कहानियाँ कबिलाई— एक ‘प्रेम’ कथा…. भाग—2 by Teena Sharma Madhvi July 8, 2021 written by Teena Sharma Madhvi July 8, 2021 मध्यम धूप खिलने लगी…बीती रात जो तूफान—बारिश आई थी उस पर ‘मखमली’ धूप की चादर बिछ गई…ऐसा लगा मानो तूफान सिर्फ सोहन को कबिलाईयों के बीच लाने भर के लिए ही उठा हो। टीना शर्मा सोहन पूरी रात सो नहीं पाया। वह समझ नहीं पा रहा था कि इस समय वो कैसे यहां से निकलें…। उसे एक ही बात अधिक सता रही थी आख़िर शंकरी ने अपने पिता भीखू सरदार से झूठ क्यूं बोला…? उसने ये क्यूं कहा कि वो मुझे पसंद करती हैं…? अगले दिन सुबह जब कबिलाई एक साथ बस्ती के टिबड्डे पर पहुंचे तब शंकरी के साथ उसे भी खड़ा किया गया। तब उसने शंकरी से धीमे स्वर में पूछा, ये सब क्या हो रहा हैं शंकरी…? मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता …। मेरी मां, परिवार और रिश्तेदार कभी—भी इस बात के लिए राज़ी नहीं होंगे कि मेरी शादी एक कबिले की लड़की से हो। शंकरी मुझे इस बंधन में बंधने से बचा लो…। निश्चित ही तुम बहुत ही सुंदर और साफ़ दिल की लड़की हो लेकिन मेरी अपनी मजबूरी को भी समझो…। शंकरी चुपचाप सोहन की बातें सुनती रही…जैसे ही उसने बोलने के लिए मुंह खोला तभी भीखू सरदार की अगुवाई में बिगुल बजने लगा। बस्ती के चारों और ‘हौ हुक्का’…’हौ हुक्का’…’हौ हुक्का’…’हौ हुक्का का हौ हल्ला हो उठा…। ‘भीखू सरदार की जय हो’…’भीखू सरदार की जय हो’…। बस्ती के सारे लोग एक ही स्वर में नारा लगाने लगे। सरदार के आते ही शंकरी ने मुंह बंद ही रखा और सोहन से कुछ कह न सकी। भीखू सरदार के आते ही सोहन के माथे से पसीना छूटने लगा। वह मन ही मन उस तूफान को कोसने लगा जिसकी वजह से वह कबिले में आ फंसा था। वह कुछ बोलने ही वाला था तभी सरदार ने सभी को शांत होने का इशारा किया और शंकरी को अपने नजदीक बुलाया। उसके सर पर हाथ रखा और बोला अपना मनपसंद जीवनसाथी चुनने के लिए बधाई हो…। ”आज और अभी से तुम सोहन की हुई और सोहन इस कबिले का जमाई” …। सरदार की बात सुनते ही सोहन बुरी तरह से घबराने लगा…फिर भी उसने हिम्मत करके सरदार को कह डाला…’क्या इस विवाह में मेरे घर और परिवार के लोग शामिल नहीं होंगे’…? सोहन की बात सुनते ही सरदार बोल पड़ा क्यूं नहीं…? लाल चूनर सर पर डालने के बाद शंकरी तुम्हारी हैं। तुम इसे ले जाओ और अपने परिवार के साथ अपने रीति—रिवाज से विवाह कर लो…। अपनी बात पूरी होने के साथ ही उसने सोहन को अपने पास बुलाया और उसके हाथ में लाल चूनर देते हुए बोला, सोहन बाबू ये चूनर हमारे कबिले की ‘मान—मर्यादा’ हैं। एक बार ये किसी लड़की के सर पर ओढ़ा दी तब उसकी मर्जी होने पर ही इसे उतारा जा सकता हैं। लेकिन उसके लिए भी एक ‘कबिलाई रस्म’ होती हैं। सोहन ने ये सुनते ही फोरन पूछ लिया वो क्या हैं…? तब भीखू सरदार ने उसे बताया कि, कबिलों की देवी के सामने लड़की ख़ुद ये स्वीकारती हैं कि उसने जिस वर को चुना हैं वो ठीक नहीं हैं…या अब वो उसके साथ रहना नहीं चाहती हैं…। लेकिन ये रस्म शादी के दो साल पूरे होने पर ही ‘कबिलाई संस्कृति’ में मान्य हैं। ये सुनकर सोहन का दिल और जोरों से धड़कने लगा। उसने फिर हिम्मत जुटाई और भीखू सरदार को कह डाला, मैं शंकरी से विवाह नहीं कर सकता…। ये सुनते ही सरदार की भौंहे तन गई और आंखों में गुस्सा तैर