कहानियाँ ‘नहीं रहा अब कोई प्रश्न चिन्ह’ by Teena Sharma Madhvi February 1, 2020 written by Teena Sharma Madhvi February 1, 2020 मुझे ठीक से याद नहीं, आखिर वो तारीख कौन सी थी जब मैं प्रो. सिन्हा से पहली बार मिली थी। लेकिन उनकी सुनाई वो पंक्तियां आज भी मुझे याद है जिसमें जिंदगी का सार है। आज भी कभी-कभार गुन गुना लिया करती हूं। ”क्या जाने कब तक हो जाए जीवन के दिन पूरे एक अधूरी आस लिए, अधूरी प्यास लिए चली जाउगी मैं इस दुनिया से रोता छोड़ सभी को” ये महज कुछ पंक्तियां ही नहीं थी, जिंदगी की वो एक सच्चाई है जिसे मैंने प्रो. सिन्हा से जाना था। हुआ यूं कि किसी कार्यक्रम के दौरान मुझे एक वृद्धाश्रम में जाने का मौका मिला। यह पहली बार था जब मैं किसी वृद्धाश्रम में आई थी और बुढ़ापे को इतने करीब से देख रही थी। एक बेटा अपनी मां से कह रहा था, बार-बार क्यूं फोन करवाती हो, मेरे पास इतना वक़्त नहीं कि, तुम्हारे किसी भी समय बुलाने पर मैं आ सकूं। एक बुढी मां की आंखों से बेबसी व लाचारी के आंसू टपक रहे थे। वहां से दाएं जाकर संचालिका का कैबिन था। मैं इस भावनात्मक रिश्ते के कमजोर कर देने वाले उन पलों को छोड़कर आगे चल दी। मगर कैबिन पहुंचती उससे पहले ही मैंने कुछ और भी देखा, एक बेहद ही शालीन महिला जिसकी उम्र तकरीबन 50 है। उससे दो लड़के बेहद ही बेरुखी से पेश आ रहे हैं। वे बार-बार उससे कह रहे थे आपको पैसा किस बात का दे रहे हैं, अगर हम अपने मां—बाप को अपने घर रख पाते, तो क्या आपके पास इन्हें यहां वृद्धाश्रम में छोड़ जाते? मेरे पिताजी अब किसी काम के नहीं रहे इन्हें घर ले जाकर इनकी बकबक नहीं सुननी है मुझे। वह महिला उन्हें बड़ी ही विनम्रता के साथ समझा रही थी।मैं इस पूरे घटनाक्रम को देख रही थी, जब मामला सुलझ गया तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा – कहो बेटी यहां कैसे? क्या तुम भी किसी से मिलने आई हो मैंने कहा जी, जी नहीं। मैं तो यहां बुजुर्गो के लिए शुरु हो रहे डे-केयर सेंटर को देखने आई हूं। वे बड़ी खुश होकर बोली, अरे! वाह, ये तो बेहद ही खुशी की बात है। आओ मेरे साथ मैं तुम्हें सेंटर दिखाती हूं। मैं उनके पीछे चल दी। उन्होंने मुझे पुरा सेंटर घुमाया, बुजुर्गो की देखभाल से जुड़ी हर छोटी बड़ी ज़रूरी चीज़ें दिखाई। इसी दौरान मैंने उनसे पूछा आपने मुझे ये नहीं बताया कि आप कौन है और यहां क्या करती है? वे हंसकर बोली मैं सुरेखा सिन्हा हूं। रिटायर्ड प्रोफेसर हूं।इन बुजुर्गो के साथ समय बीताती हूं, इनकी जरूरत का ध्यान रखती हूं, ये समझ लो मैं अपना समय काट रही हूं। इसके बाद वे मुझे एक कमरे की तरफ इशारा करते हुए बोली आओ, तुम्हें कुछ ऐसे बुजुर्गो से मिलवाती हूं जो जीवन की अंतिम सांसे गिन रहे हैं लेकिन एक आखरी उम्मीद है इन्हें कि शायद हमारे बच्चे आएंगे, पोता पोती आएंगे और कहेंगे, चलो अपने घर, हम आपको लेने आए है। यह वो पल था जिसने मुझे जीवन का एक ऐसा सच दिखा दिया था जिसके बारे में मैंने बस सुना ही था, इतने करीब से देखूंगी ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। मैं बहुत भावुक हो गई। प्रो .