प्रासंगिकलेखक/साहित्यकार महिलाओं के बिना अधूरा ग़ज़ल ‘फलक’ by Teena Sharma Madhvi March 8, 2021 written by Teena Sharma Madhvi March 8, 2021 कच्चा मकां तो, उंची इमारत में ढल गया आंगन में वो जो रहती थी चिड़ियां, किधर गई…’। ममता किरण की इस ग़ज़ल ने विकास की भेंट चढ़ गए खूबसूरत अहसास को कुछ यूं बयां किया और सभी के मानस को झंकझोर दिया। इनकी पंक्तियों ने एक महिला ग़ज़लकार के रुप को न सिर्फ मजबूती दी हैं, बल्कि ऐसी ही रचनाकारों को इस क्षेत्र में आगे आने की राह भी दिखाई हैं। ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा हैं जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुई। संगीत के क्षेत्र में इस विधा को गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से अलग शैली निर्मित हुई। फोटो—टीना शर्मा’माधवी’ जब कभी यह सवाल पूछा जाता हैं कि ग़ज़ल क्या हैं तो हम कह सकते हैं कि ग़ज़ल जज़्बातों को चंद अलफाज़ों से बयां करने का खूबसूरत अंदाज हैं। ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय, मधुर, दिलकश औऱ रसीला अंदाज़ भी हैं। ग़ज़ल एक तरफ तो इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड देती हैं औऱ दूसरी ओर वही ग़ज़ल लोगों में जज्बात और अहसास भर देती हैं। अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ देखा जाए हैं तो ये औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना हैं। जिसे पुरुषों ने काफी हद तक नज़्मों में निभाया हैं। लेकिन जब ख़ुद महिलाएं ही ख़ुद पर नज़्में कहने लगी तो इसके मायने ही बदल गए। फिर भी अमूमन लोगों को अब भी महिला ग़ज़लकारों के होने को लेकर भ्रम हैं। क्या महिलाएं भी ग़ज़लें लिख और बोल सकती हैं…? क्या मंचों पर आकर एक अदब में वे भी अपना रचनापाठ कर सकती हैं…? ये सवाल कईयों के ज़ेहन में कुंदियाता फिरता हैं। एक वक़्त था जब स़्त्रियां सुबह से लेकर रात तक सिर्फ घर के रोजमर्रा कामों में ही व्यस्त हुआ करती थी। हुनर के बावजूद उनकी प्रतिभा को समझने वाला कोई न था और ना ही उन्हें अपने हुनर को बाहर लाने की इजाजत थी…। आज वक़्त के साथ सोच भी बदल रही हैं। इसकी एक मिसाल वे तमाम महिला ग़ज़लकार भी हैं, जिन्होंने महिलाओं की छवि को चूल्हे चौके से बाहर निकालकर शब्दों के मंच पर ला खड़ा किया हैं। देश के हर कोने में ऐसी ग़ज़लकाराओं के नामों की फेहरिस्त हैं जो हर तरह की जुबां में ग़ज़ल और नज्म का सृजन कर रही हैं। इनमें डॉ.रमा सिहं, डॉ. भावना, डॉ. वर्षा सिंह, सरोज व्यास, देवी नागरानी, सिया सचदेव, तूलिका सेठ, आशा शैली, मरियम ग़ज़ाला, नमिता राकेश समेत कई महिला ग़ज़लकारों के नाम शामिल हैं। जिनकी ग़ज़लें बनावटीपन से दूर हैं। इनकी ग़ज़लों में संघर्षो और विसंगतियों का चित्रण हैं तो देश व समाज की व्यवस्थाओं पर गहरे तंज भी। लेकिन इनके लिए ग़ज़ल का सफर तय करना आसान नहीं था फिर भी इन्होंने अपने चिंतन और अनुभवों के दम पर पुरुषों का क्षेत्र कहे जाने वाले मंच पर भी बेबाकी से बोला और एक मुकाम हासिल किया…। इतने संषर्घो के बावजूद इनकी आवाज़ सीमित मंचों और सीमित वर्गो तक ही पहुंच रही हैं। ये अब भी चिंतनीय विषय हैं। अगर हमें हमारी इस आधी आबादी के हुनर को आगे लाना हैं तो महिला ग़ज़लकारों के लिए भी अलग से मंचों का आयोजन करना होगा…महिला ग़ज़लकारों के नाम पर अवॉर्ड शुरू करने होंगे ..