वाकई बस्ती तो इंसानों से ही होती है। वरना तो सब सुना और बंजर है। राधिका अपने फ्लेट की बालकनी में बैठी हुई ये सब सोच रही थी। इसी सोच की गहराई में डूबी राधिका छह महीने पीछे चली गई।
वह सोचने लगी कि छह महीने पहले सामने वाली ज़मीन एकदम खाली पड़ी थी। बारीश का मौसम होने के कारण इस ज़मीन पर कांटेदार बड़ी—बड़ी झाड़ियां उग आई थी। लेकिन आज यहां एक बिल्डिंग खड़ी हो गई है। ये बात अलग है कि इसका निर्माण पूरी तरह से नहीं हुआ है। लेकिन इसे बनाने वालों ने इसमें जान सी डाल दी थी। जब से इसका निर्माण शुरु हुआ था उसीे दिन से यहां ज़िंदगी बसने लगी थी।
रोजाना सुबह और शाम को एक कप चाय की प्याली के साथ बालकनी में बैठना राधिका की दिनचर्या का एक हिस्सा था। और इस बिल्डिंग की नींव डलने के बाद से तो जैसे एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब वो बालकनी में ना बैठी हो। इतना ही नहीं वो अपने रसोईघर की खिड़की से भी काम करते हुए बीच—बीच में मजदूरों को देखती रहती। और मन ही मन खुश होती रहती।
एक दिन शाम को बेहद जोरों की बारीश हुई। आमतौर पर ऐसे मौसम में लोग अपने घरों की बालकनी से बारीश का आनंद लेते है। गरम पकौड़ी और हलवा बनाकर खाते है। राधिका के पति ने मौसम को देखते हुए पकौड़े और चाय की फरमाइश कर डाली। वह थोड़ी ही देर में चाय और पकौड़े लेकर आ गई। लेकिन इस बारीश ने राधिका की चिंता बढ़ा दी थी।
वो बालकनी में गई और उन मजदूरों को देखने लगी। ये मजदूर फ़िलहाल अपने बीवी बच्चों के साथ अस्थाई तंबू बनाकर रह रहे थे। लेकिन तेज बारीश और चारों तरफ अंधेरा, आसपास खाली पड़ी ज़मीन को देखकर राधिका डर रही थी। उसे लग रहा था कोई जीव—जानवर आकर कहीं इन्हें कांट न लें।
वो गहरी सोच में थी..है भगवान कैसे कटेगी इन मजदूरों की रात। अब ये खाना कैसे बनाएंगे...। क्योंकि ईंटों से बना चुल्हा तो तंबू के बाहर बना हुआ है..जो बारीश से गिला हो चुका है। वो मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि है परमेश्वर इन मजदूरों की रक्षा करना।
शाम से शुरु हुई बारीश देर रात तक नहीं थमी। हां..बारीश की गति ज़रुर कम हो गई थी..लेकिन इस रात मजदूरों के घर का चुल्हा नहीं जला। भगवान ही जानता होगा, क्या खाया होगा इन मजदूरों और इनके बच्चों ने...।
अगले दिन सुबह राधिका की नींद देर से खुली। सुबह के नौ बज रहे थे। लेकिन राधिका को आज कोई जल्दी भी ना थी। आज रविवार है उसकी बेटी और पति दोनों घर पर है। आज ना तो बेटी को स्कूल के लिए तैयार करना है और ना ही पति के लिए टिफिन की तैयारी करना है। इसीलिए वो आज निश्चिंत थी। लेकिन उठते ही वो बालकनी में गई।
मौसम तो साफ़ नहीं था, लेकिन बारीश बंद थी। उसने देखा कि कुछ मजदूर नई बिल्डिंग के निर्माण कार्य में लगे हुए हैं जबकि बाकी मजदूर एक ईंट की दीवारें बनाकर खुद के रहने के लिए कमरा बना रहे है। ये देखकर राधिका बेहद खुश हुई। उसे इस बात से सुकून मिला कि अब मजदूरों को बारीश के कारण पूरी रात बिना खाए पीएं यूं ही नहीं गुज़ारनी पड़ेगी।
