प्रासंगिकलेखक/साहित्यकारसम सामयिक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक… by teenasharma May 13, 2022 written by teenasharma May 13, 2022 वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में हम! ‘कहानी का कोना’ में पढ़िए ‘शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार’ डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा लिखित लेख ‘वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में हम’…! हाल में एक अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने अपनी बीसवीं वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रपट ज़ारी की है. इस रिपोर्ट में 180 देशों और इलाकों में प्रेस स्वतंत्रता की स्थितियों की पड़ताल कर जो नतीज़े दिये गए हैं, वे बहुत आश्वस्तिकारक नहीं हैं. _____________________________ बात अगर केवल संख्या तक सीमित रखी जाए तो तस्वीर बहुत खुशनुमा नज़र आएगी. हमारे देश में मीडिया का खूब विस्तार हुआ है. भारत में लगभग एक लाख समाचार पत्र हैं, जिनमें छत्तीस हज़ार साप्ताहिक हैं. इसी तरह हमारे देश में तीन सौ अस्सी टेलीविज़न चैनल हैं. ये आंकड़े बहुत प्रभावशाली हैं. इनके अलावा भी काफी कुछ है. इधर जब से ऑनलाइन मीडिया दृश्य पटल पर आया है, बहुत कुछ है जो हमें सुलभ है लेकिन जिसको इस गिनती में शामिल नहीं किया गया है. मुझ जैसे लोगों ने तो वह समय भी देखा है जब टेलीविज़न का केवल एक चैनल- दूरदर्शन हुआ करता था और वह भी कुछ घण्टों का ही प्रसारण करता था. डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल इससे पहले हमारे लिए समाचारों का एकमात्र स्रोत ‘ये आकाशवाणी है, अब आप अमुक से हिंदी में समाचार सुनिए’ था. अख़बारों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी. जिन छोटे कस्बों में मैं बड़ा हुआ वहां दिल्ली से छपने वाले अखबार पूरे चौबीस घण्टों बाद मिला करते थे और अखबार भी हरेक को मयस्सर नहीं थे. अब न केवल मीडिया का संख्यात्मक विस्तार हुआ है, समाचार प्रेषण और उनके प्रस्तुतिकरण में भी काफी कुछ बदला है और ये सब बहुत द्रुत हुए हैं. इनकी गुणवत्ता में भी बहुत बदलाव हुए हैं. लेकिन इससे यह न मान लिया जाए कि हमारा मीडिया परिदृश्य खुशनुमा और आश्वस्तिकारक है. मेरे पास यह कहने के लिए पर्याप्त कारण व प्रमाण हैं. हाल में एक अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने अपनी बीसवीं वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रपट ज़ारी की है. इस रिपोर्ट में 180 देशों और इलाकों में प्रेस स्वतंत्रता की स्थितियों की पड़ताल कर जो नतीज़े दिये गए हैं, वे बहुत आश्वस्तिकारक नहीं हैं. यह संगठन सन 2002 से हर साल एक सूचकांक ज़ारी करता है, और इसके हाल में ज़ारी सूचकांक के अनुसार भारत 180 देशों की सूची में 150 वें स्थान पर है. जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, यह भी बताया गया है कि सन 2016 में हम 133 वें स्थान पर थे, पिछले साल अर्थात 2021 में 142 वें स्थान पर थे. अर्थात हमारे यहां स्थितियां बदतर होती गई हैं. यह संगठन वैश्विक आधार पर पूर्णांक 100 में से अंक देकर प्रेस स्वतंत्रता की स्थिति बताता है. इन सूचकांकों के अनुसार 92.65 अंक पाकर नॉर्वे सबसे ऊपर है और मात्र 13.92 अंक पाकर उत्तरी कोरिया सबसे नीचे है. भारत को 100 में से 41 अंक मिले हैं. हमारे संतोष के लिए यह कि रूस, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्ला देश, सऊदी अरब, क्यूबा, वियतनाम, चीन और ईरान जैसे देशों की स्थितियां हमसे भी ख़राब है. लेकिन संयुक्त अरब अमीरात, ज़िम्बाब्वे, मोरक्को, अल्जीरिया, युगांडा, लेबनान, नाइजीरिया, बोलीविया, जॉर्डन, यूक्रेन, जॉम्बिया, बोत्स्वाना, मंगोलिया, सर्बिया, घाना, दक्षिण अफ्रीका और भूटान जैसे देशों में हमारे देश से बेहतर प्रेस स्वतंत्रता का