कहानी पॉप म्यूज़िक

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by teenasharma
दीपिका पादुकोण

पढ़िए वरिष्ठ लेखक व साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल की लिखी कहानी पॉप म्यूज़िक...। रसोई में जाकर सभी डिब्बे एक बार पलट कर देखे और फ़िर लहसुन का एक पापड़ निकाल कर माइक्रोवेव में लगा दिया। पलक झपकते ही पापड़ भुन गया। वे उसे प्लेट में लेकर ड्राइंग रूम में आ गईं। उन्होंने टीवी और एसी एकसाथ ऑन कर लिए।

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 थोड़ी देर बाद वे सोफे पर बैठी रो रही थीं। केवल आंसू बहाकर नहीं, हिचकियों- सिसकियों से लगातार। पापड़ प्लेट में वैसे का वैसा ही पड़ा था। एक ओर से छोटा सा टुकड़ा तोड़ा ज़रूर गया था पर वो वैसे ही पड़ा था, उसे खाया नहीं गया था।

आभा जी की उम्र सत्तर वर्ष से अधिक ही थी, पर वे इतनी उम्रदराज लगती नहीं थीं। शायद इसका कारण यह था कि वह घर में बिल्कुल अकेली रहती थीं, इससे उन्हें सभी अपने छोटे- मोटे काम खुद ही करने पड़ते थे। ऐसे में इंसान को जीने का समय कहां मिल पाता है। और जिए नहीं तो उम्र खर्च काहे में हो? शरीर तो ज़िंदगी से ही झरता है।

आभा जी के रोने का कारण पता नहीं चला। कैसे चलता? कौन पूछता उनसे? आख़िर क्या कारण हो सकता है… क्या टीवी पर जो कार्यक्रम आ रहा था उसकी संवेदना उन्हें रुला रही थी? नहीं – नहीं, ऐसे कार्यक्रम आजकल आते ही कहां हैं जिन्हें देख कर आंसू आएं।

आजकल तो इस बात पर भले ही रोना आ सकता है कि टीवी के सामने बैठे ही क्यों! फिर क्या बात हुई, क्या पापड़ अच्छा नहीं है? पर लहसुन का पापड़ तो उन्हें पसंद रहा है।

आभा जी इस घर में हमेशा से अकेली नहीं रहीं। कोई हमेशा अकेला होता भी कहां है? दुनिया का मेला किसी को भी हमेशा अकेला नहीं छोड़ता। आज से तीस- चालीस वर्ष पहले आभा जी का भी भरा- पूरा घर था। यही घर।

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प्रबोध कुमार गोविल

यहां जब वे नई बहू बन कर आई थीं तब घर में सास ससुर थे। देवर ननद थे। और उनके पति थे। चार – छह साल गुजरे तो देवर – ननद अपने अपने ठीहे – ठिकाने चले गए। पर उनकी जगह लेने आ गई आभा जी की दो प्यारी- प्यारी छोटी सी बेटियां।
उनकी सास घरेलू पर दबंग महिला थीं। घर बाहर सब जगह दबदबा रखने वाली। 

शुरू के कुछ साल तो उनके इस लिहाज़ में बीते कि बहू कीनिया से आई है और उसके पीहर वाले बड़े मालदार व्यापारी लोग हैं। लेकिन धीरे- धीरे सौ बातों की जगह एक बात ने ले ली कि वो सास हैं और आभा जी बहू।

बहू को अपने सब रंग- ढंग वैसे ही बदलने पड़े जैसे सास ने चाहे। सास को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बहू विदेश में पढ़ कर आई है, वह अपने माता पिता की इकलौती संतान है, अब उसके पिता ने भी भारत में लौट कर अपना लंबा – चौड़ा कारोबार जमा लिया है… उन्हें तो केवल एक बात मालूम थी कि वह शादी कर के हमारे घर आ गई है तो अब हमारी बहू है, और वैसे ही रहेगी जैसे हम चाहेंगे।

वैसे आभा जी को कभी किसी बात की कमी रही भी नहीं, क्योंकि दिल्ली के बेहद संभ्रांत इलाके में इस लंबे चौड़े घर में किसी बात की कोई कमी थी भी नहीं। आभा जी ने कभी नौकरी नहीं की।

पति और ससुर दोनों ही अच्छा कमाते थे। बेटियां भी अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं। देवर और ननद भी अपना अपना करियर बनाने में व्यस्त थे।

आभा जी की सास पापड़ की बड़ी शौकीन थीं। उन्हें उस ज़माने में भी बीसियों तरह के पापड़ सहेज कर रखने का शौक़ था। वह ख़ुद घर में तरह- तरह के पापड़ बनवाती थीं।

