कहानियाँ पुजारी की ‘बीड़ी’ by Teena Sharma Madhvi February 22, 2021 written by Teena Sharma Madhvi February 22, 2021 ये कहानी है मिहिरपुर के चंदूबाबा की। गांव की एक छोटी—सी मंदरी के पुजारी थे वे। पूरे गांव से वे बड़ा मान—सम्मान पाते थे। उनके पास गर कोई घड़ी भर भी ठहर जाता तो फिर उसका मन जानें का नहीं करता। उनकी बातें ही कुछ ऐसी होती थी जिसे सुनने की चाह बस होती ही चली जाती..। एक पुजारी होने के नाते उनका कामकाज प्रभु श्री की सेवा करना और इससे जुड़े नित्यकर्म करना ही था। सुबह—शाम वे स्वयं ही मंदरी का कचरा—बुहारा करते। पौधों को पानी सीचतें। भगवान का स्नान—अभिषेक व पूजा करते…यहां तक कि भोग के लिए भी वे स्वयं ही प्रसादी भी बनाते थे। हां, गांव ही से कोई भोग बनाकर ले आए तब वे मना भी नहीं करते…। उसे बड़ी ही सहजता से स्वीकार भी कर लेते…। लेकिन गांव के कुछ बड़े घरानों और ऊंची जात के लोगों को ज़रुर इस बात से परेशानी थी। वे लोग चंदूबाबा को ऐसा नहीं करने की सलाह देते रहते…। लेकिन हर बार वे यही कहते कि भगवान तो भक्ति के भूखे हैं, उन्हें इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि भोग किस जात के घर से बनकर आया हैं। उनकी यह बात ऊंचा—नीचा सोचने वालों की समझ में उस समय तक तो आ जाती लेकिन कुछ दिन बाद ये बात फिर से उठने लगती। भोग को लेकर ये विवाद बस यूं ही चलता रहता…और पुजारी बाबा सुलझाते रहते। बस एक ही ऐब था उनमें। वे बीड़ी बहुत पीते। मंदरी की पेढ़ी पर बैठे—बैठे दिनभर में दसेक बीड़ी तो पी ही जाते…। कई बार संगत मिल गई तो बीड़ी का एक पूरा बंडल भी कम पड़ जाता। अकसर ये संगत संध्या आरती के बाद ही जमा करती थी। क्या रौनक होती थी आरती में…। पूरा चबूतरा भर जाता। बच्चे, बड़े, बूढ़े व औरतें सभी के सभी आरती में चले आते…। ऐसा लगता है मानों कल ही की बात हो..। घंटे—घड़ियालों की गूंज अब भी कानों में सुनाई पड़ती हैं तो मन सुकून से भर उठता हैं। वैसे तो मंदरी में गिनती के बस चार ही घंटे थे…और बजाने वाले अनेक हाथ। गांव के अधिकतर बच्चे कोशिश करते कि वे संध्या आरती के लिए समय पर मंदरी पहुंचें और घंटा बजाए…। जो पहले आ गया उसी के हाथ लगता था घंटा…। चंदूबाबा पट खोलने के बाद सभी घंटे मंदरी की चौखट के बाहर रख देते…। जिसके हाथ घंटे लगते वो ही आरती पूरी होने तक उसे बजाता…। ऐसे में जिन्हें घंटा नहीं मिलता उसका चेहरा उतर जाता। मुझे याद हैं उस दिन भी जब चंदूबाबा ने घंटे मंदरी की चौखट के बाहर रखे थे…। मैं बस कुछ ही देरी से पहुंची थी…। मंदरी में पांच पेढ़ी थी। बस पेढ़ी चढ़ ही रही थी तभी चौखट पर रखे सभी घंटे उठा लिए गए। ये देखते ही मैं बुरी तरह से दु:खी हो गई। स्वाभाविक ही था कि आज मुझे घंटे बजाने को नहीं मिलें। लेकिन मेरे लिए ये सहजता से स्वीकार कर लेना संभव न हो सका। मेरे चेहरे पर बड़ी उदासी छा गई और आंखों में आंसू भर आए…। पंद्रह मिनट तक आरती चलती रही…इस बीच न जानें कितनी ही बार दिल रोया…। बार—बार ख़ुद पर तरस