उठा..। सोहन की बात सुनते ही कबिले के बाकी लोगों ने भी अपने—अपने खंजर निकाल लिए….। ये देखकर सोहन के माथे से पसीना टपकने लगा…। उसकी हालत देख भीखू सरदार भांप गया, ज़रुर दाल में कुछ काला हैं…। वह जोर से चिल्लाया…। सोहन बाबू…सच क्या हैं बताओ…वरना जान से हाथ धौ बैठोंगे…। तभी शंकरी बीच में बोल पड़ी..। कुछ नहीं सरदार, सोहन बाबू ने मुझे इस बारे में जिक्र किया था…। इनकी दिली ख़्वाहिश है कि इनके घर वालों के सामने ही हमारा विवाह हो…और कोई बात नहीं हैं…। शंकरी की बात सुनते ही सरदार के माथे की सलवटें कम हुई और उसने कबिले के लोगों को खंजर भीतर रखने को कहा…। शंकरी फिर बोली— अरे! सोहन बाबू…। आप भी कितना सोच रहे हैं…? अब छोड़िए ये चिंता, झट से ये चूनर मेरे सर पर ओढ़ा दीजिए। सोहन हैरान था, आख़िर ये शंकरी बार—बार झूठ पर झूठ क्यूं बोल रही हैं…? वो सोच में ही था और शंकरी ने लाल चूनर उसके हाथ में थमा दी और उसे ओढाने को कहा। सोहन ने इस वक़्त सोचा शायद मौके की नज़ाकत यही हैं, उसने द़िमाग से काम लिया और बिना कोई सवाल किए हुए शंकरी को चूनर ओढ़ा दी…। मर्यादा की चूनर ओढ़ते ही कबिले के लोग फिर चिल्ला उठे…’हौ’… ‘हौ हुक्का’…’हौ हुक्का…। सरदार ने दोनों को आशीर्वाद दिया और फिर कबिलाई नगाड़े बजने लगे…। ”ढमाढम…ढमाढम…ढमाढम”…। एक—एक कर कबिले के सभी लोगों ने नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद दिया और उपहार भेंट किए। इसके बाद दोनों को वनदेवी के दर्शन के लिए ले जाया गया…। सोहन के भीतर उफान था और किसी भी तरह से यहां से बचकर निकल जाने की बैचेनी…। शंकरी मन ही मन सोहन की बैचेनी को महसूस कर रही थी लेकिन इस वक़्त कुछ भी न कर पाना उसकी बेबसी से कम न था…वो ख़ुद भी एक मौके के इंतज़ार में थी। जब कबिलाई संस्कृति की सारी रस्में पूरी हो गई तब ‘दावते—ए—ख़ास’ का आयोजन हुआ। बस्ती को झालर और चमकीली लड़ियों से सजाया गया। चारों ओर कनात लगाई गई…दरियां बिछाई गई…। अलग—अलग तरह के पकवान बनाए गए…। सभी ने मिलकर दावत का लुफ़्त उठाया…। आज पूरी बस्ती में आनंद और उत्साह था…। पूरी बस्ती में सोहन ही था जो कबिलाईयों की भीड़ में बिल्कुल अकेला था…। उसे अपनी ‘मां’ व घर की याद सता रही थी…। वह गहरी चिंता में डूबा हुआ था। दो दिन में ही उसके जीवन में एक बड़ा ‘भूचाल’ आ गया था…एक तूफान ने उसके जीवन को बदल दिया था…वह कैसे ख़ुद को ये सब स्वीकारने के लिए तैयार करें…? उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था…। वह शंकरी से अकेले में बात करने के लिए एकांत तलाश रहा था लेकिन शंकरी को कबिलाई औरतें घेरे हुए थी…वह एक बार उससे सारा मांजरा समझना चाहता था। दिनभर के आयोजन के बाद जब सांझ ढलने लगी तब धीरे—धीरे कबिलाई लोग अपने—अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे…। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरी तरह से ढल चुका था और दूसरा प्रहर लग चुका था। शंकरी और सोहन के लिए टेंट को सजाया गया…और फिर ढोल बजने के साथ ही उन्हें साथ में टेंट के भीतर छोड़ा गया….। क्रमश: पहला भाग कबिलाई— एक ‘प्रेम’ कथा 2 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post मेरी ‘चाहतों’ का घर…भाग—2 next post ‘रबर—पेंसिल’ …. 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