जब बाज़ार जाती थीं तो शहर के किसी भी कोने के किसी भी पंसारी से पापड़ों के बाबत पूछना न भूलती थीं और उन्हें जो भी नए – नए पापड़ मिलते उन्हें खरीदती थीं।

आलू प्याज़ मूंग उड़द मोठ से लेकर अदरक और लहसुन तक के पापड़ हमेशा उनकी रसोई में उपलब्ध रहते। इतना ही नहीं, वे स्वयं नए- नए प्रयोग करके सब्जियों और मसालों के पापड़ तैयार करने में लगी रहती थीं।

वे पापड़ खाने की जितनी शौकीन थीं उससे कहीं ज़्यादा उन्हें खिलाने का शौक़ था। उनके यहां खाना खाने के लिए आमंत्रित अतिथियों को अपनी खाने की पसंद बताते समय पापड़ की भी पसंद बताना अनिवार्य था।

और जब खाना परोसा जाता, तब सभी तरह के पापड़ परोसे जाते। खाने वाले को अपनी पसंद का पापड़ विभिन्न किस्मों और स्वाद के पापड़ों में से चुनना पड़ता था। 

पूरी कॉलोनी की उनकी परिचित महिलाओं का साल में लगभग दो- तीन बार पापड़- कार्निवाल आयोजित होता था, जिसमें महिलाएं इकट्ठी होकर तरह- तरह के पापड़ बनातीं।

सर्दी हो तो उनकी कोठी की छत पर, गर्मी हो तो भीतरी बरामदे में महिलाओं का हुजूम जमा होता और फिर किसी त्यौहार की सी चहल- पहल के बीच पापड़ बनाए जाते।

वे न जाने कहां- कहां से पापड़ बनाने की तकनीकें सीख कर आतीं, फिर तमाम औरतों का जमावड़ा उन तकनीकों को फलीभूत करने के लिए कमर कसकर जुट जाता। सासों और बहुओं की एक साथ शिरकत होती।

तब आभा जी और घर की दोनों महरियां उन महिलाओं के लिए दोपहर की चाय के साथ परोसे जाने वाले व्यंजन बनाने में जुटी रहतीं।

डाइनिंग टेबल पर बैठे आभा जी के पति और ससुर इस बात को लेकर परिहास करते कि मूंग के पापड़ बनाने वालों के लिए मूंग की दाल का हलवा बनाया जा रहा है।

रसोई में तरह- तरह की क्रॉकरी में सजकर नाश्ता और चाय उन महिलाओं के लिए जाता रहता जो पूरी दोपहर पापड़ बेलने में लगी रहती थीं। दिन भर घर ही नहीं बल्कि पूरा मोहल्ला गुलज़ार रहता इस चहल- पहल से।

ये पापड़ जिस धूमधाम से बनाए जाते उतनी ही शानो- शौकत से खाए भी जाते। पहले तो सुंदर सी पैकिंग में इन्हें थोड़ा- थोड़ा उन सभी घरों में भिजवाया जाता जिनकी गृहलक्ष्मियां पापड़ बनवाने के लिए यहां एकत्रित होती थीं। फिर इन्हें सुंदर – सुंदर नाम लिखे डिब्बों में सहेज कर रखा जाता। कई महीनों तक ये खाए जाते।

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प्रबोध कुमार गोविल

आभा जी की सास खिलाने की बेहद शौक़ीन थीं। डाइनिंग टेबल के इर्द – गिर्द वो किसी शिक्षिका की तरह घूमतीं और ध्यान से देखती थीं कि किसे कौन सी चीज़ें खाने में भा रही हैं।  वह चीज़ फिर मुस्तैदी और आत्मीयता से परोसती थीं।

किसको सलाद में गाजर चाहिए, कौन मूली पसंद कर रहा है, किसने नीबू छुआ तक नहीं, कौन पनीर और मक्खन का मुरीद है, किसे मीठा कम पसंद है, तो किसे तेज़ मसालों के बिना मज़ा नहीं आता, सब उनकी निगाह में आते और वे साक्षात अन्नपूर्णा सी सबको उसी अंदाज़ में परोस कर तृप्त होती थीं।

जिस तरह कोई टीचर परीक्षा में बच्चों के लिए प्रश्न – पत्र बनाता है और उसमें बच्चों को पसंद के सवाल देकर एक प्रश्न अनिवार्य करता है, ठीक उसी तरह उनके अतिथियों के लिए भी कंपलसरी प्रश्न की तरह पापड़ रहता। इसे खाना भी सभी के लिए अनिवार्य रहता।