होना हमें उदास और सोचने के लिए मज़बूर भी करता है. भारत का ज़िक्र करते हुए इस रिपोर्ट में दो टूक लहज़े में कहा गया है कि “भारतीय प्रेस को जो कि मूलत: उपनिवेशवादी आंदोलन का उत्पाद था खासा प्रगतिशील माना जाता था लेकिन 2010 वाले दशक के मध्य से, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने अपनी पार्टी बीजेपी और मीडिया पर वर्चस्व रखने वाले बड़े घरानों के बीच घनिष्टता कायम की, स्थितियां आधारभूत रूप से बदल गईं हैं.” इस बात के समर्थन में रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ लिमिटेड के चेयरमेन का भी ज़िक्र है जो अस्सी करोड़ भारतीयों तक पहुंच रखने वाले सत्तर से ज़्यादा मीडिया आउटलेट्स के स्वामी हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को हर तरह से परेशान किया जाता है और उन के खिलाफ़ भक्त कहे जाने वाले लोगों द्वारा हमला-अभियान चलाए जाते हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है भारत का मीडिया परिदृश्य भारत की ही तरह बहुत विशाल और भीड़ भरा है. लेकिन भारत का मीडिया चंद बड़े घरानों के स्वामित्व में है. चार बड़े दैनिक समाचार पत्र हिंदी के पाठकों के तीन चौथाई को कब्ज़े में किए हुए हैं. क्षेत्रीय भाषाओं के मामले में तो यह स्वामित्व और भी अधिक तीखा है. करीब-करीब ऐसे ही हालात टीवी के मामले में भी हैं. मीडिया के आर्थिक परिप्रेक्ष्य को उजागर करते हुए यह रिपोर्ट बताती है कि अपनी बड़ी हैसियत के बावज़ूद हमारा मीडिया सरकारी विज्ञापनों पर बहुत ज़्यादा आश्रित है. केंद्रीय स्तर पर तो सरकार ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है कि वह विज्ञापन देकर अखबारों को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकती है. रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार अपने विज्ञापनों पर हर साल तेरह हज़ार करोड़ (130 बिलियन) रुपये खर्च करती है. और इतना खर्चा तो केवल प्रिण्ट और ऑनलाइन माध्यमों पर ही किया जाता है. यह अकारण नहीं है कि बहुत सारे बड़े मीडिया घरानों से आने वाली ख़बरें सीधे-सीधे सत्तारूढ़ दल का प्रचार करती हैं. इसके अलावा हमारे मीडिया पर उच्च वर्गीय लोगों और पुरुषों का वर्चस्व है. ज़ाहिर है कि इस वर्चस्व का सीधा असर ख़बरों के चरित्र और उनके झुकाव पर पड़ता है. इस रिपोर्ट में सबसे ज़्यादा चिंतित करने वाली बात यह कही गई है कि मीडिया के लिहाज़ से भारत दुनिया के सबसे ज़्यादा ख़तरनाक देशों में से एक है. पिछले दिसम्बर में तो इस संस्थान ने हमारे यहां अपना काम करते हुए मारे गए पत्रकारों की संख्या के आधार पर भारत को पांच सबसे ख़तरनाक देशों की सूची में रख दिया था. हमारे यहां हर साल तीन-चार पत्रकारों को अपना काम करते हुए जान से हाथ धोना पड़ता है. उन्हें हर तरह की हिंसा से जूझना पड़ता है. यह हिंसा कभी पुलिस की होती है तो कभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की और कभी अपराधियों या भ्रष्ट अफसरों की. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने यह बात इसलिए कही है कि वह इस बात में विश्वास करता है कि मुक्त और विश्वसनीय समाचारों पर हर मनुष्य का अधिकार है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने जब दिसम्बर में भारत की चिंताजनक स्थितियों की चर्चा की तो केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने एक बयान में कहा कि केंद्र सरकार 2021 के सूचकांक में भारत के स्थान से सहमत नहीं है. लोक सभा में अपने लिखित बयान में उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट एक बहुत छोटे सेम्पल पर आधारित है और इसमें ‘प्रजातंत्र के आधारभूत सिद्धांतों’ की अनदेखी की गई है. मंत्री जी का यह बयान स्वाभाविक ही था. उन्हें इस रिपोर्ट से असहमत होना ही था. लेकिन यहीं यह जान लेना भी उपयुक्त होगा कि जिस संस्थान की रिपोर्ट के आधार पर यह सब लिखा जा रहा है, उसकी विश्वसनीयता क्या है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक अंतर्राष्ट्रीय अलाभकारी संगठन है जो प्रजातांत्रिक शासन-विधि से संचालित होता है. संगठन स्वयं को न तो एक श्रम संगठन मानता है और न ही यह स्वयं को मीडिया कम्पनियों का प्रतिनिधि मानता है. इसकी स्थापना सन 1985 में चार पत्रकारों द्वारा की गई थी. 