आ रहा था…। आज घंटा नहीं मिला…अब नींद कैसे आएगी…रात भर यही दु:ख सताएगा…। जो घंटा बजा रहे थे उनके चेहरे पर बेहद खुशी थी। मेरी नज़रें उन्हीं पर थी…ऐसा लग रहा था मानों सभी मुझे चिढ़ा रहे हो…। आरती पूरी होने तक मैं सहज न हो सकी। जैसे ही आरती हुई चंदूबाबा ने तांबे के लोटे के जल से सभी पर छिड़काव किया और फिर आरती दी…। जब मेरी तरफ आरती की थाली आई तो मैंने बहुत ही उदास मन से हाथ बढ़ाकर आरती ली। चंदूबाबा ने मुझे गौर से देखा वे बोले तो कुछ नहीं…। मगर दिल ही दिल में वे मेरी उदासी का कारण समझ गए थे। जब प्रसादी लेने के बाद सभी जाने लगे तब उन्होंने मुझे रुकने के लिए कहा। मैं वहीं रुक गई…। उन्होंने मुझसे पूछा कि आज तुम आरती में देरी से क्यूं पहुंची..? मैंने बताया कि कुछ ज़रुरी काम की वज़ह से देरी हो गई। उन्होंने कहा क्या वो काम बेहद ज़रुरी था…? मैंने कहा हां…। वे बड़ी ही सरलता से बोले, क्या उस काम के बाद तुम्हें संतोष है कि वो तुम्हारे रुकने से पूरा हो सका। मैंने कहा हां…वो सिर्फ में ही कर सकती थी। तो फिर, तुम उदास क्यूं हो…? उन्होंने मेरे हाथ में प्रसादी देते हुए कहा। मैंने उन्हें बताया कि आज मेरे हाथ घंटे नहीं लगे। ऐसा लगा मानों शरीर से प्राण निकल गए हो…। चंदूबाबा जोर से हंस पड़े। मुझे अजीब लगा कि वे मेरी बात सुनकर हंसने क्यूं लगे। तभी वे बोले कि, ज़रुरी नहीं कि जो पल आपको ख़ुशी दें वो हमेशा के लिए हो…। जिस दिन तुम्हें घंटा मिलता हैं तब तुम खुश होती हो लेकिन उनका सोचों जो रोज़ मंदरी पर आने के बाद भी घंटे को हाथ नहीं लगा पाते हैं। वे भी तो दु:खी होते होंगे…। आज उन्हीं में से किसी को घंटे बजाने का सुख और खुशी मिली हैं…तो क्या तुम्हें इस बात से खुश नहीं होना चाहिए…? ‘सुख और दु:ख एक अनुभव हैं, बस’…। ये कहते हुए वे अपनी संगत में चले गए। मैं कुछ देर मंदरी पर ही बैठी रही। चंदूबाबा की बात सुनने के बाद मैं वहां मौज़ूद अपने आसपास सभी को देखती रही। कुछ बच्चे चबूतरे पर खेल रहे थे..कुछ महिलाएं झुंड बनाकर चौके—चूल्हें, घर परिवार और बच्चों की बातें कर रही थी…तो कुछ अपने दु:खड़े रो रही थी। कुछ बड़े घराने के लोग आज फिर भोग को लेकर शिकायतें कर रहे थे…गांव की ‘लाजो’ मुंह लटकाए हुए खड़ी थी…। हर व्यक्ति का अपना दु:ख और अपना सुख था। लाजो बेचारी जो नीची जात में जन्मी थी लेकिन भावनाएं उसकी ऊंची थी …सो प्रभु के लिए भोग बना ले आई..ये उसका सुख था…। बड़े घराने वाले जिन्हें लाजो के हाथ का भोग प्रभु की थाल में परोसना पसंद नहीं था वे इसी बात से दु:खी थे…गांव के बच्चे ओटले पर कूद—फांदकर खुश थे…और मैं घंटा नहीं बजा पाने की वजह से दु:खी…। चंदूबाबा अपनी बेफिक्री के साथ ‘बीड़ी’ फूंक रहे थे……। बात सच में बहुत छोटी सी थी …..। 0 comment 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post प्रेम का ‘वर्ग’ संघर्ष next post सोशल मीडिया से ‘ऑफलाइन’ का वक़्त तो नहीं….? 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