'हल्कू ने आकर स्त्री से कहा—सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे'...।
ये पंक्तियां हिन्दी के महान लेखक, उपन्यासकार, संवेदनशील रचनाकार और युग प्रवर्तक मुंशी प्रेमचंद जी द्वारा रचित कहानी 'पूस की रात' में लिखी गई हैं। जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि उस वक़्त थी, जब ये लिखी जा रही थी। आज इस महान लेखक का जन्मदिवस हैं।
मुझे लगा इस मौके पर इस कहानी का जिक्र होना चाहिए। यूं तो आप में से कईयों ने इसे अपने कोर्स की क़िताबों में भी पढ़ा होगा लेकिन आज जितनी परिपक्वता से आप इस कहानी के मर्म और द्वंद को समझेंगे उतना शायद बचपन की पढ़ाई के दौरान नहीं महसूस किया होगा।
खेती करना कोई आसान बात नहीें..। न जानें कितनी ही मेहनत करके भी कई बार उतने दाम नहीं मिल पाते जिससे जीवन की गुज़र—बसर मजे में हो सके..। प्रेमचंद जी ने हल्कू और मुन्नी के माध्यम से खेती और उसकी रखवाली करने का दर्द...और कैसे जरुरत पड़ने पर एक कम्बल तक न खरीद पाने की मजबूरी को बयां किया हैं...।
काफी अंर्तद्वंद के बाद कर्ज में डूबा हल्कू, सहना का उधार चुकाना अधिक ज़रुरी समझता हैं और माघ—पूस की रात में बिना कम्बल के रहना मंजूर कर लेता हैं। खेती की रखवाली करते हुए हल्कू पूस की अंधेरी रात अपने संगी कुत्ता जबरा के साथ पुरानी चादर ओढ़े हुए गुज़ारता हैं...।
लेकिन उसे एक क्षण भर के लिए भी नींद नहीं आती। उसके हाथ—पैर ठिठुरने लगे...कपकपी छूटने लगी...कभी चिलम पीता तो कभी आग जलाता। उसके सारे जतन तेज ठंड के आगे कमज़ोर पड़ रहे थे...।
जुगाड़ करके हल्कू गर्म राख के पास जबरा के साथ बैठा रहा। शीत बढ़ती गई और आलस्य उसे दबाने लगा। तभी उसे महसूस हुआ कि खेत में जानवरों का झुण्ड आया हैं। जबरा भूंकता रहा..हल्कू ने पक्का इरादा किया और दो—तीन कदम चला, लेकिन ठंड के थपेड़ों ने उसे आगे बढ़ने न दिया...। उसके भीतर का द्वंद कभी चढ़ता तो कभी उतरता...ऐसी कशमकश उसके भीतर थी मानो आज कोई फैसला हो जाना है और फिर देखते ही देखते सारा खेत साफ हो गया।
सुबह उसकी पत्नी मुन्नी आई तो खेत का सत्यानाश देखकर बेहद उदास हो गई...। लेकिन हल्कू और जबरा ही जानता था कि पूस की रात कैसी कटी...। उसने खुश होते हुए मुन्नी से कहा, चलो अब इस रात की ठंड में यूं खेतों में तो नहीं सोना पड़ेगा....।
निश्चित ही कहानी में एक विशेष परिस्थिति को प्रेमचंद जी ने उजागर किया था। जिसके अंत ने एक समाधान भी दिया हैं...। ये प्रेमचंद ही थे जिन्होंने कहानी का अंत सकारात्मक और सच के करीब लाकर छोड़ा...।
उनकी कहानियों और उपन्यास में शहरी, कस्बाई और ठेठ देहाती जीवन के सजीव चित्र मिलते हैं...। पंचपरमेश्वर, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, सद्गति,ठाकुर का कुआं, बड़े भाई साहब, सुहाग की साड़ी, बूढ़ी काकी, ईदगाह, मंत्र सरीखी कहानियों में उनकी शैली के विभिन्न रुप—रंग मिलते हैं...
जो पाठक के मन को कहीं न कहीं झंकझौरते हैं और उसके साथ जुड़ाव भी महसूस कराते हैं...। एक बार पुन: इस महान लेखक की कृति और जयंती पर नमन...।