धीरे—धीरे एक मंजिल बनकर तैयार हो गई और बारीश की ऋतु भी चली गई। अब सारे मजदूरों की अपनी एक सही दिनचर्या भी शुरु हो गई थी। राधिका का वक़्त भी इनकी दिनचर्या को देखते हुए बीत रहा था। घर के काम निपटा कर वो रोजाना सुबह और शाम बालकनी में बैठती और बिल्डिंग के निर्माण कार्य को देखती रहती। इस दौरान उसने मजदूरों के जीवन स्तर के बेहद कठिनतम उतार—चढ़ावों को देखा और उनकी बेबसी को भी महसूस किया। इससे पहले उसे इस वर्ग के जीवन की इतनी बारीकी से जानकारी न थी।
अब तो शाम होते ही हल्की—हल्की ठंड भी महसूस होने लगी थी। सर्द ऋतु भी अब धीरे—धीरे बढ़ रही थी। लेकिन इन मजदूरों की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं था। बल्कि अब तो शाम को और ज्यादा रौनक रहने लगी थी। इसकी वजह थी शाम को जब मजदूर महिला खाना बनाने की तैयारी करती तो सभी लोग चुल्हों के आसपास बैठ जाते। और चुल्हे की ताप से ख़ुद को सेंकने लगते।
राधिका का जीवन भी रसोईघर, घर की साफ़ सफाई, पति और बेटी के काम निपटाने में अच्छा ही बीत रहा था। एक दिन उसकी नींद सुबह साढ़े चार बजे के करीब खुल गई। आज ठंंड भी बहुत थी। उसने ख़ुद को शॉल से ढाका और किचन में आई। एक ग्लास पानी लिया और फिर खिड़की से झांककर देखा। बाहर बहुत अंधेरा था लेकिन पानी बहने की आवाज आ रही थी। उसे समझ नहीं आया कि ये पानी आखिर कहां बह रहा है। उसने बालकनी में जाकर देखा। वो दंग थी ये नज़ारा देखकर। उसने देखा कि कुछ महिला मजदूर पानी की टंकी के नीचे बैठकर नहा रही है। राधिका जो ठंड से कांप रही थी...इन महिलाओं को ऐसे में ठंडे पानी से नहाता हुआ देख बुरी तरह से धूज गई। वो अंदर आ गई। लेकिन इस परिस्थिति ने उसे आज बेहद भाव विभौर कर दिया।
राधिका समझ गई थी, आखिर क्यूं ये मजदूर महिलाएं अंधेरे में नहाने को मजबूर है। उजाला होते ही इन्हें नहाने के लिए पर्दा या आड़ कहां से मिलती।
राधिका फिर अपने घर के कामों में लग गई। वक़्त बीता और अब दो मंजिला बिल्डिंग खड़ी हो चुकी थी।
लेकिन बिल्डिंग का ढांचा देखकर पूरी तरह से समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यहां बन क्या रहा है। एक दिन राधिका ने अपनी काम वाली बाई मंजू से पूछा कि तुम्हें पता है यहां पर किसका निर्माण हो रहा है। मंजू ने उसे बताया कि मेडम जी मुझे भी पूरी जानकारी तो नहीं है। लेकिन कोई बता रहा था कि शायद यहां स्कूल की बिल्डिंग बन रही है।
ये कहकर राधिका फिर अपने काम में व्यस्त हो गई। सप्ताह भर बाद होली का पर्व है लेकिन इस बार तो सर्द ऋतु जाने का नाम ही नहीं ले रही है। राधिका सोच में थी कि इस बार तो होली नहीं खेलेंगे। ठंड में कैसे कोई खेल पाएगा। यदि होली के दिन रंग के साथ पानी में भीगे तो कहीं बीमार न पड़ जाएं। और मन ही मन उसने होली न खेलने का फैसला किया।
एक दिन वह अपनी बेटी और पति के साथ खाना खा रही थी। तभी टीवी पर न्यूज़ आई कि इस बार कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते होली पर्व नहीं मनाया जाएगा। यदि कोई होली खेलना चाहे तो सिर्फ रंग और गुलाल लगाएं। राधिका ने अपने पति से कहां कि मैंने तो पहले ही न खेलने का फैसला कर लिया था। ये कहते हुए वो रसोई घर में चली गई।
