‘गुड़िया के बाल’

by teenasharma

पिछले दिनों मैंने आपके साथ एक पोस्ट साझा की थी। जिसमें ‘आम आदमी’ और उसके जीवन को कहानियों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का वादा किया था। इसी शृंखला में आज प्रस्तुत हैं पहली कहानी…‘गुड़िया के बाल’…और इस कहानी का रियल हीरो हैं ‘दिनेश कश्यप’…जो मुझे ‘मेले’ की भीड़ के बीच मिला…। 
उम्र, 22 साल
काम, ‘गुड्डी के बाल बेचना’…।

'गुड़िया के बाल'

                                दिनेश कश्यप

‘गुड़िया के बाल’

बचपन गरीबी में  बीता और जवानी में बाकी युवाओं की तरह मौज़ मस्ती कर पाता उससे पहले ही ‘चकरा’ चलाने को मजबूर होना पड़ा..।

असल, में कहानी की शुरुआत उस धूल और मिट्टी के साथ शुरु होती हैं जिसमें खेलकूद कर दिनेश बड़ा हुआ। वो मिट्टी जो कभी दोस्तों पर उड़ाई जाती तो ख़ुद कभी उसमें लिपटकर ‘गुलाटियां’ खाई जाती।

मां—पिता मजूरी करके जैसे—तैसे घर चला रहे थे…लेकिन मासूम दिनेश को कभी—भी किसी कमी का अहसास नहीं हुआ….वह इत्ता तो जानता था कि वह गरीब है लेकिन उसके लिए जीने का अर्थ बस इतना ही था, दोनों वक़्त भरपेट भोजन मिल रहा हैं…कपड़े मिल रहे हैं…और गली—मुहल्ले के ढेर सारे दोस्तों के साथ खेलने को जी भर खेल…।

इससे ज़्यादा एक बच्चे को और चाहिए भी तो क्या…?

बड़ा भाई गजेंद्र मां—बाप के साथ हाथ बटाने चला जाता और कुछ पैसा वो भी कमा लाता। पीछे से दो बड़ी बहनें घर को संभाल लेती…।

सांझ ढलते ही मां—बाप, भाई और बहनों के बीच बैठकर खाना खाता और रात होते ही घर के आंगन में सोए—सोए आसमान के तारे गिनता…। कब नींद लग जाती पता नहीं…।

ये सब बचपन की बातें थी…जिसे दिनेश बड़ी ही ख़ुशी के साथ याद करता हैं। आज आंखों में वैसी बेफ़िक्री की नींद नहीं हैं…क्यूंकि कुछ साल पहले दिनेश ने अपने पिता को खो दिया…।

वो जब गुज़रे तब दिनेश को पहली बार अहसास हुआ कि, इलाज के पैसे नहीं होने की वजह से वो पिता को नहीं बचा पाए…।

 

उसे पहली बार घर की आर्थिक परिस्थितियों के बारे में पता चला…पहली बार उसे अपने ग़रीब होने का मतलब समझ आया…। उसने पहली बार अपनी ‘मां’ और ‘भाई’ के हाथ देखे…जो मजदूरी करते—करते घीस गए थे…।

पिता के जाने के बाद मां का रो—रोकर हाल बुरा था…घर में दो बहनें शादी लायक हो रही थी…बड़ा भाई अपनी गृहस्थी चलाने के साथ ही सभी का पेट पाल रहा था। उसकी हालत भी दिनेश से देखी नहीं गई। तब पहली बार उसने कुछ काम करने की सोची।

और धूल—मिट्टी में खेलकर बड़े हुए दिनेश ने हिम्मत नहीं हारी और अपने परिवार का सहारा बनकर अपने भाई के साथ कांधे से कांधा मिलाकर खड़ा हो गया। दोनों भाईयों ने मिलकर उत्तर प्रदेश की सड़कों पर घूम—घूमकर गुड्डी के बाल बेचना शुरु कर दिया…।

कुछ दिन तक उधारी के गुड्डी के बाल ख़रीदकर बेचते रहे लेकिन इसमें उतनी कमाई नहीं होती जिससे घर वालों का पेट पल सके। तब दिनेश ने मजदूरी के साथ—साथ गुड्डी के बाल बेचे…और भाई के साथ मिलकर थोड़ा बहुत पैसा बचाना शुरु किया।

जब कुछ पैसा इकट्ठा हो गया तब उन्होंने ‘गुड़िया के बाल’ का धंधा राजस्थान में शुरु करने के बारे में सोचा। यहां पर गुड़िया के बाल बेचने के पीछे सबसे बड़ी वजह थी यहां पर लगने वाले मेले व तीज़, त्यौहार…।

