प्रासंगिकविविध ‘पारंपरिक खेल’ क्यों नहीं…? by Teena Sharma Madhvi November 13, 2021 written by Teena Sharma Madhvi November 13, 2021 ‘बाल दिवस’ पर विशेष——— ये कहानी हैं एक ऐसे बचपन की जिसमें धूल और मिट्टी से सने हाथ और पैर हैं…। ये कहानी हैं एक ऐसे अल्हड़पन की जो बेफिक्र था ‘कॉम्पीटीशन’ की चकाचौंध वाले गैजेट्स से…। ये कहानी हैं एक ऐसे बचपन की जहां दोस्ती की छांव में ऊँच-नीच का भेद न था…ये कहानी है एक ऐसे बचपन की जब पीट पर थप्पी मारते ही दौड़ शुरु हो जाया करती थी…ये कहानी हैं एक ऐसे बचपनें की जहां ‘खेल’ सिर्फ खेलने भर के लिए ही खेले जाते थे, जिसमें अपनापन भी था और ज़मीन से जुड़ाव भी। सिद्धी शर्मा कहां गुम हो गए हैं वो कंचें और चीयों की खन—खन…वो पत्थर का गोल सितोलिया…और वो लंगड़ी पव्वा…। वो कपड़ें की गेंद का पीट पर मारना तो हाथ पकड़कर वो फूंदी लेना…। वो ‘ता’ बोलकर कहीं छुप जाना, फिर पीछे से आकर ‘होओ’ कहकर डरा देना…। कहीं बहुत पीछे छूट गया हैं ‘शायद’ वो बचपन….और छूट गई है वो ‘चिल्ला पौ’…। कहीं पीछे छूट गए हैं वो परंपरा से बंधें खेल…जो आज के ‘बचपनें’ से कोसो दूर हो चले हैं…। मलाल है इस बात पर कि, वर्तमान पीढ़ी में ये खेल अब नहीं खेले जा रहे हैं। आज का बच्चा नहीं जानता है इन खेलों के बारे में…। हां, गांव—ढाणियों में ज़रुर ये पारंपररिक खेल अब भी कहीं—कहीं जीवित हैं…। गांवों की मिट्टी से सने हुए नन्हें हाथ—पैर अब भी गली मोहल्लों में कहीं—कहीं ‘गिल्ली—डंडा’…’लंगड़ी कूद’…’पकड़म पाटी’…छुपम छईयां…जैसे खेल खेलते हुए नज़र आ जाएंगे। लेकिन आभासी दुनिया के गैजेट्स इन मिट्टी लगे हाथों से भी दूर नहीं हैं। शहरों में बच्चों की मजबूरी कहें या समय की मांग…जब अधिकतर बच्चें के हाथों में ये गैजेट्स होना आम बात हो चली हैं। रही सही कसर ‘कोरोनाकाल’ ने पूरी कर दी हैं। ऑनलाइन क्लास की मजबूरी ने बच्चों को मोबाइल, टैब, लेपटॉप, कम्प्यूटर जैसे उपकरणों के अधिक क़रीब ला दिया हैं। ऐसे में बच्चे इन उपकरणों के समय पूर्व इस्तेमाल के आदि हो चले हैं। लेकिन इस ‘कोरोनाकाल’ को छोड़ दिया जाए तो भी इससे पूर्व के सालों में भी ये खेल नदारद ही दिखाई देते हैं। इस बात को मानने और न मानने के कई बहाने होंगे। लेकिन सवाल ये हैं कि क्या हम फिर से वही पुराने खेल अपने बच्चों को नहीं खेला सकते…? क्या वाकई ये इतना मुश्किल हो चला है…? या फिर हमनें ख़ुद ही ये उम्मीद इस विश्वास के साथ छोड़ दी हैं कि अब तो गैजेट्स का ही ज़माना हैं, इस पीढ़ी के बच्चों को इसी के साथ ‘जीना’ और ‘खेलना’ होगा…। फिर चाहे उनका मानसिक पतन ही क्यूं न हो रहा हो…। क्या आपको नहीं लगता कि बच्चा जो खेल अब खेल रहा हैं वो उसके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए सही नहीं हैं…। कुछ खेलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर खेल उसके हाथ की अंगुलियों से संचालित हो रहे हैं…। इसे आप इनडोर गेम्स की श्रेणी में शामिल होना कह सकते हैं…। तो क्या ये सच में ‘खेल’ हैं….? इस ‘बाल दिवस’ पर एक बार ठहर कर ज़रुर सोचिए। क्या सच में इस पीढ़ी को पुराने खेलों के प्रति आकर्षित करना मुश्किल हैं…? शायद बिल्कुल भी नहीं…। हम क्यूं नहीं सीखा सकते हैं वो खेल जो शुरु से ही इको फ्रेंडली और शारीरिक व मानसिक रुप से स्वस्थ्य हुआ करते हैं। इतना ही नहीं ये पारंपरिक खेल हरेक की पहुंच में भी शामिल हैं। फिर चाहे वो सबसे निचले छोर पर खड़ा बच्चा ही क्यूं न हो। इन खेलों के लिए कोई बड़ा खर्च करने की भी ज़रुरत नहीं हैं। इस वक़्त ज़रुरत है तो बस अपनी सोच बदलकर एक नई शुरुआत करने की। ‘कहानी का कोना’ के माध्यम से पारंपरिक खेलों के बारे में पाठकों से सुझाव और उपाय