निवार को ही खींचकर अपने भीतर उठ रहे गुस्से को शांत करने की नाकामयाब कोशिशें करने लगा।
इधर, कमला उसके पास आई और खाट पर ही खाना, पानी व दवा रखकर मेला ख़त्म होते ही आने का बोलकर, बेटियों के साथ मेले की ओर निकल पड़ी। जाते—जाते बीनू पिता की ओर दौड़ती हुई आई और उसके गले से लग गई...। लच्छू ने भी उसे लाड़—प्यार किया और बोला मां की मदद करना, उसे परेशान मत करना और हां जल्दी घर चली आना...। तेरा बाबा इसी खाट पर पड़े हुए तुम सबकी राह देखेगा...। बीनू ने गर्दन हिलाई और खुशी—खुशी फुदकते हुए अपनी मां का हाथ पकड़कर मेले के लिए चल दी।
रास्ते में कमला को अपनी ही ढाणी के बाकी लोग भी मिल गए जो अपना—अपना सामान बेचने के लिए मेले में ही जा रहे थे...। उनका साथ मिलने से रास्ते भर उसे अकेलापन महसूस नहीं हुआ...। ट्रॉली पर सवार हो तीनों मां बेटी दो घंटे के भीतर मेले में पहुंच गई।
कहने को तो ‘अबकाई की ढाणी’ से सोजत की दूरी ‘फलांगे’ भर ही हैं, लेकिन उबड़—खाबड़ रास्तों ने ढाणी के लोगों के लिए इसकी दूरी बड़ा दी हैं। मध्यम आकार के इस छोटे से गांव में कुल डेढ़ सौ परिवार रहते हैं, जो 'एकजुटता और जीवंतता' के धनी हैं...। ढाणी के मुखिया से ये लोग कई बार अबकाई से सोजत तक के लिए पक्की सड़क बनवाने की गुहार लगा चुके हैं...। न जाने कब इनका भाग्य पक्की सड़क पर सवार होगा...अभी तो ‘ढचके’ ही इनकी नियति में खाने को लिखे हैं।
सोजत पहुंचने के बाद कमला ने चारों ओर नज़रें दौड़ाई...। तब सड़क के किनारे उसे एक अच्छी सी जगह मिल गई, उसने अपने खिलौने के कट्टे (सामान का बोरा) ट्रॉली से उतारे और दोनों बेटियों के साथ ज़मीन पर एक चटाई बिछाई।
धीरे—धीरे कमला ने कट्टे से एक—एक कर सभी खिलौने बाहर निकाले और उन्हें बेहद सुंदर तरीके से सड़क के किनारे पर सजाकर बैठ गई।
कमला के चेहरे पर एक सुकून था। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी, 'सारे खिलौने बिक जाए बस'...। उसने दोनों बेटियों को पानी पिलाया और ख़ुद भी ‘तसल्ली का घुट’गटका...।
“मेले में बड़ी रौनक चमक रही थी। चारों तरफ पिपाड़ी, बाजा और बिगुल बजने का शोर था, झूले पर चर्र...चू..चर्र...चू..की आवाजें आती और उसमें बैठे लोगों की हौ हुल्लड़ व हंसी—ठिठोली गूंज रही थी।”
कोई चाट पकौड़ी और भाजी पुरी चटका रहा था तो कोई खरीदारी में मशगूल था। छोटे बच्चे हाथों में गुब्बारा और गुड्डी के बाल लिए हुए गुदगुदा रहे थे...।
कमला जोर—जोर से चिल्लाती जाती आओ—आओ, 'सस्ती कीमत में टाबर ने खुश करो'...'आओे—आओ एक से एक खिलौने हैं, ले जाओ....।' लोग आते और मनपसंद खिलौना खरीदकर ले जाते। कमला बीच—बीच में अपनी छोटी बेटी को भी देखती जाती और उसे झुंझुने से बहलाए रखती।
मां की मदद के लिए बीनू भी उसके साथ—साथ जोर—जोर से चिल्लाती, 'लो बाबूजी सस्ती कीमत में खिलौना ले जाओ'...'अपने टाबर (बच्चा) को खुश करो'...।