सिन्हा ने मेरे चेहरे व आंखों के भाव पढ़ लिए थे शायद तभी सेंटर से बाहर आने के बाद उन्होंने मुझे कहा- ”जिंदगी वैसी नहीं है जैसा हम सोचते है, बल्कि जो हम नहीं जानते असल जिंदगी तो वही है”…दिल मजबूत रखो,तुम्हारी उम्र छोटी है और ज़िंदगी के सवाल बहुत बड़े हैं। यही वो पहला अवसर था जब उन्होंने अपनी लिखी कविता ‘प्रश्न चिन्ह’ की पंक्तियां मुझे सुनाई थी। ”’क्या जाने कब तक हो जाए जीवन के दिन पूरे! एक अधूरी आस लिए… इस वक़्त तक तो मुझे रत्तीभर भी भरोसा नहीं था कि इन पंक्तियों में वाकई ज़िंदगी का गहरा सार छुपा है और शायद प्रो. सिन्हा की अनकही दास्तां भी। जिसे बड़े ही सरल ढंग से उन्होंने लय ताल के सुर में पिरोकर मुझे सुनाई थी। आज अपने बेडरूम में लगी कैनिंग की कुर्सी जो मुझे कमर दर्द से राहत देती है, जब आंखे बंद करके इस पर सुकून पा रही थी तभी मुझे कैनिंग की कुर्सी पर बैठी प्रो. सिन्हा की याद आई। वे दुुबारा मुझे एक कार्यक्रम में नजर आई थी। यह कार्यक्रम कैंसर से पीड़ित लोगों में ‘जीने की आस’ थीम पर आधारित था। कार्यक्रम की औपचारिक रस्म पूरी होने के दौरान ही मेरी नज़र मंच पर बैठे कुछ गणमान्य लोगों और उनके पीछे कैनिंग की कुर्सी पर बैठी प्रो. सिन्हा पर पड़ी। मगर ये क्या? इनका रुप तो बिल्कुल बदला हुआ सा है। पुरुषों की तरह छोटी हेयर कट …कहां गई वो सफेद बालों की कमर तक आती चोंटी? मुझे बड़ी हंसी आई, ‘वैरी फनी’….! सच कहूं तो मुझे वाकई में प्रो.सिन्हा का यह रूप देखकर बहुत आश्चर्य हुआ था। बस मन में यहीं सवाल लिए मैंने एकटक उन पर नजरें बनाए रखी। इक नजर वे भी मुझे देख लें ताकि उन्हें भी ये पता चल जाए कि मैं भी हूं यहां। और साथ ही यह भी पूछ लूं कि, आपके इस बदले हुए रूप की वजह क्या है………? इतने सारे सवाल ज़हन में दौड़ रहे थे, तभी आयोजकों ने आभार व्यक्त करने की रीत भी निभा डाली। प्रो. सिन्हा भी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और वीआईपी गेट से निकल गई। मैंने काफी मशक्कत करते हुए उन तक पहुंचना चाहा लेकिन वे अपनी एक महिला साथी के साथ आगे निकल गई। तभी मुझे लगा कि चलो कोई बात नहीं प्रो.सिन्हा का मोबाइल नंबर तो है मेरे पास अभी उन्हें फोन कर लेती हूं, वैसे भी मुझे तो उनके इस बदले हुए रूप का राज जानने की जिज्ञासा थी। साइड में आकर उन्हें कॉल किया तो जवाब मिला ‘नो रिप्लाई’ मुझे समझ आ गया इस वक़्त नेटवर्क ठीक नहीं है। क्यूं नेटवर्क नहीं मिला शायद, मेरी सोच की परिपक्वता नहीं थी जो मुझे इस होनी का आभास करा पाती। आज जब अपने ही घर में रखी इस कैनिंग की कुर्सी पर बैठी हुई हूं तो ये सारा वाकया मुझे पुरानी यादों में ले गया। और फिर मैंने प्रो. सिन्हा के मोबाइल नंबर पर काॅल किया….फिर वही जवाब मिला ‘नो रिप्लाई’….। लेकिन आज तो मैंने भी ठान लिया कि प्रो.