प्रकाशित लेख याद आई भारतीय परंपराएं by Teena Sharma Madhvi June 3, 2020 written by Teena Sharma Madhvi June 3, 2020 पूरे विश्व में कोरोना के कहर का शोर है। लेकिन कोरोना वायरस से निपटने की ना तो सही दवा की खोज हुई है और ना ही सही इलाज का अब तक पता लगा है। लेकिन कोरोना से बचने के विकल्प के नाम पर बार—बार हाथ धोने की जो चिल्लाहट मची हुई है उससे एक बात तो साफ लगती है कि आज भी परंपरागत सफाई का ये तरीका सारी बीमारियों से बचने का राम बाण इलाज तो है। इतना ही नहीं पूरे विश्व में इस बात को लेकर भी जमकर प्रचार किया जा रहा है कि हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करो किसी से हाथ मत मिलाओ। पिछले दिनों विश्व शक्ति ने इसे अपनाया तो तरह—तरह की बातें हुई। बहरहाल उस पक्ष पर क्यूं बात हो। खैर, सुकून और दिली खुशी तो ये है कि आज पूरा विश्व भारतीय परंपरा को अपनाने की बातें कर रहा है भले ही ये भय के कारण हो। आज हम आधुनिकता की सीढ़ियां क्या चढ़ने लगे अपने आधार को ही भूलते जा रहे है। सनातन धर्म, हिंदू परम्परा और भारतीय संस्कृति के अनुसार किसी से मिलते समय या किसी से अभिवादन करते समय हाथ जोड़कर प्रणाम किया जाता हैं या पूजा पाठ के समय हाथ जोड़े जाते हैं। दरअसल, हाथ जोड़ना सम्मान का प्रतीक हैं। हाथ जोड़ने पर हाथ की सभी अंगुलियों के सिरे एक दूसरे से मिलते हैं, जिससे उन पर दबाव पड़ता हैं। एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार इसका सीधा असर हमारी आंखों, कानों और दिमाग पर पड़ता हैं। जिससे हमें सामने वाला व्यक्ति लंबे समय तक याद रहता हैं। इसके अलावा हाथ जोड़ने से हमारा रक्त संचार बढ़ने लगता हैं। हमारे शरीर में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के भाव छिपे होते हैं, हाथ जोड़ने मात्र से शरीर में सकारात्मकता का संचार होने लगता हैं। इसका दूसरा तर्क यह भी है कि अगर आप हाथ मिलाने की बजाय हाथ जोड़कर अभिवादन करते है तो सामने वाले के शरीर के कीटाणु हम तक नहीं पहुंच पाते हैं। हाथ जोड़कर अभिवादन करने से एक दूसरे के हाथों का संपर्क नहीं हो पाता है, जिससे बीमारी फैलाने वाले वायरस तथा बैक्टीरिया हम तक नहीं पहुंच पाते है, और हम बीमारियों से बचे रहते हैं। हाथ जोड़ने की ये परंपरा शताब्दियों से चली आ रही हैं। हमने कई देवी—देवताओं को भी काल्पनिक चित्रों में हाथ जोड़े देखा हैं। फिलहाल हाथ जोड़ने को अलग संदर्भ में लिया जा रहा हैं। आज जबकि कोरोना को एक महामारी घोषित किया जा चुका हैं। ऐसे में हाथ जोड़ने को विशेष महत्व दिया जा रहा है। यदि हाथ जोड़ने के आध्यात्मिक महत्व पर गौर करें तो दाहिना हाथ आचार अर्थात धर्म और बायां हाथ विचार अर्थात दर्शन का होता है। नमस्कार करते समय सिर श्रद्धा से झुका होता हैं। भारतीय संस्कृति पर नजर डाले तो ये श्लोक हमने कई बार सुना और पढ़ा होगा— कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम्।। यानि की ‘हथेली के सबसे आगे के भाग में लक्ष्मीजी, बीच के भाग में सरस्वतीजी और मूल भाग में ब्रह्माजी निवास करते हैं। इसलिए सुबह दोनों हथेलियों के दर्शन करना करना चाहिए। इसके पीछे शास्त्रों में ये तर्क दिया गया कि जब व्यक्ति पूरे विश्वास के साथ अपने हाथों को देखता है, तो उसे विश्वास हो जाता है कि उसके शुभ कर्मों में देवता भी सहायक होंगे। जब वह अपने हाथों पर भरोसा करके सकारात्मक कदम उठाएगा, तो भाग्य भी उसका साथ देगा। सुबह हाथों के दर्शन के पीछे यही मान्यता काम करती है। लेकिन मॉर्डनाइज्ड हो चुके लोग सवाल उठाते है कि इसके पीछे कौन-सी मान्यता काम करती है? दरअसल, हर इंसान चाहता है कि जब वह आंखें खोले, एक नए दिन की शुरुआत करें, तो उसके मन में आशा और उत्साह का संचार हो। हमारे शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि हाथों में ब्रह्मा, लक्ष्मी और सरस्वती, तीनों का वास होता है। ——————— कुछ साल पहले इंग्लैंड में हाथ धोने को लेकर एक अभियान चलाया गया था और लगभग दस हजार जिंदगियों को बचाया गया था। इससे एक बात तो बिल्कुल साफ है कि अधिकतर बीमारियों को हम हाथ धोकर ही रोक सकते है। हाथ धोना भारतीय जीवन शैली में परंपरागत स्वच्छता का हिस्सा है। जिसे आज पूरी