इसमें केवल इतनी ही चॉइस रहती थी कि पापड़ जिस वस्तु का भी चाहे मिल जायेगा किंतु इसे खाना अनिवार्य ही रहता। उनका पापड़ खाने वाला कभी खाने में फेल नहीं होता।

वे पापड़ परोसते समय पापड़ के गुणों का बखान करना भी नहीं भूलती थीं। वे बताती थीं कि किस तरह धनिया, पुदीना, हींग या अनारदाना पापड़ के रूप में शरीर को फ़ायदा पहुंचाते हैं, किस तरह पापड़ भोजन को पचाने में सहायक होता है

और इसके द्वारा खाने को फिनिशिंग टच किस तरह मिलता है। उनकी बातों के बाद पापड़ न खाने का कोई ऑप्शन किसी के पास न होता।

उनका पापड़ प्रेम घर भर के लिए कभी – कभी तो एक आतंक की तरह छा जाता। किसी के द्वारा थाली में पापड़ जूठा छोड़ने पर वे बेहद मायूस होतीं। कभी बेमन से जूठे पापड़ को समेट कर फेंकने की जगह स्वयं खाती हुई देखी जाती थीं तो कभी महरी को ये हिदायत देती थीं कि पापड़ अच्छा है, इसे फेंके नहीं और बाद में खाने के लिए रख ले।

महरी ये समझ नहीं पाती थी कि यदि पापड़ अच्छा था तो इसे मेहमान ने क्यों नहीं खाया, और जूठे बर्तन में से उठाया जा रहा है तो अच्छा कैसे है? लेकिन वह कुछ न बोलती और चुपचाप बर्तन धोने में लगी रहती रहती।

पापड़ पर कोई भी टिप्पणी करना उसे ऐसा ही लगता जैसे कोई  ठाकुर जी की आरती में तन- मन से शामिल होने के बाद ठाकुर जी का प्रसाद जूठा छोड़ दे।

आभा जी को याद आया कि इस दो मंजिले घर में पड़ोसी तक किस तरह पापड़ – पुराण से परिचित होते थे। आभा जी की सास जब नीचे की मंज़िल पर होती थीं तो ऊपर की मंज़िल पर काम में लगी आभा जी से ऊंची आवाज़ में बात करती थीं।

एक दिन वे नीचे के कमरे में खड़ी पूजा की तैयारी कर रही थीं कि आभा जी नहा कर बालकनी में आईं। सास ने नीचे से ही चिल्ला कर बहू को आवाज़ दी और समझाने लगीं – आभा, देखो मैं रसोई की मेज पर पापड़ निकाल कर रख आई हूं…

आभा जी के ‘जी’ बोलते ही वे बोलीं – तुम ऐसा करना कि अपने डैडी को तो तलकर रख देना, बच्चों को भून दो, मैं नहाकर आ रही हूं… आकर खा लूंगी।

उनका तात्पर्य था कि अपने ससुर के लिए पापड़ तल कर रख दो, और बच्चों के लिए भून कर रख दो, मेरे लिए भी भून देना, मैं नहाने के बाद आकर खा लूंगी… लेकिन उनकी बात सुनते ही आभा जी के देवर ने मज़ाक के स्वर में कहा – मम्मी डैडी को तलवा क्यों रही हो…वह कह कर हंसने लगा।

उसका आशय समझते ही वो झेंप कर खूब ज़ोर से हंसीं और बनावटी गुस्से से उसे डांटने लगीं – चुप बदतमीज! उस दिन के बाद से ये परिहास घर भर में लोकप्रिय होकर प्रचलित हो गया। आभा जी का देवर हर किसी से पूछता – आपको तलें या भूनें? उसका तात्पर्य पापड़ से होता।

आभा जी की सास पापड़ निकालते- निकालते भी शरमा जाती थीं। उस समय कौन जानता था कि ये बातें एक दिन इतिहास बन जाने वाली हैं। जब सास की सब सहेलियां पापड़ बनाने के लिए इकट्ठा हुआ करती थीं तो उनके शोर- शराबे को आभा जी का देवर “पॉप म्यूज़िक” ही कहा करता था।

घर भर के सदस्य उसका यह परिहास समझ गए थे कि पापड़ बनाने, बेलने के दौरान महिलाओं की चिल्ल- पौं और शोर – शराबे को पॉप म्यूज़िक कहा जा रहा है। वो अपनी मां से पूछता – मम्मी आपका अगला पॉप म्यूज़िक शो कब होगा? कहें तो इन्विटेशन कार्ड्स छपवा दूं?