सिन्हा से बात करनी ही है फिर क्या मैंने उनके ठिकाने यानि कि उसी वृदृधाश्रम में फोन किया जहां उनसे पहली मुलाकात हुई थी। हैलो, किससे बात करनी है? किसी पुरूष ने फोन उठाया और पूछा।मैंने कहा, जी वो प्रो.सिन्हा से बात करवाइए। उधर से टेलीफोन उठाने वाले भाई साहब ने कहा जी कौन प्रो. सिन्हा?मुझे इस बात पर गुस्सा आ गया, मैंने सोचा ये कौन है जो प्रो.सिन्हा को नहीं जानता। मैंने उसे प्रो.सिन्हा का परिचय दिया लेकिन वो तब भी नहीं पहचान सका। अच्छा मैं किसी पुराने कर्मचारी को फोन पर बुलाता हूं आप जरा प्र्रतीक्षा करें….। यह कहकर वह आश्रम के पुराने कर्मचारी को बुलाने चला गया। करीब दो मिनट होल्ड रखने पर किसी ने फोन पर हैलो-हैलो कहा, जी मुझे प्रो. सिन्हा से बात करनी है, मैंने बड़ी खुशी के साथ उसे कहा। जी आप कौन है? उसने मुझसे ही सवाल किया।मैंने थोड़ा सा चिड़ते हुए उसे कहा अरे भई, मैं उनकी परिचित हूं।‘उन्हें मरे हुए तो छह माह हो गए’ , क्या आपको नहीं पता? ये सुनकर मैं अवाक रह गई, दिल जोरों से धडकनें लगा। जी मुझे तो कुछ भी पता नहीं है कब व कैसे हुआ? उसने मुझे प्रो.सिन्हा के बारे में कई बातें बताई….. वे तो बहुत भली औरत थी, बुजुर्गो की सेवा कैसे की जाए, उन्हें खुश कैसे रखा जाए, उन्हें ये बख़ूबी आता था। मैंने भी इस बात पर सहमति जताई और फोन रख दिया। मैं कुछ देर तक उसी कैनिंग की कुर्सी पर बैठी रही। मन में तरह तरह के विचार और प्रो. सिन्हा का चेहरा मेरी नज़रों के सामने एक बिम्ब की तरह आता-जाता रहा। इसी दौरान मुझे उनके साथ हुई पहली मुलाकात याद आने लगी और फिर वो ही पंक्तियां——— क्या जानें कब तक हो जाए, जीवन के दिन पूरे! जिसे बेहद ही ख़ूबसूरत अंदाज और सूर में गाया था प्रो.सिन्हा ने।आज वो इस दुनिया में नहीं है लेकिन जब जीवित थी तब इसी पहली मुलाकात पर अपनी लिखी हुई वो किताब मुझे भेेंट में दी थी। जिसमें उनकी कविताओं का संकलन था। उस दिन वृदधाश्रम देखने और वहां के माहौल से परिचित होने के बाद मैंने प्रो. सिन्हा से जाने की इच्छा जताई थी तब उन्होंने कहा कि मैं भी निकल रही हूं, तुम्हें भी छोड़ दूंगी। वे मुझे आश्रम के पीछे की तरफ लेकर गई जहां पर उनकी हरे रंग की मारूती 800 कार पार्किंग में खड़ी थी। उन्होंने कार का गेट खोला और आगे की सीट पर रखी एक किताब उठाई और मुझे यह कहते हुए दी कि यह मेरी तरफ से तुम्हें भेंट हैं। अभी छपकर आई है और इसकी पहली प्रति मैं तुम्हें दे रही हूं। मैंने उनकी इस किताब को सहजता के साथ स्वीकार कर लिया साथ ही उन्हें ये भी जता दिया कि मैं इसे ज़रूर पढुंगी! वे बहुत खुश हुई और ये कहने लगी कि मुझे पढ़ने के बाद ज़रूर बताना कैसी लगी मेरी कविताएं। मैं चौंक गई, अरे बाप रे! तो क्या ये कविताओं का संकलन है? मेरे इस आश्चर्य पर वे बोली हां, ‘मन की पुकार’ ये कविताओं का ही संकलन है। लेकिन इस टाइटल में बेहद गहराई है……. इसमें अपनी सोच, भावना और परिस्थितियों की दशा का वर्णन है। कार में करीब पंद्रह मिनट के इस छोटे से यादगार सफर मेंहम दोनों ने कई सारी बातें की और एक चुटकुले परदोनों ने खूब जोरों से ठहाके भी लगाए। हा, हा, हा, हा….. घर आने के बाद मैंने उनकी दी हुई किताब को मेज पर रख दिया। इसके बाद ये किताब न जाने कहां-कहां पर रखी गई.. और फिर न जानें कब बाकी किताबों और मैग्ज़ीन के नीचे दबती चली गई.. और फिर शायद घर की बाकी रदृदी वाली किताबों के बीच डाल दी गई। मैंने इसे कभी खोलकर देखा ही नहीं। आज इस किताब की याद यूं आई जब पता चला कि प्रो.