'ललाट' पर जब घमंड तमतमाने लगे,
'प्रेम' की जगह कुटिल हंसी जब आलिंगन करने लगे..।
ख़ुद ही की जब तारीफ़े पसंद आने लगे,
औरों का 'वजूद' ही जब बौना लगने लगे...।
तब ठहर जाना ऐ, 'इंसान'
देख लेना अपना 'गिरेबान' भी कभी...।
जिस पर जमा है बरसों का 'मैलापन' कहीं
जो औरों को कम आंकते—आंकते
अब बन चुका हैं 'काई'...।
ख़ुद की 'सड़न' भी सुंघ लेना कभी
तभी महसूस होगी औरों की 'ख़ुशबू' कभी....।
मत भटक फ़ितरतबाज़ी में,
चार पल की ही तो हैं जिंदगानी...।
जी भर जी लें, ख़ुद ही के अफसानों संग
क्या ख़बर 'इसका—उसका' में
ग़ुजर न जाए ये शाम मस्तानी...।
ठहर जाना ऐ, 'इंसान'
टीना शर्मा 'माधवी'