रंगमंच ‘एकांकी’ – नहीं ‘चुकाऊंगी’ झगड़ा by Teena Sharma Madhvi April 26, 2021 written by Teena Sharma Madhvi April 26, 2021 समय : 45 मिनट भाषा : हिन्दी ———————————————————— पात्र परिचय पात्र के नाम उम्र और हुलिया। 30 रेवती (मुख्य पात्र) सावली है लेकिन नैन नक्श अच्छे हैं। रेवती का पति 33 गुटखा—पान चबाता, आवारा सा दिखता है रेवती का बेटा 6 नेकर और शर्ट पहने रेवती की मां 58 दुबली सी विधवा औरत रेवती का भाई (सामान्य कदकाठी) 34 रेवती की भाभी (नाटी औरत) 32 पंच— 45-60 कुर्ते पजामें पहने हुए हैं। जो बड़े रोबदार से दिखते हैं। कुछ अन्य लोग जो भीड़ के रुप में शामिल होंगे— इसमें औरतें, आदमी और उम्रदराज़ व्यक्ति भी शामिल होंगे। एक औरत की गोदी में दो साल का बच्चा भी होगा, जो बीच—बीच में रोता रहेगा। ———————— (नाटक की शुरुआत गांव के एक दृश्य से होती हैं। एक स्थान पर सभी पात्र इकट्ठे हैं। पंचायत लगी हैं। पंच कुर्सियोें पर बैठे हैं। मुख्य पात्र रेवती पंचों के सामने खड़ी हैं। ज़मीन पर दरी बिछी हुई हैं जिस पर सभी पात्र बैठे हुए हैं। जिनके बीच खुसर—फुसर हो रही है।) पंच: बोलो रेवती क्या कहना हैं तुम्हें। रेवती: (आंखों में उदासी लिए हुए पंचों के सामने हाथ जोड़ते हुए) मुझे मुक्ति चाहिए उन रिश्तों से जो अपना खून तो कहलाते है लेकिन अपनों के आंसू देखकर जिनका दिल नहीं पसीजता…। पंच: साफ—साफ शब्दों में अपनी बात बताओ रेवती। रेवती: मुझे आज़ाद कर दो अपने अत्याचारी पति से। मुझे मुक्ति चाहिए इस बनावटी समाज से जो सिर्फ ‘थोपना’ जानता है लेकिन ‘थामना’ नहीं …। पंच: पहले ‘झगड़ा चुकाओ’ तभी तुम्हें मुक्ति मिलेगी। रेवती: कहां से चुकाऊं ‘झगड़ा’…। लोगों के घरों में झाडू—पोंछा मारकर जैसे—तैसे गुज़र बरस कर रही हूं…जो पैसा कमाती हूं वो पेट भरने और बेटे को पालने में ही चला जाता हैं। पंच: झगड़ा चुकाएं बिना तो तुम्हें आज़ादी नहीं मिलेगी। भीड़— (पंच की बात सुनते ही लोग खुसर—फुसर करने लगते हैं।) रेवती: (मां की ओर देखते हुए) मां तू बता ना पंचों को..। झगड़ा राशि चुकाने के लिए मैं कहां से रुपया लाऊंगी…? मां: यदि तू अपने पति के अत्याचारों से दु:खी है तो पंचों द्वारा तय राशि तो देनी ही पड़ेगी। सदियों से ये ही परंपरा चली आ रही हैं। रेवती: तू भी पंचों की भाषा बोल रही हैं मां…। मां: रेवती हम इन परंपराओं से बंधे हुए हैं। वरना ये समाज हमारा हुक्का—पानी बंद कर देगा…। तब हम कहां जाएंगे…? रेवती का भाई: (गुस्से से खड़ा होता है) मां सच ही तो कह रही है। पति से अलग होकर तुम कैसे जी सकोगी। और फिर कब तक हम तुम्हें अपने घर रख सकेंगे? रेवती की भाभी: (हां में हां मिलाते हुए) हमें तो समाज में ही रहना है। तुम अपनी भसड़ खुदे ही क्यूं नहीं निपटाती। (तभी भीड़ में बैठी औरत की गोद में बच्चे के रोने की आवाज़ आती हैं। सभी का ध्यान बच्चे के रोने पर जाता हैं।) पंच: (हाथ हिलाते हुए) बच्चे को चुप कराओ। फिर रेवती की ओर देखते हुए, क्या कहती हो… आज झगड़ा चुकाओगी…या…पति के साथ घर जाओगी? रेवती: मुझे पति की मार और बुरे बर्ताव से मुक्ति चाहिए…मैं नहीं रह सकती पति के साथ। बस मुझे इस बंधन से मुक्त कर दो….। पंच: तुम फिर वहीं पुराना राग अलापकर सभा का समय ख़राब कर रही हो। रेवती: आप तो पंच है और न्याय की कुर्सी पर बैठे हो। आज समय बदल गया है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। मेरे सर पर इस कुप्रथा का बोझ क्यूं डाल रहे हैं। पंचों ने प्रथा अनुसार झगड़ा चुकाने की कीमत 5 लाख रुपए मुक्करर की हैं। मैं एक गरीब औरत हूं, कहां से और कैसे इतनी बड़ी राशि चुकाऊंगी। पंच: तुम इसे कुप्रथा कहती हो। ये तो हमारे समाज की सदियों से चली आ रही परंपरा है। यदि पत्नी अपने पति को छोड़ना चाहती है तो उसे उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। ताकि पति इस राशि से अपनी दूसरी गृहस्थी शुरु कर सके। रेवती: ये तो