सच ही तो है, माइकल जैक्सन,मैडोना, लेडी गागा या मोहम्मद रफी एक दिन अपनी आवाज़ों में ही तो रह जाते हैं। आभा जी ने जिंदगी की यह तल्ख असलियत अब खूब समझ ली थी।

सास ससुर तो दोनों ही कई बरस पहले दिवंगत हो गए थे, फिर एक दिन हार्ट अटैक के हल्के झटके के बाद पति भी चले गए। बेटियां शादी करके अपने – अपने ससुराल जा चुकी थीं जिनका आना- जाना अब मेहमानों की तरह ही था।

इस घर में अब आभा जी का बसेरा ही था। उन्हें रुपए पैसे की तंगी कभी नहीं रही। ससुर और पति दोनों ही भरपूर पैसा छोड़ गए थे। कमी थी तो बस दो बोल बोलने वाले की।

संयोग से बेटियों की शादी भी ऐसे घरों में हुई जहां उन्हें बहुत कुछ अपने पीहर से नहीं ले जाना पड़ा। शायद अकेली महिला पर तरस खाकर बच्चियों के ससुराल वालों ने कोई लंबी- चौड़ी मांगें शादी के समय नहीं रखीं।

उन्हें इतनी शायद जानकारी भी नहीं थी कि आभा जी अतिसंपन्न महिला हैं। वैसे भी सब जानते थे कि आभा जी के न रहने के बाद यहां की सब धन- दौलत बेटियों को ही तो जाने वाली थी। और था ही कौन जो आभा जी के पैसे का वहां वारिस बनता।

दिल्ली जैसे शहर में इतना बड़ा मकान अपने आप में एक अकूत मिल्कियत था, करोड़ों रुपए की कीमत थी उसकी।
बच्चियां बहुत कहती थीं आभा जी से, कि वो अब अकेले रहने की जगह बच्चों के साथ ही आकर रहें। कई बार उनका मकान खरीद लेने के भी अच्छे – अच्छे प्रस्ताव आए।

पर आभा जी हर बार यही सोच कर टाल गईं कि वो अकेली सही, हैं तो अपने घर में, अपने पति और सास ससुर की यादों के बीच। यदि वो उस मकान को बेच कर लड़कियों के पास चली भी जातीं तो वो अकेली ही तो जा पातीं।

वो उन यादों को अपने साथ भला कैसे ले जा पातीं? पिछली यादें हवा में तैरती खुशबू की तरह उस घर की फिज़ाओं में घूमती थीं। इसी से वो घर आभा जी को अपना लगता था।

वह कल्पना भी नहीं कर पातीं कि किस तरह इस घर को किसी और को बेचकर वे अपने अतीत के सरमाये को छिन्न – भिन्न कर दें!

शहर में जब कोई सेल या बाज़ार लगता वे मन- बहलाव के लिए वहां चली जाती थीं। अकेले व्यक्ति के घर में आवश्यकताएं होती ही कितनी सी हैं। लेकिन उन्हें वे दिन याद थे जब छुट्टी के दिन उनके ससुर और पति सबको अपनी बड़ी सी कार में शॉपिंग के लिए ले जाते थे।

आभा जी को लगता कि यदि अब वो उसी तरह शॉपिंग के लिए नहीं जाएंगी तो शायद उनके घर में बसी पति और सास ससुर की स्मृतियां बुरा मान जाएंगी। उन यादों को खुश रखने के लिए वो तैयार होती और घर से निकलती थीं।

ऐसे ही एक बाज़ार में जब उन्होंने बड़े से मेले में पापड़ों की वो विशाल दुकान देखी तो वो अपने को रोक नहीं पाईं। वे उस बड़े से शामियाने में दाखिल हो गईं। उन्होंने तरह – तरह के पापड़ों को काउंटर पर सजे देखा तो एक सेल्समैन को अपने पास बुला कर उसे सब में से थोड़े- थोड़े निकाल कर पैक करने का आदेश दे डाला।

पचासों तरह के पापड़ थे। सेल्समैन लड़के को यह आभास हो गया कि यह वृद्ध महिला बड़ी सी कार में आई है और इसे ढेर सारे पापड़ खरीद कर ले जाने हैं तो अपना संभावित बड़ा ग्राहक जान कर वह सब कार्य छोड़ कर मुस्तैदी से उनके साथ लग गया, पापड़ पैक करने में।

