फ़ौजी बाबा      

सरहद

by Teena Sharma Madhvi
फौजी बाबा   

फ़ौजी बाबा      

 

 बेफिक्र ज़िंदगियों के बीच ये ख़ामोशी पहली बार ही छाई थी। क्यूंकि आज पहली बार ही  फौजी बाबा की तेज आवाज़ गांव की आबो—हवा से इतर बह चली थी।  

सुना है कि सरहद के उस पार दुश्मन रहता हैं। वह हमारी तरह नहीं दिखता…बल्कि जल्लाद हैं। तो क्या दुश्मन के हाथ—पैर नहीं…सर और धड़ नहीं…। क्या उसकी आंखें..नाक, कान और सर पर बाल नहीं हैं…? तो फिर वह दिखता कैसा हैं…?

चौपाल पर बीड़ी का धुंआ उड़ाते हुए छोरे—छपाटों की एक टुकड़ी जमा हुए बैठी हैं। भरी दोपहरी का वक़्त हैं। तपिश में राहत की छांव दे रहा हैं गांव का सबसे बूढ़ा नीम का पेड़…। 

छोरों की मंडली अकसर गांव की इसी चौपाल पर बैठकर दुनिया जहान की बातें करती हैं।

आज चौपाल पर मुंह पर गमछा डाले हुए फ़ौजी बाबा भी इसी नीम के पेड़ के नीचे सुस्ता रहे हैं। यूं तो इन छोरों की इतनी औक़ात न थी कि ये फ़ौजी बाबा के सामने सरहद पार के दुश्मन की बातें करें…।

लेकिन मुंह ढका होने की वज़ह से किसी को पता ही नहीं चला कि फौजी बाबा यहीं हैं। 

इसी बीच किसी ने फुसफुसियाते हुए कहा कि, अरे फ़ौजी बाबा तो यहीं सुस्ता रहे हैं…। जरा धीरे बोलो…। तभी सबकी सिट्टी—बिट्टी गुल हुई..। फिर भी किसी ने बीच में धीरे से प्रस्ताव रख ही दिया। 

अच्छा हुआ आज फ़ौजी बाबा भी यहीं हैं…। 

इन्हीं से सुनते हैं…सरहद पार बैठे दुश्मन की कहानी…। 

    इत्ते में फ़ौजी बाबा भी उठ कर बैठ गए। सारे छोरों की नज़रें उन पर थी। लेकिन फ़ौजी बाबा एकदम चुप थे…।

फौजी बाबा 

फौजी बाबा

अपने पास रखी हुई नीम की पत्ती को चबाते—चबाते अचानक से उन्होंने दांतों के बीच उस पत्ती को पूरे जोरों से भींच लिया..मानो सरहद पार बैठा दुश्मन उनके दांतों के बीच आ गया हो…। 

पत्ती की कड़वाहट से अधिक सरहद पार वाले दुश्मन के लिए उनके भीतर कड़वाहट दिख रही थी…। ये कोई आज की बात न थी। जब भी उनसे कोई सरहदों की बातें करता, वे तीखे हो जाते…।

उनकी भौंए तन जाती…दांतों के बीच कटर—कटर की आवाज़ें आने लगती…। उनके चेहरे के भाव बदल जाते। माथे की रेखाओं पर क्रोध दिखने लगता।  

यूं तो पूरा गांव उन्हें बेहद मानता था। क्या बच्चे क्या बड़े और क्या बूढ़े..सभी के दिल में फ़ौजी बाबा के लिए बेहद मान सम्मान था। वे जब भी गांव की चौपाल पर बैठते उनके आसपास एक—एक करके कई लोग जमा हो जाया करते। उनका औरा ही कुछ ऐसा था जो सबको अपनी ओर खींच लाता। 

   उनके पास सुनाने को बेहद किस्से थे। वे हर बार कुछ नया ही सुनाते। लंबी क़द काठी…बिखरे हुए बाल…लंबी सफेद दाढ़ी..गले की लटकती चमड़ी…फटी हुई 