सिन्हा अब जीवित नहीं है। मैंने कैनिंग की कुर्सी छोड़कर फौरन इसे ढूंढना शुरु किया। अपनी स्टडी टेबल, जरूरी किताबों के बक्से हर कहीं ढुंढा लेकिन लंबी मशक्कत के बाद यह मुझे स्टोर रूम में पड़ी बेकार सी और पुरानी मैग्जीन्स के बीच से आखिरकार मिल ही गई। किताब ढुंढने का यह सफर आसान नहीं था मेरे लिए…….। किताब पर जमी धूल को झटकारा और पहला पृष्ठ खोला। किसी भी अन्य लेखक की तरह उन्होंने कोई आकर्षक भूमिका नहीं बांधी थी जो पाठकों को खींचने के लिए मसालेदार ‘प्रीफेस’ के रूप में परोसी जाती है। प्रो. सिन्हा जैसी स्वभाव से थी वैसे ही उन्होंने ‘मेरी भावना’ नामक भूमिका को एकदम स्पष्ट शब्दों में लिखा था। ‘‘मैं बचपन से अपने अनुभव तथा भावनाओं को डायरी में लिखती आई हूं, ये भावनाएं कभी रागों की बंदिशों में, कभी कविताओं में, कभी कहानी व लेख के रूप में उभरती रहती है……किंतु 59 साल की ढलती उम्र में मुझे कैंसर हुआ ’’ क्या इतना सब कुछ पढ़ लेने के बाद मेरे लिए और भी कुछ जानना बाकी रह सकता था-कतई नहीं। असल तो आज मुझे उस सवाल का जवाब मिल गया था जो मेरे मन में था और मुझे गुदगुदाता रहता था,‘‘मेडम का यह बदला हुआ रूप, पुरूषों की तरह हेयर स्टाइल, ’’। काश उस दिन मुझे समझ आ पाता, उन्होंने ये हेयर स्टाइल फैशन में नहीं बल्कि कैंसर की अंतिम स्टेज में झड़ रहे बालों को नहीं संभाल पाने की वजह से अपनाई थी। इस सच्चाई ने मुझे झंकझौर कर रख दिया है ऐसे में मेरे आंसू कैसे रूक सकते हैं? वे जानती थी कि उनके पास जीवन के दिन गिने चुने है, मुझे अपनी कविताओं की वो पहली प्रति भेंट कर शायद वे मुझे बता चुकी थी ‘मुझे कैंसर है ’…. तभी तो उन्होंने मुझसे विशेष आगृह किया था-‘किताब ज़रूर पढ़ना औैर कैसी लगी बताना’। आज समझ आया क्यूं प्रो.सिन्हा ने मुझे अपने आपको मजबूत रहने की सीख दी थी। उनकी ये पंक्तियां पढ़कर मेरे दिल में अब कोई प्रश्न चिन्ह नहीं रहा। जिंदगी में वाकई कई रंग है। और हमें इन सभी रंगों में रंगकर ही जीना और आगे बढ़ते जाना है। सुख और दु:ख दोनों ही सिर्फ एक पल है…और कुछ नहीं….। कुछ और कहानियाँ – मिसेज ‘लिलि’ तुलसी की पत्ती 12 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post दीदी, ये गणतंत्र दिवस क्या है? next post सर्द रात की सुबह Related Posts छत्तीसगढ़ का भांचा राम August 29, 2024 विनेश फोगाट ओलंपिक में अयोग्य घोषित August 7, 2024 वैदेही माध्यमिक विद्यालय May 10, 2024 राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा January 29, 2024 राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा January 22, 2024 राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा January 21, 2024 समर्पण October 28, 2023 विंड चाइम्स September 18, 2023 रक्षाबंधन: दिल के रिश्ते ही हैं सच्चे रिश्ते August 30, 2023 गाथा: श्री घुश्मेश्वर महादेव August 13, 2023 12 comments Secreatpage February 1, 2020 - 11:14 am Great… 👌 Reply Prashant sharma February 1, 2020 - 11:20 am बहुत ही अच्छा लिखा दीदी। सपनों से कही कड़वी और डरावनी होती है जिंदगी की सच्चाई। प्रशांत शर्मा Reply Teena Sharma 'Madhvi' February 1, 2020 - 11:21 am thankuu so much Reply Teena Sharma 'Madhvi' February 1, 2020 - 11:24 am आपके कमेंट्स से मेरी लेखनी की समझ परिपक्व होती हैं। धन्यवाद प्रशांत जी Reply Unknown February 1, 2020 - 11:39 am Superb very touching Reply श्रद्धा February 1, 2020 - 12:10 pm शब्दों का चित्र आँखों के सामने साकार सा लगा। मार्मिक चित्रण और शानदार अभिव्यक्ति के लिए बधाई । पर एक प्रश्न रह गया, सम्भवतः मैने समझने में चूक कर दी,यदि प्रोफेसर सिन्हा की 6 माह पहले मृत्यु हो गयी थी तो जो महिला मंच पर दिखी वो प्रोफेसर सिन्हा कैसे हो सकती हैं । Reply Vaidehi-वैदेही February 1, 2020 - 12:17 pm This story is worth reading. Reply Teena Sharma 'Madhvi' February 1, 2020 - 3:08 pm थैंक्यूं सो मच दीदी आपने कहानी को पूरे दिल से पढ़ा और एक सवाल भी आपके मन में उठा। जब कैंनिंग की कुर्सी पर वो बैठी थी तभी उसे दूसरा वाकया याद आते हुए प्रो.सिन्हा के साथ वाला वो पल याद आया जब प्रो. सिन्हा भी उसे कैंनिंग की कुर्सी पर उस मंच पर आखरी बार दिखी थी। वो फ्लेश बैक में सोच रही थी। इस वक्त वो मंच का प्रोग्राम देखकर नहीं आई थी। संभव हो तो एक बार इस पैराग्राफ को आप दुबारा पढ़े। निश्चित ही आपका कन्फ्यूजन दूर होगा। Reply Teena Sharma 'Madhvi' February 1, 2020 - 3:09 pm thankuu Reply Teena Sharma 'Madhvi' February 1, 2020 - 3:11 pm thankuu so much.kya me apka name jaan sakti hu. Reply Teena Sharma madhavi February 4, 2020 - 11:12 am ‘‘मैं बचपन से अपने अनुभव तथा भावनाओं को डायरी में लिखती आई हूं, ये भावनाएं कभी रागों की बंदिशों में, कभी कविताओं में, कभी कहानी व लेख के रूप में उभरती रहती है……किंतु 59 साल की ढलती उम्र में मुझे कैंसर हुआ ’’ क्या इतना सब कुछ पढ़ लेने के बाद मेरे लिए और भी कुछ जानना बाकी रह सकता था-कतई नहीं। Reply Teena Sharma madhavi February 4, 2020 - 11:13 am ‘‘मैं बचपन से अपने अनुभव तथा भावनाओं को डायरी में लिखती आई हूं, ये भावनाएं कभी रागों की बंदिशों में, कभी कविताओं में, कभी कहानी व लेख के रूप में उभरती रहती है……किंतु 59 साल की ढलती उम्र में मुझे कैंसर हुआ ’’ क्या इतना सब कुछ पढ़ लेने के बाद मेरे लिए और भी कुछ जानना बाकी रह सकता था-कतई नहीं। Reply Leave a Comment Cancel Reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.