कहानियाँज्वलंत मुद्ददे अन्नदाता की हांफती सांसों की कीमत क्या…? by Teena Sharma Madhvi December 23, 2020 written by Teena Sharma Madhvi December 23, 2020 बात छोटी—सी हैं पर सालों बाद समझ आई है। कहते हैं ना कि जब तक कोई टीस ख़ुद के दिल पर ना लगे तब तक उसका दर्द महसूस नहीं होता। बरसों बाद, मैं अपने नाना के उस दर्द को समझ पा रही हूं जब वे अनाज की मंडी से मुंह लटकाए हुए आते थे…। उस वक़्त मेरी सोच भी उम्र की तरह मासूम थी। शायद इसीलिए मैं ये नहीं समझ सकी, आख़िर खुशी—खुशी अनाज की मंडी में अपना धान लेकर जाने वाले मेरे नाना शाम को उदास चेहरे के साथ क्यूं लौटते थे…? क्यूं वे मंडी से आने के बाद बरामदे में अपने माथे पर हाथ रखकर बैठ जाते थे…? क्यूं वे मेरी किसी बात का जवाब पूरे उत्साह के साथ नहीं दे पाते थे…? उनका उदास चेहरा देखकर नानी शायद समझ जाती थी इसीलिए वे भी बहुत दु:खी होती। मंडी से आने के बाद जब वो नाना से पूछती कि ‘कितनी बोली लगी हैं’…? धान की कीमत वसूल हो पाई या नहीं…? उसके जवाब में नाना कहते कि साल भर की मेहनत पर पानी फिर गया ‘नंदा’…। ये सुनकर नानी उनके कांधे पर हाथ रखती और उन्हें दिलासा देती। और फिर अपनी आंखों में आंसू लिए हुए उन लोगों को बुरी तरह से कोसती थी जो अनाज की मंडी में अच्छे दाम दिलाने के नाम पर नाना के अनाज की कीमत कम लगाते। असल में ये ही वे बिचौलिए या कहूं कि ठग थे जो अनाज के कम दाम लगाकर उन्हें बड़े दामों में बेचते थे। जब ये ही अनाज राशन की दुकान तक पहुंचता तो इसकी कीमत कई गुना हो जाती थी। दरअसल, यहीं वो असली कीमत थी जो एक किसान को मिलनी चाहिए। यानि कि जो मेरे नाना को मिलनी थी…। लेकिन बिचौलिओं की वजह से सालों तक मेरे नाना को उनकी मेहनत की वो पूंजी नहीं मिल सकी जिसके वे असल हकदार थे। कुछेक बीघा में जैसे—तैसे किसानी करके वे अपना जीवन चला रहे थे। इसी उम्मीद में कि एक दिन आएगा जब उनकी मेहनत की फसल खेतों में लहलहाएगी तो पूरा दाम भी उनकी हथेलियों को चमकाएगा…। पता नहीं वो एक दिन उनके जीवन में आया भी होगा या नही…पता नहीं कभी उन बूढ़ी आंखों ने इन उम्मीदों की राह में चैन से नींद निकाली भी होगी या नहीं….। आज मेरे नाना तो इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके रुप में एक किसान को खाली हाथ ही मरते देखा हैं मैंने…। मेरे नाना किसान थे, शायद तभी मैं एक अन्नदाता के दर्द को समझ पा रही हूं। वरना मेरे लिए भी किसान के मायने सिर्फ एक स्लोगन में सिमट कर रह जाते कि ‘किसान हमारा अन्नदाता हैं’…..। बस यहीं…। छोटे और मझोले किसानों के लिए खेती करना वाकई आसान नहीं हैं। कभी उन्नत बीज नहीं मिल पाता हैं तो कभी सिंचाई करने के लिए बेहतर सुविधा। मौसम के सहारे ही किसानों को फसलें तैयार करनी होती हैं। ऐसे में कभी मौसम उनके अनुकूल नहीं तो कभी परिस्थितियां…। और जैसे ही ये मौसम प्रतिकूल होता तब पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जाती हैं…। ये कितना बड़ा दर्द होगा एक किसान के जीवन में…ये सोचकर भी रुह कांप उठती हैं। कैसे वो एक बर्बाद फसल का बोझ उतारकर जी पाता होगा…? क्षतिपूर्ति की पुख्ता व्यवस्था हो तो उसकी ये तकलीफ शायद उसी की ना रहे…। मेरी इन आंखों में अपने बूढ़े नाना—नानी के हाथों से की गई खेतों की जुताई…निंदाई… बुहाई और गुढ़ाई का पूरा दर्द हैं। जेठ की तपती दोपहरी में खेतों को पानी देने के लिए नाना कुंए की मोटर के पंप को स्टार्ट करने के लिए जब अपने हाथों से उसे लगातार घुमाते थे तब उनके माथे से रेला बनकर पसीना टपकता था…पंप का इंजन चलाते हुए उनकी सांसे फूलने लगती…दिसंबर—जनवरी की सर्द रातों में जब फसलों को पानी देने के लिए वे कई घंटों आधे पैरों तक पानी में डूबे रहते…न भूख न प्यास…। जब वे बुरी तरह से थक जाते और अचानक से ज़मीन पर गिर पड़ते, तब उन्हें उठाने और संभालने के लिए मेरी बूढ़ी नानी की घबराहट वाली दौड़…अब भी मुझे उसी खेत की मुंडेर पर ले जाकर खड़ा कर देती हैं जहां से मैंने ये सबकुछ देखा हैं। आज मेरे नाना की हांफती हुई सांसों की आवाज़ें मेरे कानों में गूंज रही हैं…। ये हैं एक किसान…। खेती करना सच में इतना आसान काम नहीं हैं। एक किसान की पूरी उम्र इसी मिट्टी से शुरु होकर इसी में दफ़न हो जाती हैं। देश में इन दिनों किसान आंदोलन बड़ी चर्चा में हैं। आंदोलन इस बात को लेकर हैं कि सरकार ने जो तीन कृषि कानून बनाए हैं वे किसानों के हित में नहीं हैं। किसानों का कहना है कि सरकार उनके खेत खलिहान निजी हाथों में सौंप रही हैं। किसानों का उनकी ज़मीन पर से मालिकाना हक छिन जाएगा। लेकिन सरकार इससे इतर कह रही हैं। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि नए कानून के बाद एक भी मंडी बंद नहीं होगी। बल्कि मंडियों के विकास के लिए 500 करोड़ रुपए से ज़्यादा का खर्च किया जा रहा हैं। फॉर्मिंग एग्रीमेंट में सिर्फ फसलों या उपज का समझौता होगा। ज़मीन का मालिक किसान ही रहेगा। तीनों कृषि कानूनों पर पिछले कई दिनों से बड़े—बड़े विशेषज्ञों की राय—शुमारी हो रही हैं। कई पैनल बैठाए जा रहे हैं। तरह—तरह के आरोप प्रत्यारोप, छींटाकशी हो रही हैं। लेकिन कानूनों की पेचीदगी और इससे होने वाले फायदे—नुकसान का गठित अब भी जन सामान्य के दिमाग में पूरी तरह से फीट नहीं बैठ रहा हैं। ख़ुद कई किसानों को भी इन तीनों कृषि कानूनों की सही और पूरी जानकारी नहीं हैं। लेकिन एक प्रचलित वाक्य हैं कि, भीड़ की आवाज़ में कई बार असल बात ही दब जाती हैं। और असल बात ये है कि आधा भारत कृषि से जुड़ा हैं। इसीलिए इन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता हैं। मेरे ज़ेहन में एक सवाल भी उठ रहा हैं कि यदि वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर नज़र डालें तो देश में 52 प्रतिशत लोग कृषि से जुड़े हुए हैं। इसके बावजूद जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 17 से 18 प्रतिशत हैं। आधा देश जब कृषि कर रहा हैं तो जीडीपी इतनी कम क्यूं हैं? इसका मतलब कहीं कुछ ना कुछ गड़बड़ी हैं…? दूसरा सवाल किसानों की आय को लेकर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार किसानों की जो हर महीने की औसत कमाई हैं वो मात्र 6 हजार 400 रुपए हैं। यानि कि सालाना कमाई लगभग 77 हजार रुपए। जबकि इन 52 प्रतिशत किसानों पर 1 लाख रुपए से अधिक का कर्ज है। यानि कि सालाना कमाई से ज़्यादा तो इन किसानों पर कर्ज का बोझ है। जबकि भारत शुरु से ही एक कृषि प्रधान देश रहा हैं..ऐसे में सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि कृषि उत्पादों के निर्यात में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.5 प्रतिशत ही क्यूं हैं…? खैर, मैं नए कृषि कानून की तकनीकी बारीकियों पर ज़्यादा जाना नहीं चाहती…मैं तो बस इतना चाहती हूं कि जो दर्द मेरे नाना का था वो अब किसी के नाना, दादा या फिर पिता न झेले बल्कि उनको उनकी फसल का पूरा दाम मिल सके… उनकी जी—तोड़ मेहनत को पूरा मान मिल सके। कोई भी बीच का दलाल उनकी मेहनत को खा नहीं जाए। और यदि ये बिचौलिए वाकई किसानों की फसल बेचने में मददगार हैं तो इनके काम की पारदर्शिता हो। क्यूंकि ये बात भी सौ आना सच है कि किसानों को पूरी तरह से बाजारों के भरोसे छोड़ देना भी समझदारी नहीं हैं…। खुले बाजार के नाम पर कहीं किसानों के शोषण जैसी नई और बड़ी समस्या न खड़ी हो जाए इस बात पर भी सरकार को पूरा—पूरा एहतियात बरतने की जरुरत हैं। अभी तक मंडी की व्यवस्था थी…बिचौलिए थे..मंडी समितियां थी…अब कहीं ऐसा ना हो कि बड़ी—बड़ी कंपनियों के एजेंट आ जाए और वे हमारे अन्नदाता की मेहनत को चट कर जाए….? हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेज भी भारत में व्यापार करने आए थे और धीरे—धीरे उन्होंने पूरे देश को हड़प लिया…। सरकार को इन कंपनियों के फैलाव पर भी एक कड़ा अंकुश लगाना होगा। अगर केंद्र का नया कृषि बिल ऐसी कोई व्यवस्था दे रहा हैं तब तो वाकई स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि बात तो सिर्फ इत्ती सी हैं कि किसानों का नुकसान न हो…उनके हाथ मजबूत थे और मजबूत ही रहें…वे आत्म निर्भर किसान रहें…। जो दर्द मेरे नाना ने एक किसान के रुप में झेले हैं वो आज का किसान नहीं झेले बल्कि अपग्रेड होकर खेती किसानी कर सके। कुछ और कहानियां पढ़ें— मीरा का ‘अधूरा’ प्रेम…पार्ट-2 मीरा का ‘अधूरा’ प्रेम… 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post मीरा का ‘अधूरा’ प्रेम…पार्ट-2 next post 2021 की दस्तक जो हैं…. 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