ए​डिया…चेहरे पर झुर्रिया…लेकिन सीना हमेशा तना हुआ…ये हैं फ़ौजी बाबा का हुलिया…।  

    आज भी वे चौपाल पर भली मनोदशा में ही बैठे हुए हैं। पहले हरि उनके पास आया…उनके हालचाल पूछे और फिर बद्री भी आ गया…। देखते ही देखते फौजी बाबा अकेले न रहे। अच्छा खासा मजमा उनके चारों तरफ लग गया। 

तभी किसी ने ज़िद कि…। फौजी बाबा आज कुछ सरहद पार वाले दुश्मन के बारे में सुनाओं..। इत्ते साल तक आप फौज में रहे हो…सरहद से तो आपका बहुत गहरा और पुराना नाता रहा हैं..। ये सुनकर सभी लोग कह उठे हां फौजी बाबा आज तो आपको सुनानी ही होगी ‘सरहद’ की…। 

    ये शोर सुनकर फ़ौजी बाबा उठ खड़े हुए और जाने लगे..। तभी किसी ने कह दिया भला ये क्या बात हुई। बिना कुछ कहे आप यूं ही जा रहे हैं….? 

ये तो ठीक नहीं हैं…। 

आप हमेशा टाल जाते हो..। 

भला ऐसी भी क्या बात हैैं…। 

जब भी कोई आपसे सरहद की बातें करता हैं,.आप मौन साध लेते हैं…। 

 इतना सुनने के बाद भी फ़ौजी बाबा चुप ही रहे और जाने लगे…। तभी एक छोरे ने तिलमिलाते हुए कह डाला…। 

जाओ फ़ौजी बाबा…।

अब के हम में से कोई न पूछेगा सरहद की कहानी…। 

    वैसे भी सरहद पर बैठे जल्लादों के बारे में जानने को रखा ही क्या हैं…। वे तो सिवाए खून ख़राबे के कुछ नहीं जानते…। उनका बस चले तो वे हमारी बहू—बेटियों को घरों से घीसकर ले जाए…।

उन्हें नंगा करके भरे बाजारों में बेच दें…। 

इंसान थोड़े ही हैं वे…। 

इनकी सालों की तो जात ही बुरी हैं

इनकी तो…फुर्र…फुर्र…। थू हैं सालों पर…।

   ये सुनकर फ़ौजी बाबा एकदम से रुक गए और वापस अपनी जगह आकर बैठ गए…। बेहद गुस्सा भरा था उनके भीतर…। वे लंबी—लंबी सांसे भरने लगे…उनका ताव देखकर कुछ तो घबरा गए…। तभी फ़ौजी बाबा चीख उठे…। 

‘सरहद के पार भी इंसान ही हैं…। 

हैवान तो हैं वे सियासतदान और हुक्मरां’…। जो सीमाओं पर हम जैसे इंसानों को बंदूक हाथ में देकर खड़ा कर देते हैं..। 

   गांव के लोगोें ने पहली बार फौजी बाबा को इतने गुस्से में देखा था। उनका ये रुप देखकर सभी के सभी चुप हो गए…। एक पल के लिए चौपाल पर ख़ामोशी सी छा गई…।

चौपाल के सामने से गुज़रने वाले भी आश्चर्य चकित हो ठहर गए…। सभी के कान फ़ौजी बाबा को सुनने के लिए खड़े हो गए…। 

    गांव की चहल—पहल और बेफिक्र ज़िंदगियों के बीच ये ख़ामोशी पहली बार ही छाई थी। क्यूंकि आज पहली बार ही फ़ौजी बाबा की तेज आवाज़ गांव की आबो—हवा से इतर बह चली थी।  

    कूदरत भी इस वक़्त न जानें किस सोच में थी। इसी वक़्त तेज हवा का झोंका आया…। चौपाल पर बैठे सभी ने धूल से बचाव के लिए आंखें बंद कर ली तो किसी ने मुंह को छुपा लिया।

शांए..शांए..करती हवा के झोंके से नीम की पत्तियां झड़ने लगी…। और इसी के साथ ख़ामोशी भी धीरे से टूूटने लगी…।  

    सारे के सारे फिर से फौजी बाबा की तरफ देखने लगे। फ़ौजी ज़मीन पर आड़ी—तेड़ी रेखाएं खींचने लगे..। 

   किसी ने हिम्मत जुटाई और पूछा…।

तो क्या सरहद पार भी इंसान ही रहते हैं? 