उसने पॉलिथिन का एक पैकेट उठाया और सभी किस्मों व ज़ायकों के पापड़ चुन – चुन कर उनमें डालने लगा। उसके लिए यह अनुमान लगाना आसान न था कि यह महिला किसी शादी – ब्याह की तैयारी में इतने पापड़ खरीद रही है या फिर वो स्वयं किसी स्थान की पापड़ की कारोबारी ही है जो बिक्री के लिए इतना माल खरीद कर ले जा रही है।

वह तन्मयता से अपना काम करता रहा। आभा जी उसके पीछे- पीछे मंथर गति से चलती हुई उसे पापड़ पैक करते हुए देखती रहीं। प्रगति मैदान में लगी उस व्यावसायिक प्रदर्शनी में गज़ब की भीड़ थी।

लंबी कतार में पापड़ इकट्ठे करते हुए जब वह लड़का आभा जी को काउंटर पर ले गया तब तक उनका पैकेट भी बहुत बड़ा बन चुका था और बिल भी।

लड़के ने उनसे इशारे से पूछना चाहा कि इतना बड़ा व भारी पैकेट वह ख़ुद उठा कर कैसे ले जाएंगी क्योंकि उनके साथ कोई और नहीं दिख रहा था। गाड़ी भी बाहर पार्किंग में थी जो वहां से काफ़ी दूर थी।

आभा जी ने काउंटर पर पैसे चुकाने के बाद दुकान के मालिक से अनुनय की कि वह उनका सामान उनकी कार में रखवा देने की व्यवस्था करवा दे।

उनके इस प्रस्ताव पर दुकानदार पहले तो थोड़ा सकपकाया लेकिन फिर और कोई चारा न देख कर उसने सेल्समैन लड़के से ही कहा कि वह उनके साथ जाकर पार्किंग में खड़ी उनकी गाड़ी में उनका सामान रखवा कर आ जाए।

लड़का तेज़ी से चल पड़ा। उसने अभी – अभी पैक किया पापड़ों का वह पैकेट कंधे पर रखा और बड़े- बड़े कदम रखने लगा। आभा जी उसके पीछे- पीछे चल पड़ीं।

कोलाहल से बाहर आते ही उन्हें लगा कि जैसे वो किसी “पॉप म्यूज़िक कंसर्ट” से निकल कर आ रही हों। कार में पैकेट रखवा कर उन्होंने सेल्समैन लड़के को पचास रुपए का एक नोट दिया। वह नमस्कार में सिर झुका कर वापस लौट गया। आभा जी घर चली आईं।

आज उस पापड़ के पैकेट से निकाले हुए पापड़ों में से एक लहसुन का पापड़ उन्होंने भूना था जो अब तक बिना खाया रखा था।
वे स्वयं भी नहीं समझ पा रही थीं कि वो रो क्यों रही हैं??? 

प्रबोध कुमार गोविल
आदर्श नगर, जयपुर- ( राजस्थान)

लेखक परिचय—
लेखक की 40 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, इनमें 11 उपन्यास शामिल है जिनमें प्रमुख है, ‘देहाश्रम का मन जोगी’,’बेस्वाद मांस का टुकड़ा’, ‘रेत होते रिश्ते’ आदि।

कहानी संग्रह में ‘अन्त्यास्त’, ‘सत्ता घर की कन्दराएं, ‘खाली हाथ वाली अम्मा’ और प्रोटोकॉल प्रमुख हैं। इसके अलावा कई लघुकथा संग्रह, नाटक, संस्मरण, निबंध व बाल साहित्य प्रकाशित हो चुके हैं।

अपने लेखन के लिए इन्हें ‘सृजन साहित्य पुरस्कार’, ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान’
‘लघुकथा गौरव सम्मान’,’बाल साहित्य पुरस्कार’, अनुवाद आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं।

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नमस्कार,

   ‘कहानी का कोना’ में आप सभी का स्वागत हैं। ये ‘कोना’ आपका अपना ‘कोना’ है। इसमें कभी आप ख़ुद की कहानी को पाएंगे तो कभी अपनों की…। यह कहानियां कभी आपको रुलाएगी तो कभी हंसाएगी…। कभी गुदगुदाएगी तो कभी आपको ज़िंदगी के संघर्षों से लड़ने का हौंसला भी देगी। यदि आप भी कहानी, कविता व अन्य किसी विधा में लिखते हैं तो अवश्य ही लिख भेजिए। 

 

टीना शर्मा ‘माधवी’

(फाउंडर) कहानी का कोना(kahanikakona.com ) 

kahanikakona@gmail.com

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