दुनिया समझ रही है। जब घर की रसोई में मां, भाभी और बहन नहाने के बाद ही खाना बनाती थी तो इसका अर्थ शरीर की साफ सफाई से था ताकि किसी भी तरह का संक्रमण ना हो और पूरी तरह से शुद्धता के साथ भोजन बनाया जा सके। वहीं घर के पुरुष जब रसोई घर में खाना खाने आते तो नहा धोकर ही आते। रसोई में कोई भी चप्पल पहनकर नहीं घुसता। लेकिन आधुनिकता में इसे दकियानूसी कहा जाता है। और एक ही चप्पल में रसोई, बेडरुम और बाथरुम तक में घूम रहे है हम। इस दौरान एक पल भी ये ख्याल नहीं आता कि हजारों कीटाणु भी हमारी इस लापरवाही के साथ घूम रहे हैं। क्योंकि घरों में तो बड़ी—बड़ी कंपनियों के डिटर्जेंट से पोंछा जो लग रहा है। सोचकर देखें क्या वाकई ये केमिकल्स दिनभर हमारे घरों को कीटाणु फ्री रखते होंगे, वो भी ऐसे समय जब बाहर लगातार प्रदूषण का ग्राफ बढ़ रहा है। पहले घर आंगन और सड़कों के दोनों तरफ लगे पेड़ों से शुद्ध् ऑक्सीजन मिल जाया करती थी। आज पेड़ों की लगातार घट रही संख्या ने घरों में हर तरह के वायरस को फ्री एंट्री दे दी है। जिसकी चपेट में आने से कभी भी बुखार, खांसी, जुकाम और श्वास जैसी बीमारियां हो रही है। भारतीय जीवन शैली के वास्तविक पटल पर हम नजरें घुमाते हैं तो, साफ सफाई से रहना तो हमारी जीवन शैली का बेहद अहम हिस्सा रहा है। सूर्योदय से पूर्व उठकर अपनी दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर उसे आंखों पर लगाना, बांसी मुंह कुछ भी नहीं खाना बल्कि कुल्ला करना ये तो अब वैज्ञानिक रुप से भी सिद्ध् हो चुका है। लेकिन ‘बेड टी’ ने बेडा गरक कर दिया। इतना ही नहीं नींद खुलते ही सीधे फ्रीज से पानी निकालकर पी रहे है। एक दौर वो भी था जब घरों में अलग से एक परेंडी हुआ करती थी जिस पर सिर्फ पीने का पानी मिट्टी के मटकों में या अन्य किसी धातु के बर्तन में रखा जाता था। और इन मटकों को सूती कपड़े या लट्ठे से लपेटकर रखते थे। ताकि घर के हर व्यक्ति को ये ख्याल रहे कि ये पीने का पानी है और इसे हाथ धोकर ही छूना है। यदि कोई व्यक्ति बाहर से आता था तो उसके सबसे पहले हाथ और पैर धुलाए जाते थे उसके बाद ही उसके हाथों में पानी का ग्लास पकड़ाया जाता था। लेकिन आज आधुनिकता में रंग चुके लोग इसे कूप मंडूक सोच और अंधविश्वास के साथ जोड़ कर देखते है। वो तो गनीमत है कि कोरोना वायरस ने कम से कम जड़ों की याद तो दिलाई। वरना आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हो चले लोग तो शायद शवयात्रा या अंतिम संस्कार में शामिल होकर लौटने के बाद भी शायद नहाना जरुरी नहीं समझे। जबकि नहाने के पीछे भी एक वैज्ञानिक कारण है। विज्ञान कहता है कि जब भी किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो उसके शव में कई बैक्टीरिया हावी हो जाते हैं और ऐसे में ये बैक्टीरिया शव के संपर्क में आने वाले दूसरे व्यक्तियों के शरीर में भी फ़ैल सकते हैं। इसके अलावा शव के दाह संस्कार के बाद वहां का वातावरण संक्रामक कीटाणुओं से ग्रसित हो जाता है जो वहां मौजूद लोगों के शरीर पर असर डाल सकता है। ऐसे में अंतिम संस्कार के बाद नहाना इसीलिए जरुरी माना जाता है ताकि शरीर किसी बैक्टीरिया की चपेट में ना आए और नहा लेने से संक्रामक कीटाणु पानी के साथ ही बह जाएं। वो कहावत है ना—— ‘नया नौ दिन और पुराना सौ दिन’ आज चरितार्थ होती नज़र आती है। जब पूरी दुनिया ये कह रही है कि बार—बार हाथ धोए, बिना हाथ धोए ना ही खाना खाए ना ही किसी वस्तु को छूंए। हाथों की सफाई के प्रति जो जागरुकता अभी आई है उससे कम से कम ये तो समझ आ रहा है कि कोरोना जैसे वायरस की हार निश्चित ही है। जब पूरी दुनिया हाथ धोने को लेकर राग अलाप रही है तो क्यूं हम आधुनिकता के मोहपाश में फंसकर अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पा रहे है। हर नई चीज़ को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बनाना ज़रुरी तो नहीं। शायद ये वही एक पल है जब हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने की जरुरत है। 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post दो जून की रोटी… next post ‘जल’ संकट बन जाएगा ‘महासंकट’ Related Posts बजता रहे ‘भोंपू’…. 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