बात उन दिनों की हैं जब एक छोटे से गांव कृष्णपुर में बड़े जमींदारों, ठाकुरों और पाटीदारों को छोड़कर आम लोगों के पास रहने के लिए ईंट, गारा और पत्थर के मकान हुआ करते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने के लिए एकमात्र साधन साइकिल ही होती थी वो भी सभी के पास नहीं थी। हां कुछेक बड़े किसानों के पास ख़ुद की बेलगाड़ी ज़रुर थी जो अनाज व चारा लाने ले जाने के काम के अलावा कभी—कभार हारी—बीमारी में भी गांव के लोगों को अस्पताल पहुंचाने के काम आया करती थी। लोग हर सुख और दु:ख में एक—दूसरे के बेहद क़रीब थे।
कृष्णपुर गांव के लोग सादा जीवन उच्च विचार की सोच वाले थे। जो मिला वो खा लिया जब नींद आई तब बांस से बनीं चटाई बिछाकर सो गए। सोने के लिए गद्देदार बिछौने की कोई बड़ी चाहत न थी। जिसके पास अच्छा बिछौना था उसे भी इसे लेकर कोई घमंड या अकड़ नहीं थी।
मनोरंजन के नाम पर गांव में सालभर में आठ से दस बार ऐसे आयोजन भी होते थे जिसे लेकर लोगों में बेहद उत्साह व आकर्षण रहता। गांव के सबसे बड़े चबूतरे पर रामलीला का मंचन होता था। गांव में चार पहियों की गाड़ी जब भी आती तो उसका भौंपू सुनकर ही लोग समझ जाया करते कि शहर से कोई मंडली नाच गाना या फिर तमाशा दिखाने आई है।
जिस स्थान पर ये आयोजन होते थे वहां पर गांव के लोग स्व:प्रेरणा से ही साफ़—सफ़ाई करने पहुंच जाते। पांडाल सजाए जाते, सजावटी चमकदार लड़ियां बांधी जाती, पीने के पानी के लिए टोटी वाले नल लगाए जाते...आदमी व औरतों के बैठने के लिए अलग—अलग दरिया बिछाई जाती...। गांव की गाय और बाकी ढोरों के लिए भी रास्ता बदल दिया जाता ताकि गोबर से सड़के ख़राब ना हो।
पूरे गांव की फ़िज़ा इस वक़्त बदली हुई रहती। क्या बच्चे क्या बड़े और क्या बूढ़े सभी को शाम ढलने का बेसब्री से इंतजार रहता। क्योंकि इसके बाद ही इन कार्यक्रमों का आयोजन होता था।
घरों की औरतें झटपट से अपनी रसोई का काम निपटाती तो आदमी खेतों का काम पूरा करके सांझ ढलने से पहले ही घर लौट आते। ढोरों को भी चरवाहे जल्दी ले आते और खूंटों से बांध देते। घर के बुजुर्ग भी नई धोती और कुर्ता पहनकर तैयार होते तो बुजुर्ग महिलाएं हाथ फूल और टड्डा पहनकर तैयार होती। ऐसा लगता मानों दिवाली का पर्व हो...। ये कोई आज ही की बात नहीं थी बल्कि ये सिलसिला तो बरसों से चला आ रहा था।
आज भी लोगों में यही उत्साह और उमंग हैं बस कुछ ही देर में रामलीला शुरु होने वाली है। सभी को इंतज़ार हैं तो बस घंटी बजने का।
ये घंटी आयोजकों की ओर से बजने वाली या फिर किसी मंदिर में बजने वाली घंटी नहीं थी बल्कि 'भगत बा' की घंटी थी।
'भगत बा' कृष्णपुर गांव की जान थे। ये जन्म से ही नेत्रहीन थे। लेकिन पहली बार इन्हें देखने और मिलने वाले अकसर धोखा खा जाया करते थे। क्योंकि भगत बा के हावभाव और बोलचाल से बिल्कुल पता नहीं चल पाता था कि वे देख नहीं सकते हैं।
बचपन में एक हादसे में इनके मां—बाप चल बसे थे। तभी से ये अकेला जीवन जी रहे थे। इनका अपना सगा तो कोई नहीं था लेकिन पूरा गांव ही इनके प्यार में बंधा हुआ था। इसीलिए इन्हें कभी अपनों की कमी महसूस नहीं हुई।
इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत थी इनका निस्वार्थ प्यार। जो पूरे गांव वालों के लिए एक समान था। इन्होंने लोगों के बीच प्यार और सादगी से जीने का बीज बोया था। ये सभी को मिलकर रहने और जो हैं जितना हैं उसमें खुश होकर जीने को कहते। इनके कहने का तरीका ही इतना आत्मिक और भावपूर्ण होता था जिसे लोग सहज ही स्वीकार कर लेते थे। कृष्णपुर की सादगीपूर्ण जीवनशैली की वज़ह भगत बा ही थे।
सफेद धोती कुर्ता और सफेद पगड़ी बांधे हुए हाथ में लकड़ी की छड़ी लिए हुए पत्थर व मिट्टी की सड़कों से होते हुए सत्तर साल के भगत बा पैदल ही कहीं पर भी आते—जाते थे। इसी छड़ी पर लोहे की घंटी लगी हुई थी। वे जिस भी रास्ते से होकर गुज़रते इस घंटी को बजाते हुए जाते। एक तरह से भगत बा की घंटी पूरे गांव के लिए अलार्म का काम करती थी। ट्रिंग—ट्रिंग...ट्रिंग—ट्रिंग....।