1995 से ही फ्रांस में इस संगठन को एक जन पक्षधर संगठन के रूप में मान्यता प्राप्त है और संयुक्त राष्ट्र संघ, यूनेस्को तथा काउंसिल ऑफ यूरोप एण्ड द इण्टरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ फ्रेंकोफ़ोनी ने इसे सलाहकारी दर्ज़ा प्रदान कर रखा है. पूरी दुनिया में इस संगठन के 115 संवाददाता हैं और इसके अलग-अलग देशों में छह कार्यालय हैं. इसका अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय पेरिस में है. निश्चय ही सरकार व उसके समर्थकों का यह फर्ज़ है कि वे इस तरह की रिपोर्ट को अस्वीकार करें. देखने की बात यह है कि असहमति और आलोचना के प्रति हमारा रवैया कैसा है! मीडिया से बाहर निकल कर अगर हम सामान्य जीवन में भी देखें तो स्थिति यह है कि असहमति को सद्भावनापूर्वक ग्रहण करने के दिन बीत चुके हैं. सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की हों, निरंतर कर्कश होती जा रही हैं. अगर हम किसी एक दल की बात करते हैं तो ऐसा करना हमारी मज़बूरी है. इसलिए मज़बूरी है कि उसी दल का वर्चस्व है. लेकिन जहां दूसरे दलों का वर्चस्व है वहां भी स्थिति अलहदा नहीं है. इसलिए बात सत्ता के चरित्र की है, इस या उस दल की नहीं. और यहीं यह बात भी कहना ज़रूरी है कि क्या इस बात पर विचार नहीं होना चाहिए कि किसी भी सरकार को विज्ञापनों पर इतनी बड़ी धनराशि क्यों खर्च करनी चाहिए? यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि सरकारें विज्ञापनों के नाम पर दी जाने वाली राशि अपने प्रति वफ़ादारी खरीदने के लिए इस्तेमाल करती हैं. अगर मीडिया का कोई भी अंग, विशेष रूप से समाचार पत्र किसी सरकार के खिलाफ़ आवाज़ उठाता है तो सरकार पहला काम उसके विज्ञापन बंद करने का करती है. एक मुख्यमंत्री तो सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि मैं उसी अख़बार को पैसा दूंगा जो मेरी ख़बरें दिखाएगा. उनकी ख़बरें न दिखाने वाले अखबार को विज्ञापन देना वे बंद करके दिखा भी चुके हैं. फिर कहूंगा कि उन्होंने तो यह बात कह दी, अन्य लोग बिना कहे भी करते ऐसा ही हैं. स्वयं मीडिया को भी सोचना होगा कि सरकारी विज्ञापनों पर अतिशय निर्भरता उसकी स्वतन्त्रता के लिए कितनी बाधक है? लेकिन इस बात को भी हम विस्मृत नहीं कर सकते कि इन्हीं विज्ञापनों की वजह से हमें बीस रुपये की लागत वाला अख़बार पांच रुपये में मिलता है. अगर हम स्वतंत्र और भरोसेमंद पत्रकारिता चाहते हैं तो हमें भी अपनी जेब ढीली करने को तैयार रहना होगा. डॉ- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (शिक्षाविद और साहित्यकार) जयपुर _____________________ ‘कहानी का कोना’ में और भी लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें— ‘मर्दो’ का नहीं ‘वीरों’ का है ये प्रदेश …. बजता रहे ‘भोंपू’…. गणतंत्र का ‘काला’ दिन.. वर्चुअल दुनिया में महिलाएं असुरक्षित असल ‘ठेकेदारी’ करके तो देखो.. medianewspaperpress 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail teenasharma previous post ऐसे थे ‘संतूर के शिव’ next post ‘चरण सिंह पथिक’ Related Posts साहित्यकार सम्मान April 17, 2023 अपनत्व April 12, 2023 लघुकथा—सौंदर्य February 11, 2023 सन्दूक January 25, 2023 एक शाम January 20, 2023 ह से हिंदी January 18, 2023 गुटकी January 13, 2023 महिला अधिकार व सुरक्षा January 12, 2023 मिलकर काम करें ‘लेखक—प्रकाशक’ 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