मांगे गए थे। इस पर कई लोगों के बेहतर सुझाव प्राप्त हुए। जिसे नीचे साझा किया जा रहा हैं। —————– —बच्चों की बर्थडे पार्टी दिन में रखकर घर के बड़े लोग खुद भी पारंपरिक खेलों को खेलें और बच्चों को खिलाकर उनकी रूचि बढ़ाएं। सोसाइटी में जैसे सोसाइटी मीटिंग होती है, महिलाओं की किटी होती है। उस तरह बच्चों के लिए कुछ पारंपरिक खेलों की प्रतियोगिता रखी जाए। जब भी पिकनिक पर जाएं मोबाइल को आराम करने दें और रस्सी कूदना, सितोलिया खेलना, छुपा— छुपी खेल जैसे गेम बच्चों के साथ खेलें। उषा शर्मा, रिटायर नर्सिंगकर्मी जयपुर ————— —सबसे पहले बच्चों की पसंद और नापसंद जानें। उसे अपने बचपन की यादों में लेकर जाएंं। उसकी जिज्ञासा जिस भी खेल के साथ अधिक हो तब स्वयं उसके साथ खेलकर दिखाएं। ऐसे में उसे उस पारंपरिक खेल के प्रति रुचि पैदा होगी। प्रेम कुमार, प्रोफेसर जबलपुर ———— — बच्चों को सही मायने में समय देने की ज़रुरत हैं। वे क्या खेल खेल रहे हैं इस पर निगरानी रखते हुए उन्हें बीच—बीच में पारंपरिक खेलों के साथ जोड़ा जा सकता हैं। बच्चा नहीं समझता है कि क्या सही हैं और क्या ग़लत। पेरेट्स और घर के बड़े बुजुर्ग उन्हें बताएं। सिर्फ ये कहना कि बच्चा दिनभर मोबाइल चलाता रहता हैं और उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाए ये बिल्कुल भी सही नहीं हैं। घर के लोगों की जिम्मेदारी हैं उसे एक बेहतर खेल का माहौल देने की। वैदेही वैष्णव, लेखक उज्जैन —————— —हमें इस बात से इंकार नहीं करना चाहिए कि इंटरनेट ने जीवन को सरल बना दिया हैं। इसका इस्तेमाल वर्तमान समय की ज़रुरत हैं। जड़ों से जोड़ने के लिए परिवार में एक दिन ऐसा हो जब सारे लोग मिलकर अपने—अपने समय के खेलों से बच्चों का परिचय कराए और इसे खेलने के लिए प्रेरित करें। बच्चे ना नहीं कहेंगे, उन्हें भी ऐसे ही खेल खेलने में मज़ा आएगा। हमें ही बच्चों को समय देना होगा। सुशीला त्रिवेदी, गृहिणी जयपुर इन सुझावों के अलावा भी ‘कहानी का कोना’ में प्रकाशन के लिए मिलेजुले सुझाव प्राप्त हुए हैं। इनमें शामिल हैं— उदयपुर से प्रतीक सैनी, जयपुर से आशा शर्मा और गीता पारीख, चित्तौड़गढ़ से सोनित शर्मा और बिलासपुर से रवि शाह। 9 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post कबिलाई एक ‘प्रेम—कथा’…भाग—8 next post यूं तेरा ‘लौटना’… Related Posts जन्माष्टमी पर बन रहे द्वापर जैसे चार संयोग August 24, 2024 देश की आज़ादी में संतों की भूमिका August 15, 2024 विनेश फोगाट ओलंपिक में अयोग्य घोषित August 7, 2024 बांडी नदी को ओढ़ाई साड़ी August 3, 2024 मनु भाकर ने जीता कांस्य पदक July 28, 2024 रामचरित मानस यूनेस्को ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड’ सूची... 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Reply Teena Sharma 'Madhvi' November 14, 2021 - 8:34 am जी आपका धन्यवाद 🙏🙏 हां आपका अनुमान ठीक है, मैं भी एक एथलीट रही हूं। Reply Teena Sharma 'Madhvi' November 14, 2021 - 8:35 am बिल्कुल ठीक ही लिखा है आपने वैदेही जी 🙏 उम्मीद करते हैं कि आगे भी आप कहानी का कोना के लिए अपने महत्वपूर्ण सुझाव हमें भेजती रहेगी। आपका तहे दिल से शुक्रिया। Reply Teena Sharma 'Madhvi' November 14, 2021 - 8:37 am उषा जी तहे दिल से आपको धन्यवाद 🙏🙏 अपना अमूल्य समय निकाल कर कहानी का कोना के लिए अपना सुझाव भेजा है इसके लिए आपको पुनः धन्यवाद। उम्मीद है कि आगे भी आप कहानी का कोना से इसी तरह से जुड़ी रहेंगी। Reply मंत्री शांति धारीवाल May 2, 2022 - 2:07 pm […] 'पारंपरिक खेल' क्यों नहीं…? […] Reply Leave a Comment Cancel Reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.