इंसाफ न हुआ…। पति को दूसरी गृहस्थी शुरु करने के लिए भी पहली पत्नी से ‘झगड़ा राशि’ के रुप में पैसा मांगना ग़लत हैं। पंच: तुम चाहे जो भी समझो…। यदि पति अपनी पत्नी को छोड़ता है तब भी झगड़ा चुकाने की कीमत पत्नी को ही देनी पड़ेगी। रीत तो ये ही चली आ रही है। रेवती: तो दोनों ही सूरत में ये कुप्रथा औरत पर ही लादी जाएगी। (पंच जोरों से हंसते हैं। फैसले को सुनने आए कुछ लोगों की भी हंसी छूटती है।) पंच: पुरुषों का समाज है वे जो चाहे करें। रेवती: लेकिन इस प्रथा में बच्चे की जिम्मेदारी का बोझ किस पर डालेगा आपका समाज? पंच: भला ये भी कोई पूछने की बात है। बच्चा तो औरत की झोली में ही जाएगा। अब वो ही जानें उसे कैसे पालना है। रेवती: पंचों की सभा में भी तो पुरुष ही है। वे कैसे एक औरत के मन और दशा को महसूस करेंगे। सुना दो अपना अंतिम फैसला…लेकिन मैं वही करुंगी जो मेरा ज़मीर मुझे गवारा करेगा। पति: (तभी बीच में बोल पड़ता हैं) झगड़े की कीमत चुका दें वरना तुझे मेरे साथ ही रहना पड़ेगा…। मरण तो तेरा होगा ही…। रेवती: (पति की धमकी सुनकर कांप उठती है। लेकिन अपने बच्चे की ओर देखकर ख़ुद में हिम्मत भरती हैं।) मर जाउंगी लेकिन तेरे जैसे दरिंदें के साथ कभी नहीं रहूंगी। पंच: औरत हो रेवती…इसीलिए अपनी ‘औकात’ में बात करो…। (रेवती जो सभा में अब तक सिर्फ न्याय मिलने की आस लगाए बैठी थी वह इस वक़्त सिर्फ अपनी अंतरात्मा की सुनती है। और सदियों से चली आ रही ”झगड़ा चुकाओ’ कुप्रथा को खुले रुप से चुनौती देती है। वो पूरे आत्म विश्वास के साथ पंचो और पति की तरफ हाथ करते हुए कहती है——) रेवती: सदियों से परंपरा के नाम पर एक औरत पर आर्थिक बोझ डाला जा रहा है। न जाने कितनी ही बेटियां इस कुप्रथा के बोझ से दबती चली आ रही है। लेकिन मैं कभी भी इस बोझ को नियती समझकर ख़ुद पर लदने नहीं दूंगी। चाहे मेरी जान ही क्यूं ना चली जाए….। (पंचो का स्वर तेज होता हैं।) पंच: अरे वाह रेवती ऊँची आवाज से पंचों को डराने की कोशिश कर रही हो। तुम सिर्फ ये बताओ कि कीमत चुकाओगी या नहीं…। रेवती: नहीं…समाज अब चाहे जो कर लें…ये ‘झगड़ा’ तो अब कभी नहीं चुकाऊंगी। (भीड़ में फिर बच्चा रोने लगता हैं।) पंच: अरे चुप कराओ इसे। (एक—साथ कुर्सियों से उठ खड़े होते हैं और गुस्से से कहते हैं।) पंच: तो तुम पंचों के फ़ैसले को ललकार रही हो? ये मत भूलों कि, ऐसा करके तुम इस समाज में जी न सकोगी…। रेवती: (छाती ठोेकेते हुए।) मैं ना तो अपने अत्याचारी पति के साथ रहूंगी और ना ही सदियों से चली आ रही प्रथा के अनुसार झगड़ा राशि चुकाऊंगी..। जो करना हैं वो कर लेना…। (रेवती की चुनौती ने पंचों की नज़रें नीची कर दी। आज एक औरत ने सदियों से चली आ रही ‘झगड़ा प्रथा’ का विरोध किया था।) रेवती: (पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने बच्चे का हाथ पकड़ती हैं और पंचों की सभा छोड़कर चली जाती हैं। जाते—जाते सभा में बैैठे लोगों से कह जाती हैंं—) किसी को तो ऐसी प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी। आज मैंने अपनी लड़ाई लड़ी हैं ताकि आगे से कोई बेटी इन कुप्रथाओं को निभाने के लिए मजबूर न हो। अब फ़ैसला आप पर छोड़ती हूं…। भीड़: (चिल्लाकर) वाह—वाह! कमाल कर दिया रेवती..। (दरी पर बैठे सभी लोग अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं और एक साथ जोरों से ताली और सीटी बजाते हैं। तालियों की गड़गड़ाहट ने रेवती के फैसले को सही बताया।) रेवती की मां, भाई और भाभी शर्मींदगी से नज़रें नीची कर लेते हैं। (परदा गिरता हैं। ) लेखक — टीना शर्मा ‘माधवी’ पत्रकार, स्वतंत्र टिप्पणीकार, कहानीकार sidhi.shail@gmail.com kahanikakona@gmail.com 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post कभी ‘फुर्सत’ मिलें तो… next post एक ‘पगार’ … Related Posts ‘नाटक’ को चाहिए ‘दर्शक’…. 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