तब एक दिन दोनों भाईयों ने अपनी पुश्तैनी जगह व घर को छोड़कर राजस्थान में जाकर बसने का फ़ैसला किया…और फ़िर पूरा परिवार जयपुर चला आया। यहां आने के बाद सबसे पहले अपना एक ठिकाना ढूंढा….।

किराए का मकान मिल गया…फ़िर ‘शक्कर से गुड्डी बाल बनाने वाली ‘चकरा मशीन’ ख़रीदी…। जिसे ‘कॉटन कैंडी मशीन’ कहा जाता हैं।

दिनेश का सपना है कि वो इसी काम से आगे बढ़ेगा…क्यूंकि इसी काम ने उसे पहचान दी हैं…। राजस्थान में भरने वाले लगभग सभी मेलों में आने वाले बच्चे और बड़े उसके हाथ से बनाए ‘गुड़िया के बाल’  खा रहे हैं…।

वो कहता है कि, हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं  गुड्डी के बाल… हर मेले की जान हैं ये गुड्डी के बाल…। ऐसे में ये ये परंपरा कभी—भी ख़त्म नहीं होनी चाहिए। मैं हमारी इस संस्कृति को मिटने नहीं दूंगा…। ख़ुद के संघर्ष कम नहीं फिर भी अपनी संस्कृति को बचाने में अपना अंशदान दे रहा हैं। ये हैं  ‘आम आदमी’…। 

जब उससे पूछा कि इससे तुम कितना कमा लेते हो। तब उसने हंसकर जवाब दिया…”मेरी कमाई तो पब्लिक पर डिपेंड करती हैं…।” यानी भीड़ ज़्यादा तो ज़्यादा कमाई…।

उसने बड़ी ही सरलता और बिना किसी शिकन के कहा, बिजली का बिल, घर का किराया ये कभी तो समय पर ज़मा हो जाता हैं और कभी नहीं…कभी राशन ख़रीद लेता हूं तो कभी नहीं….पर मुझे कोई शिकायत नहीं हैं…। मैं अपना काम कर रहा हूं बस…।

अब इसमें किसी दूसरे को दोष क्यूं देना…। चिंता में उलझकर क्यूं मरा जाए…। जब तक जीवन है ये सब परेशानियां भी हैं…। इसमें भी आनंद ढूंढकर जीता हूं…। दिनेश की बातों में उतनी ही गहराई और सच्चाई थी जितनी कि उसके चेहरे की मुस्कान…।

 

संघर्षो के बीच दिनेश की भी गृहस्थी बस गई हैं और उसकी एक बेटी हैं। जिसका नाम ‘काव्या’ हैं…। जिस दिन मेला नहीं होता वो जी भरकर अपनी बेटी के साथ खेलता हैं…।

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‘कांपती’ बेबसी…

‘कांपती’ बेबसी..भाग—2

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8 comments

Riya tiwari June 16, 2022 - 5:29 pm

जब तक जीवन है परेशानियां भी है, और इन परेशानियों में भी आनंद से जीने के दिनेश जज़्बे को जो आपने इस कहानी के माध्यम से दर्शाया,,,हर इंसान को इससे सिख लेनी चाहिए।।शानदार सच्ची कहानी👏👏👏👏👌👌👌👌

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teenasharma June 17, 2022 - 11:58 am

thankyu

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Kumar Pawan June 17, 2022 - 6:35 am

Dear writer you take a great initiative. We need to know struggles and success of Common people. These common people are the backbone of India. And you start supporting backbone of India. Good luck ☘️☘️

Kumar Pawan

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teenasharma June 17, 2022 - 11:58 am

thankyu

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कॉमन मैन— 'हुकुमचंद' गाइड - Kahani ka kona July 12, 2022 - 6:36 am

[…] 'गुड़िया के बाल' […]

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נערת ליווי July 28, 2022 - 8:58 pm

Itís difficult to find well-informed people in this particular subject, but you sound like you know what youíre talking about! Thanks

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דירות דיסקרטיות חולון August 15, 2022 - 8:31 am

Greetings! Very useful advice within this article! It is the little changes that produce the most significant changes. Thanks for sharing!

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नमस्कार,

   ‘कहानी का कोना’ में आप सभी का स्वागत हैं। ये ‘कोना’ आपका अपना ‘कोना’ है। इसमें कभी आप ख़ुद की कहानी को पाएंगे तो कभी अपनों की…। यह कहानियां कभी आपको रुलाएगी तो कभी हंसाएगी…। कभी गुदगुदाएगी तो कभी आपको ज़िंदगी के संघर्षों से लड़ने का हौंसला भी देगी। यदि आप भी कहानी, कविता व अन्य किसी विधा में लिखते हैं तो अवश्य ही लिख भेजिए। 

 

टीना शर्मा ‘माधवी’

(फाउंडर) कहानी का कोना(kahanikakona.com ) 

kahanikakona@gmail.com

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