फ़ौजी बाबा ने उसकी तरफ देखा…। ख़ुद को शांत किया और बोले कि— हां, ‘क्यूं नहीं’…। 

    उनके पास भी हमारे जैसा ही शरीर और द़िमाग हैं। उनका भी घर—परिवार हैं। घर में बूढ़े मां—बाप, पत्नी और बच्चे हैं। बहनें हैं जिनका ब्याह कराने की ज़िम्मेदारी हैं…।

रिश्ते—नाते हैं…मुहल्लेदारी हैं…। उनके पास भी एक दिल हैं जिसमें कई सारी भावनाएं छुपी हैं…लेकिन सरहद पर बंदूक हाथ में लिए खड़ा हैं न, इसीलिए वो ‘दुश्मन’ हैं। 

    लेकिन फ़ौजी बाबा की ये बात कुछेक को हज़म नहीं हुई। वे सरहद पार वाले की तारीफ़ सुनकर भड़क उठे…। 

 बोले कि, तो क्या हम उन्हें अपनी ज़मीन दे दें…। अपनी धरती मां को उन दुश्मनों के हवाले कर दें। दुश्मन तो सिर्फ दुश्मन ही होता हैं…। 

    फ़ौजी बाबा ने गंभीर होकर कहा कि…’इंसानियत की दुश्मन हैं ये सरहदें’…’ज़िंदगियों को पाटने वाली हैं ये सियासतें और हुकूमतें’…और इल्ज़ाम हैं उस आदमी पर जो खड़ा हैं सरहद पार..। 

     क़ासिम और मेरा क्या कसूर था…? कुर्सी पर बैठे हुए ​हुक्मरानों के इशारों पर सरहदें लांघने के लिए मजबूर होना पड़ता हैं। और इल्ज़ाम लगता हैं सरहद पर खड़े आदमी पर…दुश्मन हैं वो, काफ़िर हैं वो…। 

    खून से लथपत क़ासिम जब अंतिम सांसे ले रहा था…तब उसकी कराहती आह में इंसानियत की दुर्गती और आंखों में ज़मीन की ख़ातिर हो रही इस बेमतलब की रंजिश का दर्द बह रहा था। 

     वो पूछ रहा था मुझसे…मैं भी तेरी ही तरह दिखता हूं मेरे यार…फिर तेरा दुश्मन कैसे हुआ…? क़ासिम मुझसे इस बात से ख़फा न था कि मैंने उसे गोली मारी थी।

जिन हाथों से मैंने उसकी आंखों के आंसू पोंछे थे कभी, वो उन हाथों के अपनेपन की क़ीमत पूछ रहा था मुझसे…। वो उस कौर का मौल मुझसे पूछ रहा था जो मैंने उसकी ओर सरकाया था कभी…। 

   दोनों के बीच एक तार भर की दूरी थी…लेकिन भावनाओं का सैलाब एक—दूजे के लिए बह रहा था…कभी बूढ़ी मां के हाथों से बनीं रोटियों और सिवईयों की यादें बंटती…तो कभी बूढ़े बाप के झूकते कांधों से आंखें नम हो जाती…। कभी बहन के ब्याह की चिंता सताने लगती जो दिनरात ख़ुद के दहेज का रुपया इकट्ठा करने के लिए ज़रद़ोजी का काम कर रही थी…। 

 

    कभी बीवी की आंखों में भरे इंतज़ार के बेबस आंसूओं पर दिल रोता तो कभी बच्चे की मासूम अठखेलियां दिल को तड़पा उठती…। अब कितना बड़ा हो गया होगा मेरा लाड़ला…? ये ख़याल फिर आसमान में टिमटिमाते हुए तारों की ओर ले जाता। तारों को देखकर यहीं दुआ निकलती….ईश्वर उसे हमेशा यूं ही खुश रखें। 

