प्रासंगिक स्वदेशी खेल…राह मुश्किल by Teena Sharma Madhvi January 2, 2021 written by Teena Sharma Madhvi January 2, 2021 हाल ही में केंद्रीय खेल मंत्रालय ने ‘खेलों इंडिया यूथ गेम्स—2021’ में चार स्वदेशी खेलों गतका, कलारीपयट्टू, थांग—ता और मलखम्ब को शामिल किया हैं। कोरोनाकाल के बीच सुखद अहसास का अनुभव कराती हुई ये ख़बर वाकई खेल जगत और खिलाड़ियों के लिए एक सकारात्मक और दूरदर्शी फैसला हैं। हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा से ही समृद्ध और संपन्न रही हैं। चाहे वो हमारे वैदिक संस्कारों की बात हो या फिर खान—पान, वेशभूषा, रहन—सहन और पांरपरिक खेलों की। ये ही असल में हमारी पहचान भी हैं। ऐसे में स्वदेशी खेलों को आगे बढ़ाने से ना सिर्फ ‘पारंपरिक खेलोें’ को अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर पहचान मिलेगी बल्कि देश के गांव—कस्बों में रहने वाले हजारों लाखों युवाओं को भी आगे बढ़ने का मौका मिल सकेगा। हमारे गांवों की प्रतिभाएं हमारी संस्कृति और पंरपरा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगी। क्योंकि हमारे ये ही पारंपरिक खेल विभिन्न भारतीय राज्यों की सांस्कृतिक और पारंपरिक पृष्ठभूमि को भी दिखाते हैं। यदि हम अपने पारंपरिक खेलों की बात करें तो उसमें ना सिर्फ जीवन जीने की कला छुपी हुई हैं बल्कि अध्यात्म के साथ—साथ हमारे स्वास्थ्य पर भी पूरा ध्यान दिया गया हैं। तभी तो सुबह से लेकर रात्रि तक के सभी कार्य—कलापों का एक विशेष व़़ैज्ञानिक महत्व भी हैं। वैज्ञानिक तर्क तो यही कहता हैं कि एक मानव मस्तिष्क दिनभर दिमागी काम नहीं कर सकता हैं। ऐसे में मन व शरीर को तरोताजा करने के लिए शारीरिक कसरत जरुरी हैं। ऐसा न होता तो राजा—महाराजों के ज़मानें में क्यूं शारीरिक व्यायाम के तौर पर अलग—अलग तरह के खेलों को महत्व दिया गया। ऐसे ही कुछ स्वदेशी खेलों में कुश्ती का अपना अलग स्थान हैं जो आज भी बेहद उत्साह के साथ युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं। यदि सिंधु घाटी सभ्यता पर नजर डालें तो इस युग में जो हथियार लड़ाई और शिकार के काम में लिए जाते थे। वे दरअसल, वहां के लोगों की दिनचर्या में शामिल खेलों का ही एक हिस्सा थे। इस लिहाज से खेल मंत्रालय द्वारा शामिल स्वदेशी खेलों का इतिहास भी जान लेना आवश्यक हैं। ‘गतका’ खेल में कृपाण, तलवार व कटार जैसे हथियारों का उपयोग किया जाता हैं जो कि एक सिख मार्शल आर्ट की कला है। सिखों में यह विशेषतौर से निहंगों द्वारा विशेष अवसरों पर प्रदर्शित की जाती रही हैं। यह कला अब खेल के जरिए आम लोगों तक पहुंचेगी। वहीं ‘कलारीपयट्टू’ खेल में कदमों का उपयोग महत्वपूर्ण हैं। यह भी एक मार्शल आर्ट खेल हैं। जिसकी उत्पत्ति केरल से हुई हैं। कलारी से मतलब हैं ऐसा स्कूल, व्यायामशाला या प्रशिक्षण हॉल जहां मार्शल आर्ट का अभ्यास कराया जाता हैं। इस कला को निहत्थे लोगों ने आत्मरक्षा का एक साधन बनाया हैं। और शारीरिक योग्यता हासिल करने के लिए यह सीखा जाता हैं। जबकि ‘मलखम्ब’ देसी जिम्नास्टिक हैं। और सदियों पहले से ये प्रचलित भी हैं। इसमें लकड़ी के खम्बे पर करतब दिखाए जाते हैं। लेकिन वर्ष 1958 में जब पहली बार इसे जिम्नास्टिक के तहत इसे राष्ट्रीय स्तर पर शामिल किया गया तब इसकी लोकप्रियता बढ़ी। वर्तमान में यह खेल म.