वह सड़क पर घूम—घूमकर लोगों को अपनी तुतलाती बोली में खिलौना खरीदने को कहती...। उसकी मासूमियत और मुस्कान देखकर लोग उससे खिलौना खरीदते और कमला के हाथ में पैसा रख जाते...। बीनू के हाथ से एक—एक करके कई सारे खिलौनें बिक गए...।
धीरे—धीरे मेला परवान पर चढ़ने लगा। भीड़ देखकर कमला बेहद खुश होती है। वह सोचती हैं इस बार वो अच्छी कमाई करके घर लौटेगी। दोपहर ढ़लते—ढ़लते उसके आधे खिलौने बिक गए।
कमला बीनू को कहती, 'मेरी लाडली आज तूने मेरी बहुत मदद की हैं वरना इतने खिलौने बेचना मुझ अकेली से संभव न था। अब तू अपनी छोटी बहन को संभाल में खिलौने बेचने के लिए खड़ी होती हूं...।'
कमला ने अपनी थैली से खाने का डिब्बा निकाला और और बीनू को पहले रोटी—सब्जी खाने को दी..।
बीनू खाना खाने लगी तब कमला ने छोटी बेटी को भी दूध पिलाया और ख़ुद भी भूंगड़े (भुने हुए चने) चबाने लगी..।
जब बीनू ने खाना खा लिया तब कमला खिलौने हाथ में लिए खड़ी हुई और लोगों को बुलाने लगी...आओ—आओ, 'सस्ती कीमत में टाबर ने खुश करो'...'आओे—आओ एक से एक खिलौने हैं, ले जाओ....।'
बीनू अपनी छोटी बहन को संभालने लगी। वह उसके साथ नाक से नाक मिलाकर खेलती तो कभी अलग—अलग चेहरे बनाकर उसे हंसाती...। कभी उसे कांधे पर लेकर खड़ी होती तो कभी उसे गोद में बैठाकर झुंझुना बजाती ...। कमला उन दोनों को देखकर मुस्कुराती रहती।
तीसरा प्रहर ढलने को था, कमला कुछ देर अपनी दोनों बेटियों के पास आकर बैठ गई...।
तभी बीनू ने कमला से कहा, 'मां मुझे भी झूला झूलना है। मेरा भी मन हैं...क्या मैं झूला झूल लूं...।'
कमला कहती हैं नहीं, अकेले नहीं...।
लेकिन बीनू ज़िद करते—करते रोने लगी तो कमला का दिल नरम पड़ गया। उसने सामने ही खड़े झूले वाले को ज़ोर से आवाज़ लगाई और हाथ से इशारा करते हुए कहा, 'भैया इसे भी एक चक्कर झूला दे...।'
बीनू खुश होकर झूले की ओर दौड़ पड़ी...। वह झट से झूले में बैठी और झूलने लगी। कमला की नज़रें उसी पर थी। बीनू हाथ हिला—हिलाकर 'मां...मां...देखो'...कहती जाती और इधर कमला भी उसे देखती और हंसती जाती।
बीनू अपनी बहन को भी आवाज़ें लगाती...'छोटी...छोटी...देख मुझे...।'
मेले की भीड़...सड़कों पर सजे खिलौने और झूला झूलती बीनू की खुशी कमला को बेहद सुकून दे रही थी। वो मन ही मन इस पल की खुशी के उन्माद में झूम रही थी। गरीबों के नसीब में गिनती के ही क्षण होते हैं जब उनके हाथ झोली भर खुशियां आती हैं। कमला के लिए भी ये क्षण ऐसा ही था। 'मां...मां'...चिल्लाती बीनू की आवाज़ ने कमला का आंचल खुशियों से भर दिया।
तभी अचानक झूले पर से बीनू का संतुलन बिगड़ गया और वह धड़ाम से आकर ज़मीन पर गिर पड़ी। ये दृश्य देख कमला की आंखें फट गई वह सबकुछ छोड़ बीनू की ओर भागी और उसे गोदी में उठाया।
बीनू के माथे से खून बह रहा था...कमला अचेत पड़ी बीनू को अपनी बाहों में समेटे हुए जोर—जोर से रोने लगी, 'बीनू आंखे खोल...देख मैं..-तेरी मां…।'
अगला भाग जल्द ही.....
कबिलाई— एक 'प्रेम' कथा.... भाग—2