राज्य व केंद्र के कला व संस्कृति को बढ़ावा देने वाले बजट में अलग से फंड जारी करना होगा…ऐसे संस्थानों को आगे आना होगा जो अनुभवी और वरिष्ठ ग़ज़लकारों के सेमिनार रखें..। समय—समय पर इनके नामों को सूचीबद्ध किया जाए..। ताकि युवा पीढ़ी को इसकी समझ हो सके और वे इस परंपरा को आगे बढ़ा सके। इस संबंध में सांचौर राजस्थान के युवा ग़ज़लकार के.पी. अनमोल कहते हैं कि समकालीन ‘हिन्दुस्तानी ग़ज़लों’ पर काम करते हुए महिला ग़ज़लकारों की संख्या बहुत कम नज़र आई। गिनी—चुनी ग़ज़लकार ही पढ़ने व सुनने को मिली। तब पहली बार महसूस हुआ कि पुरुष ग़ज़लकारों की तुलना में महिलाओं की संख्या बेहद कम हैं। या फिर कोई और वजह हैं। जवाब की तलाश में एक ऐसे संकलन को तैयार करने का मन बनाया जो पूरी तरह से महिला ग़ज़लकारों पर केंद्रित हो। लेकिन देश के कोने—कोने में ग़ज़ल लेखन करने वाली रचनाकारों को खोजना आसान न था। अनमोल ने इस काम को एक मुहिम बनाया और देशभर की 101 महिला ग़ज़लकारों को संकलित करने का काम किया। जो अलग—अलग माध्यमों पर ग़ज़ल पढ़ रही हैं। अनमोल ने, ‘मन करता हैं उड़ के जाए बाहों में भर ले… लेकिन चिड़िया के जैसे वो कब उड़ पाती हैं…’। जैसी गजलों के माध्यम से स्त्री मन के भावों को उकरने का बखूबी प्रयास किया हैं। ग़ज़ल संस्कृति को बचाने के लिए यह अनमोल जैसे एक युवा की बेहतरीन पहल हैं। लेकिन इतना ही काफी नहीं हैं। ग़ज़ल कहना हमारी संस्कृति और परंपरा का एक खूबसूरत हिस्सा हैं, इसके लिए इसका दायरा बढ़ाया जाए। महिलाओं को भी पुरुषों के समान बड़े मंच दिए जाएं, तो निश्चित ही ‘ग़ज़ल फ़लक’ का विस्तार हो सकेगा। और ये भ्रम भी टूटेगा कि महिलाएं ग़ज़लें नहीं पढ़ सकती। इस परंपरा को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी न सिर्फ शासन व प्रशासन की हैं बल्कि हमारी भी हैं। हमें ख़ुद भी यह तय करना होगा कि इस हुनर को आगे कैसे बढ़ाएं..? अब जबकि ‘सोशल मीडिया’ जैसा एक बड़ा मंच सामने हैं। जिस पर महिला ग़ज़लकारों का लेखन दिखाई देने लगा हैं। ऐसे में इनकी लेखनी को विस्तार देना मुश्किल काम नहीं। कला व संस्कृति मंत्रालय व सभी राज्य सरकारें इस दिशा में एक बेहतर कदम उठाएं। समय—समय पर इसके लिए भी आयोजन कराएं। इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता हैं कि सोशल मीडिया के जरिए ही ऐसे हुनरमंद नामों की संख्या में इज़ाफा हो रहा हैं। वरना हुनरमंद ‘महिला ग़ज़लकारों’ की लेखनी की कलाबाजी यूं पढ़ने व सुनने को न मिल रही होती। आज पूरा विश्व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा हैं ऐसे में हमें ये सोचना होगा कि हमारी ये महिला ग़ज़लकार कहां हैं। प्रसिद्ध महिला ग़ज़लकार डॉ.तारा गुप्ता ने अपने एक शेर में कहा है कि— ‘महज़ आकाश छूना प्यास का मिटना नहीं होता ज़मीं पर पांव का टिकना सफलता की निशानी हैं…’। ये पंक्तियां एक सकारात्मकता और प्रेरणास्त्रोत के रुप में देखी जानी चाहिए, जो सिर्फ एक स्त्री के मन के अहसास को बयां करती हैं। 1 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post सोशल मीडिया से ‘ऑफलाइन’ का वक़्त तो नहीं….? next post तबड़क…तबड़क…तबड़क… Related Posts बंजर ही रहा दिल August 24, 2024 जन्माष्टमी पर बन रहे द्वापर जैसे चार संयोग August 24, 2024 देश की आज़ादी में संतों की भूमिका August 15, 2024 विनेश फोगाट ओलंपिक में अयोग्य घोषित August 7, 2024 मनु भाकर ने जीता कांस्य पदक July 28, 2024 रामचरित मानस यूनेस्को ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड’ सूची... 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