   फिर थोड़ी ही देर में सबकी यादों में क़ासिम और मेरे आंसू ज़मीन पर गिरने लगते…। 

फ़ौजी बाबा बिना रुके हुए बोलते रहे…। उन्हें घेर कर बैठे ​गांव के लोग आज उनकी बातें सुनकर भावु​क हो उठे..। सभी की आंखों में फौजी के दर्द की नमी थी..। सभी आज मौन थे।

फ़ौजी बाबा की आंखों से भी आंसू टपक रहे थे…। उन्होंने अपने गमछे से आंसू पोंछकर एक गहरी सांस ली…। आसमान की ओर देखा फिर ज़मीन पर देखते हुए एक पल के लिए यादों के आगोश में सिमट गए..। सभी की नज़रें उन पर गढ़ी हुई थी। 

फौजी बाबा   

फौजी बाबा

 कुछ ही पल में फ़ौजी बाबा फिर बोले..क़ासिम की खुली आंखों में मेरे लिए दुआ थी और सवाल भी…।

जिसका जवाब आज भी पूछ रहा हूं मैं, उन ​सियासतदानों से, जो ये समझ बैठे है कि दुनिया में उनकी हुकूमत हमेशा ज़िंदा रहेगी…वे ख़ुद कभी नहीं मरेंगे…।   

     जिसका मौल क़ासिम मुझसे पूछ रहा था, असल में वो ‘मूल्यवान ज़िंदगी हैं’…। 

इस ज़मीन को बांटने वालों ने ज़िंदगियों को भी सरहद के इस पार और सरहद के उस पार की लकीरों के बीच बांट दिया हैं। सरहदों के बीच पड़ने वाली नदियों के नाम बदल दिए…। 

    सरहदों से सटे हुए गांव ठहरे हुए से हैं। यहां ज़रा सी भी हलचल होती हैं तो लगता हैं मानों घर से बाहर निकालने वाले आ गए…। ये ही ख़ौफ ज़िंदगी में हर पल शामिल हैं…।

सरहद के पार दोस्त भी हैं..लेकिन दूरियों के बीच वह ‘दुश्मन’ का नाम लिए खड़ा हैं। 

    ये कहते—कहते उनकी आंखों से सरहद के आर—पार का दर्द बहने लगा। वे फफक कर रो पड़े। गांव वाले आज एक फौजी के दर्द की कहानी सुन रहे थे। वो फ़ौजी बाबा जो अब तक चुप थे…जिनके क्रोध की वजह दुश्मन नहीं बल्कि वे लोग और उनकी लालसा थी जिसकी पूर्ति सरहद पर खड़े इंसानों के मरने से पूरी होती रही हैं। 

    फौजी बाबा से आगे और कुछ भी पूछने की अब ​किसी में हिम्मत न हुई..। 

    कुछ देर तक सब के सब शांत होकर बैठे रहे। फ़ौजी बाबा ने खुद को संभाला और आंखों से आंसू पोंछते हुए खड़े हुए और चल दिए लड़खड़ाते हुए कदमों से घर की ओर…। 

    धीरे—धीरे चौपाल खाली होने लगी…। शेष रह गई नीम की पत्तियां…और बीड़ी के टुकड़ें…।  

        

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कहानी पॉप म्यूज़िक

गुटकी

 

 

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6 comments

Teena Sharma madhavi January 19, 2021 - 11:06 am

Nice Story👍👍

Reply
teenasharma May 5, 2022 - 11:01 am

thankyu

Reply
Unknown January 21, 2021 - 8:47 am

बहुत ही अच्छी लेखनी,,दिल छू लेने वाली कहानी।।

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Teena Sharma 'Madhvi' January 21, 2021 - 11:49 am

Thank-you so much

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'चरण सिंह पथिक' - Kahani ka kona May 17, 2022 - 1:59 pm

[…] 'फौजी बाबा'… […]

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shailendra sharma May 20, 2022 - 6:18 am

दिल को छू लेने वाली कहानी

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टीना शर्मा ‘माधवी’

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