सुबह गांव वालों की नींद भगत बा की घंटी से ही खुलती थी। ये सुबह चार बजे उठते थे और अपनी दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद तैयार होकर मंदिर के लिए पांच बजे निकल पड़ते। इस दौरान पूरे रास्ते भर घंटी की ट्रिंग—ट्रिंग की आवाज़ सुनाई देती थी। पूरा गांव भगत बा की दिनचर्या से वाकिफ़ था और इनकी इसी दिनचर्या के हिसाब से गांव वाले भी अपना जीवन जी रहे थे।
एक तरह से पूरा गांव एक ऐसे अनुशासन में बंधा हुआ था जो सुखद अनुभूति कराता था। जिसमें भगत बा के प्रेम और खुशमिजाजी की मिठास थी।
भगत बा के यूं तो गांव में कई रिश्तेदार थे। लेकिन वे किसी की सहायता न लेते। बस दो वक़्त का भोजन ज़रुर इन रिश्तेदारों के यहां से बारी—बारी से आता था। भगत बा नहीं चाहते थे कि कोई भी व्यक्ति उनकी वजह से परेशान हो। लेकिन नेत्रहीन होने के कारण रिश्तेदारों ने इनकी एक नहीं सुनी और इनके लिए नियमित रुप से खाना पहुंचाने की जिम्मेदारी उठाई। बहुत आग्रह के बाद ही भगत बा खाना लेने को राज़ी हुए थे। लेकिन बदले में वे इन रिश्तेदारों की भी मदद करते। जैसे—कपड़ों की दुकान में बैठकर कपड़ों की घड़ी करना और उन्हें करीने से जमाना, किसी का टीफिन पहुंचाना...या हिसाब—किताब में हाथ बंटाना ऐसे कई काम थे जिसे करके ही वे घर लौटते थे।
लेकिन खाना खाने के बाद अपने झूठे बर्तन ख़ुद भगत बा ही साफ़ करते। इतना ही नहीं अपनेे ख़ुद के कपड़े धौना, घर का झाडू लगाना, ख़ुद की चाय बनाना ऐसे कई छोटे—छोटे काम भी वे ख़ुद ही करते थे। इन्हें ज़िंदगी में किसी से कोई भी शिकायत न थी। जब भी ये मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेकते तो एक ही शब्द कहते 'प्रभु सबकी रक्षा करना..सभी स्वस्थ्य और खुशहाल रहें' ...।
वे आज बेहद खुश हैं क्योंकि आज से पूरे दस दिन तक रामलीला का मंचन होगा और गांव में मेले सा माहौल होगा। जिससे गांव की रौनक बढ़ जाएगी।
इन्हें झांझ बजाने का बेहद शौक था इसीलिए इनके कुर्ते की जेब में हमेशा तांबे की झांझ रखी होती थी। आज पूरे गांव में जश्न का माहौल हैं। वे भी इस मौके पर खूब झांझ बजाने की ख़्वाहिश मन में लिए हुए चेहरे पर एक सुंदर सी मुस्कान के साथ सांझ ढलते ही घर के लिए निकल पड़ते हैं।
हाथ में छड़ी लिए हुए और उस पर लगी घंटी बजाते हुए वे तकरीबन आधा रास्ता ही पार करते हैं तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ता हैं और वे सड़क पर गिर पड़ते हैं। सीने पर हाथ रखे हुए और दर्द से कराहते हुए भगत बा की आंखों से आंसू निकल रहे थे। रास्ता एकदम सुनसान था। उनकी आंखों में अपनी हालत की बेबसी थी। ज़िंदगी और मौत के बीच वे काफी देर तक संघर्ष करते रहे। वे अपने प्रभु को याद करने लगे। थोड़ी ही देर में उनकी आंखे हमेशा के लिए बंद हो गई।
सड़क पर उनकी छड़ी पड़ी थी और तांबे के झांझ। उम्र भर इनके साथ सबसे अधिक समय बिताने वाली छड़ी, घंटी और झांझ आज तीनों का साथ छोड़कर भगत बा इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे।
गांव वाले जो बेसब्र होकर भगत बा की घंटी बजने का इंतज़ार कर रहे थे अब उनका इंतज़ार भी हमेशा के लिए थम गया था।
मंच पर कलाकार तैयार होकर खड़े थे लेकिन उनके दर्शक नहीं पहुंचे थे। पूरे गांव की खुशियां पलभर में ही ख़ामोश हो गई थी। आज गांव की सांसे भी मानों थम सी गई थी। जिसने सुना वो अवाक था...लोग जोर—जोर से रो रहे थे....मानों सभी की पूरी दुनिया ही उजड़ गई हो।
भगत बा के पास धन दौलत नहीं थी। ना ही कोई बड़ी ज़ागीरदारी। फिर भी लोग उन्हें अपनी जान से ज़्यादा प्यार करते थे।
'भगत बा' का स्वाभिमानी जीवन, अहम रहित स्वभाव और एक अनुशासित दिनचर्या पूरे कृष्णपुर गांव के लिए एक मिसाल बनकर रह गई है। गांव की स्मृतियों में आज भगत बा की घंटी और झांझ की आवाज़ की गूंज ही शेष हैं।
धीरे—धीरे वक़्त बढ़ा और कृष्णपुर गांव का विकास भी इसी वक़्त की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आगे बढ़ता चला गया। लेकिन गांव के लोगों में भगत बा का दिया हुआ अनुशासन ज़िंदा हैं।
आज भी कृष्णपुर गांव में भगत बा की यादें बसी हैं। लोग अपनी आने वाली पीढ़ी को भगत बा के किस्से बड़े चाव से सुनाते हैं। एक ज़िंदादिल इंसान के बाकी निशां शायद यही हैं..।
बेबसी की 'लकीरें'...