प्र. का राज्य खेल हैं। 19वीं शताब्दी में पेशवा बाजीराव—ढढ के गुरु बालम भट्ट दादा देवधर ने इस विधा को एक नई पहचान दी थी। वहीं ‘खेलों इंडिया यूथ गेम्स—2021’ में शामिल ‘थांगता’ खेल 17वीं सदी का एक लोकप्रिय खेल रहा हैं। यह भी मार्शल आर्ट का ही एक रुप हैं। यह एक सशस्त्र मार्शल कला हैं। ‘थांग’ एक तलवार को दर्शाता हैं और ‘ता’ एक भाले के रुप में संदर्भित हैं। इसका उपयोग मणिपुरी राजाओं द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता था। जरा सोचिए यदि ऐसे पारंपरिक खेलों को अंतरराष्ट्रीय मंच मिलता हैं तो ये कितना रोमांचक होगा। लेकिन इस सुखद अहसास के बीच एक सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि, क्या ‘डिजिटल युग’ में जी रहे बच्चों और युवाओं में इन खेलों के प्रति आकर्षण पैदा होगा? क्या सचमुच ये खेल देश के युवाओं को मैदानों तक लाने में सफल होंगे? कोई युवा इन धूल—मिट्टी के खेलों में अपना सुनहरा भविष्य संवार सकेगा? इसके अलावा ये भी सवाल उठता है कि खेल मंत्रालय की ओर से शुरु किए गए ‘खेलों इंडिया यूथ गेम्स’ में हमारे देश के युवाओं ने खूब बढ़चढ़कर हिस्सा तो लिया लेकिन इन खेलों में दिए जाने वाले सर्टिफिकेट को नौकरी पाने की मान्यता नहीं मिली हैं। अब ऐसे में इन खेलों में शामिल होने वाले युवा खिलाड़ियों का भविष्य क्या हैं? इस बारे में खुद खेल समीक्षक और विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब तक किसी खेल में पहचान के साथ—साथ करियर की राह नहीं खुलती हैं तब तक यह खेल सिर्फ मनोरंजन के अलावा कुछ नहीं रह जाते। इस बारे में राजस्थान बास्केटबॉल टीम के पूर्व कप्तान दानवीर सिंह भाटी का कहना हैं कि खेलों इंडिया यूथ गेम्स के बहाने ही सही लेकिन पारंपरिक खेलों के प्रति युवाओं का ध्यान तो आकर्षित होगा। लेकिन सरकार को सबसे पहले खेलों इंडिया यूथ गेम्स द्वारा दिए जा रहे खेल सर्टिफिकेट को मान्यता देने की आवश्यकता हैं। इसके बिना इस सर्टिफिकेट का कोई मतलब नहीं हैं। क्योंकि खेल सर्टिफिकेट ही किसी खिलाड़ी को नौकरी मिलने में मददगार होते हैं। भाटी कहते हैं कि जब खिलाड़ियों को मान्यता प्राप्त सर्टिफिकेट ही नहीं मिलेगा तब उन्हें नौकरी के लिए अवसर कौन देगा? अभी सरकार खेलों इंडिया यूथ गेम्स योजना के तहत विभिन्न प्रकार के खेलों में चयनित होने वाले छात्रों को ‘खेल कौशल विकास’ के लिए स्कॉलरशिप देती हैं जो पारंपरिक खेलों में युवाओं को प्रेरित करने के लिए हैं। लेकिन इन खेलों को वास्तविक रुप में अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाना हैं तो स्कूल, कॉलेज और अकादमी में बकायदा प्रशिक्षित कोच लगाने की जरुरत हैं। इसके बाद इन खेलों के लिए भी अलग से वैकेंसी निकाली जाए। जिससे युवाओं का इनके प्रति रुझान बढ़ेगा और वे बढ़चढ़ कर इनमें हिस्सा लेंगे। यदि एक नजर ‘खेलों इंडिया यूथ गेम्स पर डालें तो इसकी शुरुआत 31 जनवरी 2018 को नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी इंडोर स्टेडियम में खेल संस्कृति को पुनर्जीवित करने के मकसद से हुई थी। शुरुआत में ही विभिन्न खेलों में साढ़े तीन हजार युवा एथलिट्स ने भाग लिया था। और महज़ तीन सालों में खिलाड़ियों की संख्या बढ़कर छह हज़ार से अधिक हो गई यानि कि दोगुनी से ज्यादा। इसके बाद इसका दूसरा संस्करण वर्ष 2019 में पुणे में और तीसरा संस्करण वर्ष 2020 में गुवाहाटी में हुआ था और अब वर्ष 2021 में इस खेल की मेजबानी हरियाणा करेगा। अभी तक इसमें 16 प्रमुख खेल जिसमें बैंडमिंटन, बॉस्केटबॉल, मुक्केबाजी, जिम्नास्टिक, जूडो, कबड्डी, वॉलीबॉल, कुश्ती, एथलेक्सि, फुटबॉल, खो—खो, भारोत्तलन, तैराकी, हॉकी, निशानेबाजी व तीरंदाजी शामिल थे लेकिन अब चार स्वदेशी खेलों के शामिल होने से 20 खेलों में ये स्पर्धाएं आयोजित होंगी। निश्चित ही ये पहल स्वागत योग्य हैं। लेकिन हमें ये कतई नहीं भूलना चाहिए कि भौतिकवादी सुविधाओं के मोह में पारंपरिक खेल दम भी तोड़ रहे हैं। इन खेलों को अपनी ही जमीन पर अभी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ लड़ाई लड़नी हैं। गांवों में तो ये चुनौती फिर भी कम हैं क्योंकि अब भी वहां के बच्चे घर के भीतर वाले खेल जिन्हें ‘इनडोर गेम्स’ कहते हैं। काफी हद तक दूर हैं। लेकिन शहरी बच्चे और युवाओं के हाथ से मोबाइल जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण छुड़वाकर खेल के मैदान तक लाना वाकई एक बड़ी चुनौती हैं। खेल मंत्रालय को यदि पारंपरिक खेलों को बढ़ावा देना हैं तो भरपूर प्रचार—प्रसार हो। स्वदेशी खेलों की सूची बनाकर रोजगारन्मुख श्रेणी में शामिल किया जाए। निश्चित ही इन खेलों की लोकप्रियता बढ़ेगी। अकसर खेलों को बढ़ावा देने की बात पर जो समस्या सामने आती हैं वो हैं इंफ्रास्ट्रकचर और बजट। लेकिन पारंपरिक खेलों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे अच्छी और अहम बात ये हैं कि इनके लिए अधिक संसाधन जुटाने की जरुरत नहीं हैं और बड़े प्रोफेशनल खेलों की अपेक्षा ये खेल काफी हद तक सस्ते भी हैं। जरुरत हैं तो बस युवाओं को इनके प्रति आकर्षित कर उन्हें करियर के अवसर प्रदान करने की। 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post 2021 की दस्तक जो हैं…. next post क्यूं बचें— ‘हिन्दी’ भाषा है हमारी… Related Posts प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक… May 13, 2022 ‘मर्दो’ का नहीं ‘वीरों’ का है ये प्रदेश... 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