कहानियाँ ‘झम्मक’ लड्डू by Teena Sharma Madhvi June 29, 2020 written by Teena Sharma Madhvi June 29, 2020 चिलचिलाती धूप…माथे से टपकता पसीना…और बेसब्र आंखों से बल्लू का इंतजार करना। ये सिर्फ एक दिन की ही बात नहीं थी। बल्कि रोज़ाना ही भरी दोपहरी में नीम के पेड़ के नीचे बैठकर कंचों में गांव के छोरे छोरियों के साथ बाजी खेलते हुए निगाहें उसी पत्थर की सड़क पर बनी रहती जहां से बल्लू आता। खेल में कोई भी जीते इससे फर्क नहीं पड़ता लेकिन बल्लू एक दिन भी न आए तो जान पर बन आती…। आज भी नज़रें सड़क पर ही थी…लेकिन बल्लू का अता पता नहीं। सड़क पर सन्नाटा पसर रहा था। हां, साइकल पर सवार और मुंह को कपड़े से ढ़ाके हुए गांव के पाटीदार बा ज़रुर नज़र आ रहे थे। ये अकसर इसी समय अपने खेत से घर आते थे। लेकिन ये बल्लू आज कहां मर गया…गला सुखने को आ गया…। वाकई ये ख़्याल ऐसा लगता है मानो अभी—अभी की ही बात हो…। आज भी वो पत्थर की सड़क.. नीम का पेड़… मंदिर का ओटला…और वो बल्लू का इंतजार..यादों की गहराई में छूपा हुआ है लेकिन अब भी वो वर्तमान की आंखों में यूं तैरता है जैसे बल्लू आएगा और सब के सब दौड़ पड़ेंगे उसकी ओर…। ये कहानी है जीवन के उस एक अंश की जो बीता हैं एक ऐसे गांव में जहां पर बचपन की एक उम्र ने न जाने कितने ही मासूम से पलों को जीया होगा। आज जब तेज गर्मी के कारण माथे से पसीना छूटा तो ‘झम्मक’ लड्डू याद आ गया। याद आता है वो दिन जब पेड़ के नीचे कंचे खेलते—खेलते उस दिन तो छोरे—छोरी उकता से गए थे। इसीलिए जिसको जैसा सुहाया वो वैसे ही पेड़ की छांव में सुस्ताने लगा। कोई पेड़ से गिरती हुई निंबौली को एक—दूसरे पर फेंक रहा था तो कोई नीम की झड़ रही पत्तियों को ही दांतों से चबाकर तेढ़े— मेढ़े मुंह बना रहा था। लेकिन बल्लू है कि आज सभी के सब्र का इम्तिहान ले रहा था। बल्लू के लिए आज जो इंतजार हो रहा था उसकी एक खास वज़ह थी। दरअसल, आज सभी छोरे—छोरियों के पास मुट्ठी भर से ज़्यादा धान था। ये वो समय था जब धान के रुप में गेहूं, मक्का, बाजरा या चने जैसा मुट्ठी भर अनाज देकर कुछ चीज़ें खरीदी जा सकती थी। लेन—देन के लिए गांव में पैसा नहीं बल्कि ये धान ही दिया जाता था। और उस दिन भी गांव के छोरे—छोरियों ने अपने—अपने घर से हमेशा से ज़्यादा धान लिया था। ताकि वे दो झम्मक लड्डू का स्वाद ले सके। वो कहते हैं ना कि इंतजार का फल मीठा होता हैं इसीलिए आज का इंतजार भी मीठा ही फल देगा ये सोचकर सभी बच्चे इसी नीम के पेड़ के नीचे बल्लू की बांट जोह रहे थे। ये कोई साधारण पेड़ नहीं था। बल्कि मंदिर के भीतर ही सालों से लगा हुआ था। जिसके चारो और मिट्टी का ओटला बना हुआ था। ये मंदिर भी पूरे गांव में इकलौता ही था। सभी जाति के लोग यहां दर्शन करने और माथा टेकने आते थे। सुबह—शाम की आरती के वक़्त तो यहां अच्छी खासी भीड़ रहती, जो चिरौंजी की प्रसाद बंटने के बाद ही छंटती। गांव के कुछ लोग यहां लंबे समय तक बैठे रहते..। कोई घर—परिवार की तो, कोई अपने खेत खलिहान की बातें करता। बच्चे छुपमछय्यां या पकड़म पकड़ाई खेलते रहते…। मंदिर के आसपास बेहद सुखद और मनोरम दृश्य होता..। सुबह होते ही लोग खेत—खलिहान को निकल पड़ते..