जब होली आई तो उसने देखा कि सामने होली पर्व गुलाल को हवा में उड़ाकर मनाया जा रहा है। सभी मजदूरों ने एक—दूसरे को रंग तो लगाया लेकिन पानी से होली नहीं खेली। इतना ही नहीं आज बिल्डिंग निर्माण का काम भी बंद है। महिलाएं चुल्हों पर पूरी और पकवान बना रही है। और बच्चे धूल मिट्टी में अपने पैरों से अलग—अलग आकृतियां बनाकर खेल खेल रहे है।
राधिका ने होली खेले बिना ही ख़ुद को विभिन्न रंगों में रंगा हुआ महसूस किया। राधिका जिस रंग में ख़ुद को भीगा हुआ पा रही थी, वो थे ज़िंदगी के असली रंग। जिसे ये मजदूर लोग जी रहे थे।
बिल्डिंग का निर्माण कार्य भी अब ऐसे लगने लगा था जैसे जल्द ही बनकर तैयार होगा। चारों तरफ बाउंड्री वॉल बन चुकी है। लेकिन दरवाजे खिड़किया लगना बाकी थे...और भी न जानें कितना काम बाकी हो...।
लेकिन मजदूर अब कम हो रहे थे। जैसे—जैसे काम कम हो रहा था मजदूर भी अपना सामान लेकर जा रहे थे। एक ईंट की दीवार से जो कमरे बनाए गए थे वे भी अब टूटकर सिर्फ दो ही रह गए थे। यहां की रौनक अब धीरे—धीरे कम होने लगी थी। चुल्हा तो रोज जल रहा था लेकिन कम लोगों के लिए खाना बन रहा था।
राधिका के मन में अब सुनापन धीरे—धीरे घर कर रहा था। वह जब भी बालकनी में आती उसकी आंखे मजदूरों की कम हो रही संख्या और चहल—पहल पर होती। अपने मन की बैचेनी वह किससे कहती। क्योंकि वो ये बात अपने पति से शेयर करती तो शायद उसे लगता कि ये क्या बचकानी बातें है। बेटी इतनी छोटी है जो उसके इन गहरे भावों को समझ नहीं सकती थी। राधिका का इन मजदूरों की दिनचर्या और उनकी रौनक के साथ एक आत्मिक जुड़ाव हो गया था। जिसे सिर्फ वो ही महसूस कर सकती थी।
इधर, कोरोना वायरस संक्रमण के कारण पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा हो चुकी थी। ऐसे में अब बिल्डिंग निर्माण का काम भी रुक गया था। जो मजदूर निर्माण कार्य के लिए बचे थे वे भी अब अपना सामान समेटने लगे थे। राधिका ये सब देख रही थी लेकिन वो क्या करती..।
लॉकडाउन हुए सप्ताह भर से अधिक का वक़्त गुज़र गया है। अब एक भी मजदूर नहीं बचा..सारे अपने घर, अपनों के पास चले गए है। चारों तरफ एक अजीब सी ख़ामोशाी है...।
लेकिन आज राधिका बालकनी में बैठी इस ख़ामोशी के शोर को सुन रही थी। और उसे ये शोर बेहद अच्छा लग रहा था क्योंकि वह अपने परिवार के साथ थी।
उसे इस बात का भी सुकून था कि बिल्डिंग बनाने वाले भी अपनों के साथ और अपनों के बीच पहुंच गए है। राधिका समझ चुकी थी कि जिस लॉकडाउन में हम परिवार के बीच रहकर खुश है और असल जीवन को जी रहे हैं।
दरअसल, ये मजदूर तो रोजाना ही इन पलों को अपने परिवार के साथ जीता है। बिना संसाधनों और सुख सुविधाओं के भी जीवन को कैसे आनंद के साथ जीया जाएं..ये सीखा गए मजदूर।
राधिका सुनी पड़ी बिल्डिंग को देखकर मुस्कुराई और बालकनी का गेट बंद कर भीतर आ गई। लेकिन उसकी मुस्कान में आज बेहद खुशी और शांति का अनुभव था।