और संध्याकाल होते ही अपने ‘ढोरों’ को चराते हुए घर लौट आते। इस गांव की यही दिनचर्या थी। लेकिन दोपहरी के वक़्त इस मंदिर के ओटले की रौनक बच्चे और कुछ बूढ़े लोगों से ही हुआ करती थी। बूढ़े अपनी बीड़ी के साथ ताश की पत्ती या अंग—मंग—चौक—चंग खेलते और बच्चे कभी कंचे तो कभी लंगड़ीपवा खेलकर समय बीताते। ठाकुर जी के पट बंद ज़रुर रहते लेकिन भरी दोपहरी में भी बच्चों के तेज शोर के बीच वो भी कहां सो पाते होंगे…। बच्चों का ये शोर तभी थमता जब बल्लू आता..। दरअसल, ये बल्लू मां के दूर के रिश्ते में लगने वाले भाई का बेटा था जो दोपहरी में अपना बर्फ का ठेला लेकर पूरे गांव में घूमता। कहने को तो इसका ठेला दिखने में बहुत साधारण सा था लेकिन इस ठेले पर जो था उसने पूरे गांव के बच्चों की जीभ को बिगाड़ रखा था। बल्लू के ठेले पर बर्फ और उसकी घिसाई के लिए लकड़ी के गत्ते पर लगी हुई लोहे की एक छोटी—सी पत्ती के साथ ही कांच की कुछ बोतलें थी जिसमें अलग—अलग रंगों का शरबत भरा हुआ था। बल्लू जैसे ही मंदिर के ओटले पर अपना ठेला रोकता बच्चे उसके ठेले को घेर लेते। उस दिन भी बल्लू का इंतजार हो रहा था। और लंबे इंतजार के बाद जैसे ही उसके ठेले के घंटी की आवाज़ सुनाई दी तो सारे के सारे एक साथ उठ खड़े हुए। सभी बच्चों की खुशी का ठिकाना न था। और जैसे ही बल्लू मंदिर के ओटले तक पहुंचा बच्चों ने उसे पहले तो खूब कोसा…आज इतनी देर से क्यूं आया…कहां चला गया था…कितनी देर से तेरी राह देख रहे हैं…अबके तुने कभी देरी की ना तो शाम को आरती के बाद तेरे साथ नहीं खेलेंगे…। बल्लू हंसता रहा…और सभी सवालों का एक ही जवाब दिया कि आज बाज़ार से बर्फ लाने में पिताजी ने देर कर दी। इसीलिए मुझे भी आने में देरी हो गई। लेकिन अब बच्चों को सबर नहीं था। गर्मी से राहत के लिए सभी को झम्मक लड्डू खाना था इसीलिए पहले मुझे…पहले मुझे का शोर होने लगा। बल्लू हंसमुख चेहरे वाला लड़का था इसीलिए वह बस मुस्कुराता रहता और बारी—बारी से बड़े ही प्रेम से सभी के लिए बर्फ की घिसाई करके अपने हाथों से उसे लड्डू का आकार देता और बीच में एक डंडी फंसाकर उस पर मनचाहे शरबत का लाल, हरा, पीला, गुलाबी, जामुनियां और भी कई तरह के रंग डालकर झम्मक लड्डू बनाकर खाने को देता। सच में बच्चों के चेहरे खिल उठे थे…। बदले में उसे सभी ने धान की छोटी—छोटी पोटली दी। बल्लू ने ठेले के नीचे पड़े लोहे के डिब्बे में सभी का धान रख दिया था..और घंटी बजाता हुआ गांव में आगे की ओर बढ़ गया। दिनभर ठेले पर झम्मक लड्डू बेचकर शाम को यही बल्लू मंदिर पर आकर सभी के साथ खेलता…। सालों बीत गए लेकिन आज भी झम्मक लड्डू का स्वाद जी को ललचाता है। लेकिन ना तो अब बल्लू का ठेला है…और ना ही बचपन के साथियों की वो टोली…। मंदिर अब पक्का बन गया है..मिट्टी के ओटले की जगह संगमरमर की फर्श ने ले ली है…नीम का पेड़ अब नहीं रहा…। यादों के घरौंदे में अब पत्थर की सड़क…नीम का पेड़…साथियों की टोली…निबौंली…कंचे…लंगड़ीपवा…छुपमछय्यां…और वो झम्मक के लड्डू का स्वाद ही बस शेष रह गया है। कुछ और कहानियां— खाली रह गया ‘खल्या’ लाला की दुकान अब भी है चालू आख़िरी ख़त प्यार के नाम 4 comments 0 FacebookTwitterPinterestEmail Teena Sharma Madhvi previous post ज़िदगी का दुश्मन है नशा next post धन्यवाद ‘डॉक साब’… Related Posts अपनत्व April 12, 2023 प्यार के रंग March 13, 2023 बकाया आठ सौ रुपए March 1, 2023 एक-एक ख़त…बस February 20, 2023 प्रतीक्षा में पहला पत्र February 16, 2023 लघुकथा—सौंदर्य February 11, 2023 एक शाम January 20, 2023 गुटकी January 13, 2023 कुछ पन्ने इश्क़ December 30, 2022 कहानी स्नेह का आंगन December 23, 2022 4 comments shailendra June 29, 2020 - 7:51 am बहुत ही शानदार , सरल शब्दों में बचपन लौटा दिया। Reply Vaidehi-वैदेही June 29, 2020 - 9:32 am आपकी कहानियों को पढ़कर लगता हैं जैसे कहानी में थोड़ी थोड़ी मैं भी हुँ,, जैसे मेरे जीवन का कोई पहलू छुपा हो ।बहुत सुंदर कहानी 👌🏻 Reply Teena Sharma 'Madhvi' June 29, 2020 - 9:49 am Thank-you shail Reply Teena Sharma 'Madhvi' June 29, 2020 - 9:50 am Bilkul tmse judi ho sakti he.. Thank-you Reply Leave a Comment Cancel Reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.